मार्क्सवाद की खतरनाक खुराक: अमेरिकी विश्वविद्यालयों में इस समय विरोध-प्रदर्शन के नाम पर जो कुछ हो रहा है, उससे भारत को सतर्क रहना होगा

असहिष्णुता और कट्टरता को विचारधारा का लबादा ओढ़ाकर सांस्कृतिक मार्क्सवाद ने आज वह स्थिति पैदा कर दी है जिसमें यहूदी विद्यार्थी बैरीकेड लगाकर विश्वविद्यालयों में अपनी जान बचा रहे हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया को लगा था कि वामपंथ खत्म हो गया परंतु अमेरिकी विश्वविद्यालय इसके गवाह हैं कि मार्क्सवाद अपने परिवर्तित रूप में अब भी एक खतरा है।

By Jagran NewsEdited By: Narender Sanwariya
Updated: Wed, 15 May 2024 10:30 PM (IST)
मार्क्सवाद की खतरनाक खुराक: अमेरिकी विश्वविद्यालयों में इस समय विरोध-प्रदर्शन के नाम पर जो कुछ हो रहा है, उससे भारत को सतर्क रहना होगा
अमेरिकी विश्वविद्यालयों में इस समय विरोध-प्रदर्शन के नाम पर जो कुछ हो रहा है, उससे भारत को सतर्क रहना होगा

विकास सारस्वत। इन दिनों कई अमेरिकी और यूरोपीय विश्वविद्यालय इजरायल-फलस्तीन युद्ध का दूसरा मोर्चा बन चुके हैं। अमेरिका में तो उग्र प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए कैंपसों में पुलिस और सेना बुलानी पड़ी है। वहां सैकड़ों गिरफ्तारियां हो चुकी हैं। प्रदर्शनकारी छात्रों की मांग है कि अमेरिकी संस्थान हथियार बनाने वाली कंपनियों और ऐसे व्यवसायों से अपना निवेश वापस लें, जो इजरायल को लाभ पहुंचाते हों।

आंदोलन की आड़ में अराजकता और कैंपसों पर आधिपत्य जमाने की चेष्टा भी चल रही है। अमेरिका के पिछले छात्र आंदोलनों की ही तरह कोलंबिया यूनिवर्सिटी इन प्रदर्शनों का केंद्र बनी हुई है। इस उत्पात में कई शिक्षकों का भी भरपूर सहयोग साफ दिखाई दे रहा है। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में करीब सौ प्राध्यापकों ने पत्र लिखकर न केवल हमास समर्थक छात्रों का बचाव किया था, बल्कि सात अक्टूबर के नरसंहार को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की सलाह भी दी थी। हमले के तुरंत बाद कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने हमास, हिजबुल्ला और जिहाद के समर्थक मोहम्मद अब्दू की अतिथि प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति की।

इसी संस्थान के प्रोफेसर जोसफ मस्साद ने हमले को प्रशंसनीय बताया। साउथ कैलिफोर्निया के एक प्राध्यापक अब्दुल फतह अलनाजी को तो एक इजरायली प्रदर्शनकारी की पीट-पीटकर हत्या करने के आरोप में गिरफ्तार भी किया गया। हमास के नृशंस हमले के अगले ही दिन हार्वर्ड की फलस्तीन एकजुटता समिति ने इस हमले के लिए इजरायल को ही जिम्मेदार बताया था। चौंकाने वाली बात यह भी थी कि हार्वर्ड अध्यक्ष क्लाडीन गे, यूनिवर्सिटी आफ पेंसिल्वेनिया की अध्यक्ष लिज मैगिल और एमआइटी अध्यक्ष सैली कार्नब्लथ ने अपने यहां यहूदी नरसंहार के नारों का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बेशर्मी से बचाव किया।

अमेरिकी कैंपसों में साफ दिखाई दे रही यह शरिया-वामपंथ कट्टरता पिछले सात दशकों से वहां पनप रहे सांस्कृतिक मार्क्सवाद की देन है। वैचारिक कट्टरता के इस पहलू की कभी गहन समीक्षा नहीं हुई। कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ के अनुसार शोषित मजदूर वर्ग को पूंजीवाद के खिलाफ क्रांति करनी थी, परंतु रूसी क्रांति किसानों द्वारा लाई गई। बोल्शेविक क्रांति के बाद यूरोप की तमाम कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट पार्टियां मार्क्स द्वारा क्रांति के अवश्यंभावी होने की भविष्यवाणी पर आस लगाए बैठी रहीं, लेकिन क्रांति नहीं आई।

