हार कर भी खुशी मनाती कांग्रेस: भाजपा की सीटें घटने पर आनंदित होने के बजाय अपनी हार का मूल्यांकन करे कांग्रेस

लोकसभा चुनाव परिणाम के तथ्यों को ध्यान में रखें तो यथार्थ में कांग्रेस के लिए वैसी उत्साहजनक तस्वीर नहीं नजर आएगी जैसी अब दिखाने की कोशिश हो रही है । लगता है कांग्रेस भाजपा की सीटें घटने को ही अपनी बड़ी सफलता मानकर आनंदित हो रही है और इस उत्साह में अपना सही मूल्यांकन नहीं कर पा रही है ।

By Jagran NewsEdited By: Narender Sanwariya Publish:Thu, 27 Jun 2024 10:30 PM (IST) Updated:Thu, 27 Jun 2024 10:30 PM (IST)
हार कर भी खुशी मनाती कांग्रेस: भाजपा की सीटें घटने पर आनंदित होने के बजाय अपनी हार का मूल्यांकन करे कांग्रेस
हार कर भी खुशी मनाती कांग्रेस (File Photo)

अवधेश कुमार। गत दिनों राहुल गांधी ने वायनाड लोकसभा सीट से इस्तीफा देखकर रायबरेली से सांसद रहने का फैसला किया। उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम से कांग्रेस के अंदर यह विश्वास पैदा हुआ है कि अगर राहुल गांधी ने वहां ध्यान दिया तो अगले आम चुनाव में पार्टी की स्थिति बेहतर हो सकती है और लोकसभा में अंकगणित बदल सकता है।

क्या इस चुनाव परिणाम के आधार पर माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश सहित उत्तर भारत में कांग्रेस के दिन वापस लौट सकते हैं? चूंकि भाजपा की सीटें घटीं और कांग्रेस तथा कुछ विपक्षी दलों की बढ़ीं, इसलिए उनके अंदर उम्मीद पैदा हुई है कि फिर से हमारा उत्थान हो सकता है, लेकिन कांग्रेस एवं विपक्ष के अन्य दल यह न भूलें कि कांग्रेस 1991 के बाद केवल 2009 में ही 200 का आंकड़ा पार कर 206 की संख्या तक पहुंची थी।

इसमें उत्तर प्रदेश से प्राप्त 21 सीटों का बड़ा योगदान था। कांग्रेस का यह संकट आज का नहीं है। 1989 में भी उसे सिर्फ 197 लोकसभा सीटों पर ही विजय मिली थी। 1991 में भी 232 सीटें तब मिली थीं, जब राजीव गांधी की हत्या से कांग्रेस को सहानुभूति मिली थी। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो वह 200 के आंकड़े से नीचे ही होती।

1996 में उसे 140, 1998 में 141, 1999 में 114 तथा 2004 में 145 सीटें मिलीं। 2009 को छोड़ दें तो 2014 में 44, 2019 में 52 और 2024 में 99 सीटें मिलीं। इस तरह पिछले 35 वर्षों में कांग्रेस ने लोकसभा में केवल दो बार 200 का आंकड़ा पार किया। 2009 में उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के एक बड़े वर्ग ने सपा को छोड़ कांग्रेस के लिए मतदान किया और इस कारण उसकी सीटें बढ़ीं।

2004 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार का गठन इस कारण हुआ, क्योंकि भाजपा को 138 सीटें मिलीं और उसके विरोधी दलों ने कांग्रेस के इर्द-गिर्द मोर्चा बना लिया। 2009 में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा उस तरह प्रखर राजनीतिक पार्टी के रूप में चुनाव में नहीं दिखी, जिससे उसका व्यापक समर्थन वर्ग खड़ा हो सके। नरेन्द्र मोदी के आते ही 2014 में पूरी स्थिति वास्तविकता पर लौट आई।

एक समय कांग्रेस देश की सबसे बड़ी पार्टी थी। इसके आसपास भी कोई नहीं था। बाद में जनाधार के स्तर पर कांग्रेस ने विचार, व्यवहार एवं व्यक्तित्व यानी नीति, रणनीति और नेता के स्तर पर ऐसा जनाकर्षक परिवर्तन नहीं किया, जो फिर उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम आम भारतीय को उसका प्रतिबद्ध समर्थक बना दे।

