चुनाव को प्रभावित करने वाले पहलू, आधारभूत राजनीतिक पहलू ही किसी राजनीतिक दल को जीत दिलाने में प्रभावी भूमिका निभाते हैं

विपक्षी दलों ने भाजपा नेताओं को घेरना शुरू कर दिया है कि उनका चार सौ पार का नारा हवा-हवाई था और कुछ चरणों के चुनाव के बाद वह गायब हो गया है। विपक्षी दल महंगाई से लेकर बेरोजगारी जैसे आर्थिक मुद्दों को भी उठा रहे हैं। इसी संदर्भ में भाजपा के ट्रंप कार्ड राम मंदिर के प्रभाव को हल्का करने के लिए सवाल कर रहे हैं।

By Jagran NewsEdited By: Narender Sanwariya Publish:Mon, 13 May 2024 11:45 PM (IST) Updated:Mon, 13 May 2024 11:45 PM (IST)
चुनाव को प्रभावित करने वाले पहलू, आधारभूत राजनीतिक पहलू ही किसी राजनीतिक दल को जीत दिलाने में प्रभावी भूमिका निभाते हैं
चुनाव को प्रभावित करने वाले पहलू (File Photo)

राहुल वर्मा। लोकसभा चुनावों के लिए चार चरणों का मतदान संपन्न हो चुका है। मतदान को लेकर चौथे चरण के अंतिम आंकड़े आना अभी शेष हैं। चूंकि तीन चरणों में मतदान पिछले चुनाव के मुकाबले कम हुआ है, जिसकी पक्ष-विपक्ष अपनी-अपनी सुविधा से व्याख्या कर रहे हैं। नतीजों को लेकर अटकलों का बाजार गर्म है। इसके लिए सट्टा बाजार से लेकर शेयर बाजार की चाल को पैमाना बनाया जा रहा है। कुछ लोग निर्वाचन क्षेत्रों में जाकर भी जमीनी हकीकत का जायजा ले रहे हैं। चूंकि इंटरनेट मीडिया के इस दौर में हर व्यक्ति विश्लेषक बना हुआ है तो चुनाव परिणामों के परिदृश्य को लेकर तरह-तरह के अनुमान एवं आकलन तैर रहे हैं। इन्हीं अनुमानों के आधार पर सत्ता पक्ष और विपक्ष अपना विमर्श गढ़कर राजनीतिक बढ़त बनाने के प्रयास में हैं।

चुनाव शुरू होने से पहले व्यापक रूप से यही माना जा रहा था कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग आसानी से लगातार तीसरी बार सरकार बनाने की राह पर है, लेकिन चुनावी प्रक्रिया शुरू होने के दो-तीन हफ्तों के बाद मतदान के कमजोर रुझान और विमर्श का कोई एक बिंदु न उभरने के कारण स्थितियां उतनी अनुकूल नहीं दिख रहीं।

कहीं पर कुछ स्थानीय तो कुछ राज्यों के मुद्दे उभर गए या कई सीटों पर उम्मीदवारों को लेकर भी अनिश्चितता बनी हुई है। मतदान के घटते रुझान से भी कोई दल किसी तरह का दावा करने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में कुछ सवाल उठते हैं कि क्या मोदी-फैक्टर अब उतना प्रभावी नहीं रहा है? क्या चुनाव की एकाएक तस्वीर इस प्रकार से बदल गई है कि उसमें राजनीतिक आधारभूत पहलुओं की कोई भूमिका नहीं रह गई है?

आधारभूत राजनीतिक पहलुओं की बात करें तो यही किसी राजनीतिक दल को जीत दिलाने में प्रभावी भूमिका निभाते हैं, क्योंकि ये ठोस मुद्दों पर आधारित होते हैं। भाजपा ने भी इन्हीं पहलुओं के इर्दगिर्द अपनी रणनीति बनाई थी और उनके आधार पर ही उसे अपनी जीत का भरोसा रहा। आधारभूत पहलुओं में पहला बिंदु है सामाजिक समीकरणों का। पिछले कुछ समय से भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग के माध्यम से विभिन्न सामाजिक समूहों को साधने का प्रयास किया है।

यहां तक कि राष्ट्रपति जैसे पद के माध्यम से भी प्रतीकात्मक संदेश देने का काम किया गया। पहले दलित समुदाय से आने वाले राम नाथ कोविन्द को राष्ट्रपति बनाया गया, फिर उनके बाद आदिवासी समाज की महिला द्रौपदी मुर्मु को रायसीना हिल पहुंचाया। केंद्रीय मंत्रिपरिषद से लेकर विभिन्न राज्यों में मुख्यमंत्री चुनते समय इसका ध्यान रखा गया कि सामाजिक समीकरण सधे रहें। क्या डेढ़ महीनों में ही ये सामाजिक समीकरण बदल गए होंगे? कांग्रेस ने भी दलित समुदाय से आने वाले मल्लिकार्जुन खरगे को अध्यक्ष बनाया, पर वह उसका वैसा संदेश नहीं दे पाई।