हताश विचारकों ने मार्क्सवाद का नए सिरे से आकलन शुरू किया, जिसमें जर्मनी के गोएथे यूनिवर्सिटी स्थित इंस्टीट्यूट आफ सोशल रिसर्च ने अग्रणी भूमिका निभाई। चूंकि यह विश्वविद्यालय फ्रैंकफर्ट में स्थित था इसलिए इस मतांतरित विचार को फ्रैंकफर्ट स्कूल आफ थाट के नाम से जाना गया। ये बुद्धिजीवी खुद को सभी विचारधाराओं से असंबद्ध बताते हुए अपनी चेष्टा को आलोचनात्मक सिद्धांत कहते रहे, परंतु पूंजीवाद के विरोध एवं क्रांति के समर्थन में लगभग सभी एकमत थे। मार्क्सवाद की पुनर्समीक्षा में फ्रैंकफर्ट स्कूल के अलावा इतालवी मार्क्सवादी एंटोनियो ग्राम्शी का बड़ा योगदान रहा। ग्राम्शी ने मजदूर और किसानों के अलावा भाषाई, नस्लीय और मजहबी अल्पसंख्यकों को शोषित वर्गों के रूप में चिह्नित किया और उनसे क्रांति की उम्मीद लगाई।

करीब छह-सात दशक पहले छिड़े नारी मुक्ति आंदोलन और यौन क्रांति ने नारीवादियों और यौन अल्पसंख्यकों को भी शोषित वर्ग में जोड़ दिया। मार्क्सवाद और इस्लामियत में समान रूप से विद्यमान कट्टरता और मजहबी अल्पसंख्यकों का शोषित वर्ग के रूप में चिह्नीकरण इस्लामी कट्टरवादियों के लिए अनुकूल रहा। नए वामपंथी विचारकों के पास भी अब क्रांति के वाहक के रूप में बहुत से वर्गों का एक बड़ा समूह था। दूसरी तरफ हिटलर के डर से इंस्टीट्यूट आफ सोशल रिसर्च, फ्रेंकफर्ट से अमेरिका स्थित कोलंबिया यूनिवर्सिटी में स्थानांतरित हुआ, जहां यह संस्थान 1935 से 1953 तक बना रहा।

इस दौरान यहां बहुत सा मार्क्सवादी साहित्य प्रकाशित हुआ। ग्राम्शी की जेल में लिखी लेखनी का प्रकाशन भी यहीं हुआ और कोलंबिया यूनिवर्सिटी अमेरिका में वामपंथ का केंद्र बन गई। हथियारबंद क्रांति की आशा छोड़ नए वामपंथ ने विश्वविद्यालयों को निशाना बनाया। ग्राम्शी ने मार्क्सवादियों से शैक्षणिक संस्थाओं में घुसपैठ बनाने का आह्वान किया और मार्क्यूज ने समाज में क्रांतिकारी चेतना को शैक्षणिक संस्थाओं के माध्यम से संचारित करने की वकालत की। इसके साथ ही मार्क्यूज ने सहिष्णुता को ही दमनकारी बता दिया। मार्क्यूज ने कहा कि जब तक समाज में किसी भी प्रकार की वर्ग संरचना है तब तक बुर्जुआ वर्ग सहिष्णुता को अपना विशेषाधिकार और सत्ता बनाए रखने के लिए हथियार की तरह उपयोग करता रहेगा। इसलिए मार्क्यूज का विचार अल्पसंख्यकों, कट्टरपंथियों और अराजक तत्वों के प्रति सहिष्णुता का तो समर्थन करता है, परंतु बहुसंख्यकों और सरकारी तंत्र के प्रति सहिष्णुता का विरोध करता है।

तथ्यों को नकारने वाले सांस्कृतिक मार्क्सवाद ने न सिर्फ हर सामाजिक समस्या को समूह दृष्टि से देखने पर बल दिया, बल्कि पूरी दुनिया को शोषक और शोषित जैसे स्थायी वर्गों में बांट दिया। ऐसे में, इस विचारधारा ने कुछ समूहों का अंधा समर्थन और दूसरे समूहों के अंध विरोध को प्रोत्साहित किया। अपने मताग्रह के कारण सांस्कृतिक मार्क्सवाद उन तथ्यों की अनदेखी करता है जो उसकी विचारधारा के खिलाफ जाते हैं। उदाहरण के लिए इस विचारधारा के अनुसार बहुसंख्यक हमेशा शोषक और अल्पसंख्यक शोषित ही रह सकता है।

जबकि भारत में ही देखें तो मजहबी और नस्लीय अल्पसंख्यकों ने लंबे समय तक बहुसंख्यकों पर शासन और उनका शोषण भी किया है। असहिष्णुता और कट्टरता को विचारधारा का लबादा ओढ़ाकर सांस्कृतिक मार्क्सवाद ने आज वह स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें यहूदी विद्यार्थी बैरीकेड लगाकर विश्वविद्यालयों में अपनी जान बचा रहे हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया को लगा था कि वामपंथ खत्म हो गया, परंतु अमेरिकी विश्वविद्यालय इसके गवाह हैं कि मार्क्सवाद अपने परिवर्तित रूप में अब भी एक खतरा है और इस्लामी कट्टरपंथियों के साथ इसके गठजोड़ ने सभ्य समाज के सामने गंभीर चुनौती खड़ी कर दी है। यह चुनौती भारत में भी उभर रही है। अमेरिकी विश्वविद्यालयों में इस समय जो कुछ हो रहा है, उससे भारत को सतर्क रहना होगा।

(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)