राहुल गांधी 2004 से सांसद हैं और उत्तर प्रदेश में उसके पहले से सक्रिय हैं। प्रियंका वाड्रा भी लगातार सक्रिय हैं। बावजूद इसके कांग्रेस प्रदेश में अपने पैरों पर आज तक खड़ी नहीं हो सकी है। प्रियंका वाड्रा के कांग्रेस महासचिव बनने तथा उत्तर प्रदेश के प्रभारी होने पर 2019 में कांग्रेस से केवल सोनिया गांधी रायबरेली से निर्वाचित हुई थीं।

दक्षिण में कांग्रेस का जनाधार रहा है। उसमें भी केरल में भाजपा के कमजोर होने के कारण कांग्रेस नेतृत्व या फिर वाम मोर्चा वाले गठबंधन के चलते ही वहां की ज्यादातर सीटें उसे मिलती रही हैं। आंध्र में कांग्रेस नहीं है, तमिलनाडु में द्रमुक गठबंधन के कारण उसे सीटें मिलती हैं। कर्नाटक में उसकी सरकार रहते हुए भी 1999 को छोड़कर लगातार लोकसभा चुनाव में भाजपा को ज्यादा सीटें मिलती रही हैं।

तेलंगाना में अवश्य वह अपना आधार कुछ हद तक प्राप्त कर पाई है। ऐसे में भले राहुल गांधी उत्तर प्रदेश और प्रियंका वाड्रा केरल चली जाएं, इससे कांग्रेस के व्यापक विस्तार की संभावना दिखाई नहीं देती है।

भाजपा की सीटें घटना उसके स्वयं के लिए गंभीर चिंता का विषय है। चूंकि इसमें बड़ी भूमिका उसके कार्यकर्ताओं, स्थानीय नेताओं और प्रतिबद्ध समर्थकों की है, जिन्होंने या तो उदासीनता बरती, या बिल्कुल काम नहीं किया या विरोध कर दिया। कांग्रेस भाजपा को ज्यादा नुकसान पहुंचाने या कमजोर करने में वहीं सफल हुई, जहां वह गठबंधन में थी।

जैसे-उत्तर प्रदेश में सपा के साथ उसके गठबंधन के कारण भाजपा दूसरे नंबर की पार्टी बनी। गठबंधन में भी वह 17 सीटों पर ही लड़ पाई। महाराष्ट्र में राकांपा (शरद पवार) और शिवसेना (उद्धव ठाकरे) के साथ मिलकर ही कांग्रेस ने भाजपा को ज्यादा क्षति पहुंचाई। बिहार में अगर राजद वाला गठबंधन नहीं हो तो कांग्रेस कहीं नहीं है।

दिल्ली में आम आदमी पार्टी से मिलकर भी सातों सीटें जीतने से कांग्रेस भाजपा को नहीं रोक पाई। जहां कांग्रेस ने भाजपा से सीधा मुकाबला किया उनमें राजस्थान, हरियाणा, कर्नाटक जैसे राज्यों में उसने क्षति पहुंचाई, लेकिन भाजपा वहां कांग्रेस से पीछे नहीं गई। इसके अलावा गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड आदि ऐसे राज्य रहे, जहां सीधे संघर्ष में कांग्रेस एक सीट नहीं पा सकी और भाजपा की एकतरफा जीत हुई।

बंगाल में वाम मोर्चा से गठबंधन के बावजूद कांग्रेस सफल नहीं हुई। उसके नेता अधीर रंजन चौधरी तक हार गए। ओडिशा में लोकसभा एवं विधानसभा दोनों में वह हाशिये की पार्टी बनी रही। जबकि केरल में भाजपा इस बार एक सीट जीती है तो दो पर दूसरे स्थान में रही है। अगले चुनाव में अगर उसने अपना जनाधार थोड़ा बढ़ाया तो संभव है वहां भी कुछ सीटों का समीकरण बदले। इसी तरह तमिलनाडु में सीटें न जीतते हुए भी भाजपा ने अपना वोट बढ़ाया है।

आम चुनाव परिणाम के इन तथ्यों को ध्यान में रखें तो यथार्थ में कांग्रेस के लिए वैसी उत्साहजनक तस्वीर नहीं नजर आएगी, जैसी दिखाने की कोशिश हो रही है। लगता है कांग्रेस भाजपा की सीटें घटने को ही अपनी बड़ी सफलता मानकर आनंदित हो रही है और इस उत्साह में अपना सही मूल्यांकन नहीं कर पा रही है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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