दूसरा बिंदु नेतृत्व क्षमता का है, जिसमें भाजपा विपक्षियों पर भारी पड़ती है, क्योंकि उसके पास मोदी जैसा जांचा एवं परखा हुआ चेहरा है, जबकि विपक्षी दल किसी सर्वमान्य नेतृत्व को लेकर सहमति नहीं बना पाए। इसमें तीसरा बिंदु सांगठनिक कौशल का है, जिसमें भाजपा अपने विरोधियों से मीलों आगे दिखाई देती है, क्योंकि एक तो वह कार्यकर्ता आधारित पार्टी है और दूसरे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सहयोग भी उसकी क्षमताएं बढ़ाता है। सांगठनिक कौशल के मामले में विपक्षी दलों की स्थिति उतनी अच्छी नहीं दिखती।

चौथा बिंदु विचारधारा और मूल मुद्दों का है, जिस मोर्चे पर भाजपा खासी मुखर रहती है। पार्टी राम मंदिर के निर्माण और जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 की समाप्ति जैसे मूल वैचारिक वादों की पूर्ति के साथ ही समान नागरिक संहिता की दिशा में कदम बढ़ाने के संकेत देकर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता दर्शाकर समर्थकों को आश्वस्त करने में लगी है। जबकि विपक्षी दल वैचारिक मुद्दों पर भ्रम एवं दुविधा के शिकार दिखते हैं।

जैसे आइएनडीआइए के घटक दलों ने चुनावी घोषणा पत्रों में ऐसे वादे किए हैं, जिनसे शायद दूसरा दल ही पूरी तरह सहमत नहीं। आधारभूत पहलुओं के पांचवें स्तंभ में सरकारों का कामकाज परखा जाता है। इस मोर्चे पर मोदी बार-बार अतीत में कांग्रेस की असफलताओं को रेखांकित करते रहे हैं तो साथ ही अपनी सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं एवं उपलब्धियों का बखान भी करते हैं। विपक्षी दल मोदी के नैरेटिव की काट में उतने प्रभावी नहीं दिखते। इन पांचों पहुलओं को देखा जाए तो भाजपा के नेतृत्व वाला राजग चुनावों से पहले जिस तरह आश्वस्त दिख रहा था, अब शायद उसने कुछ रक्षात्मक रणनीति अपना ली है।

विपक्षी दलों ने भाजपा नेताओं को घेरना शुरू कर दिया है कि उनका चार सौ पार का नारा हवा-हवाई था और कुछ चरणों के चुनाव के बाद वह गायब हो गया है। विपक्षी दल महंगाई से लेकर बेरोजगारी जैसे आर्थिक मुद्दों को भी उठा रहे हैं। इसी संदर्भ में भाजपा के ट्रंप कार्ड राम मंदिर के प्रभाव को हल्का करने के लिए सवाल कर रहे हैं कि इससे आम आदमी को क्या लाभ होगा? यह कहना मुश्किल है कि उनका यह दांव कारगर सिद्ध होगा या आत्मघाती?

जहां मोदी विभिन्न वर्गों को लक्षित करने वाली अपनी कल्याणकारी योजनाओं के सहारे हैं तो विपक्ष उन्हीं योजनाओं में मीनमेख निकालकर अपनी राजनीतिक संभावनाएं खोज रहा है। विपक्षी दल भाजपा पर हिंदू आक्रामकता को बढ़ाने, तानाशाह रवैये को पोषित करने और संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक मूल्यों को क्षति पहुंचाने का आरोप भी लगा रहे हैं। देखना होगा कि ऐसे आरोप आम मतदाताओं के कितने गले उतरते हैं।

जहां तक चुनावी समीकरणों की बात है तो भाजपा ने करीब एक चौथाई सांसदों का टिकट काटा है तो उसे कुछ आंतरिक असंतोष भी भुगतना पड़ रहा है। हालांकि इसका एक लाभ यह भी होता है कि सांसदों के प्रति असंतोष का खामियाजा पार्टी को नहीं भुगतना पड़ता। पिछले कई चुनावों में भाजपा इस फार्मूले को आजमाती आई है। क्या उसी फॉर्मूले के सहारे भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ लगातार तीसरी बार सत्ता में आ पाएगी या फिर विपक्षी दलों की व्यूह रचना में फंसकर रह जाएगी? इसका जवाब तो चार जून को ही मिल सकेगा।

(लेखक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फेलो एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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