संसद चलाने की साझा जिम्मेदारी: राष्ट्रहित के लिए सरकार के साथ विपक्ष को भी निभानी होगी जिम्मेदारी

भारत में संसदीय प्रणाली का इतिहास काफी प्राचीन है। वैदिक काल में भी यहां सभा और समितियां थीं। संविधान सभा की कार्यवाही के दौरान कई धारदार बहस हुई थीं। संविधान सभा की कार्यवाही 165 दिन चली थी। 17 सत्र हुए थे। लोकसभा में भी 1968 तक सदस्य धैर्य से सुनते थे। मर्यादा में बोलते थे। फिर हंगामा आदि कारणों से संसद की कार्यवाही पर ग्रहण लगता गया।

By Jagran NewsEdited By: Narender Sanwariya Publish:Sun, 30 Jun 2024 11:45 PM (IST) Updated:Sun, 30 Jun 2024 11:45 PM (IST)
संसद चलाने की साझा जिम्मेदारी: राष्ट्रहित के लिए सरकार के साथ विपक्ष को भी निभानी होगी जिम्मेदारी
राष्ट्रहित के लिए सरकार के साथ विपक्ष को भी निभानी होगी जिम्मेदारी। (File Photo)

हृदयनारायण दीक्षित। नई लोकसभा गठन के साथ ही संसदीय कार्यवाही पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई हैं। संसद लगभग डेढ़ अरब लोगों की भाग्य-विधाता है। देश की इच्छा है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष राष्ट्रीय समृद्धि के लिए संसद में प्रेमपूर्ण संवाद करें, लेकिन सत्र के पहले दिन ही राष्ट्रपति के अभिभाषण पर तीन बार हंगामा किया गया।

दूसरे दिन से अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा प्रस्तावित थी। भारी शोरगुल हुआ। व्यवधान के कारण सदन स्थगित हो गया। सिर मुड़ाते ही ओले पड़ने वाली स्थिति निर्मित हो गई। संसदीय प्रणाली भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का मूल आधार है। जनता ने एक समूह को बहुमत देकर सरकार चलाने का जनादेश दिया है। साथ ही राष्ट्रहित में सुझाव देने एवं आलोचना करने की जिम्मेदारी दूसरे क्रम पर आए अल्पमत जनसमूह को सौंपी है।

लोकतंत्र में विपक्ष और विपक्ष के नेता की विशिष्ट भूमिका होती है। ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री हेरल्ड मैकमिलन ने कहा था, ‘विपक्ष के नेता की स्थिति कठिन होती है। दोष निकालना एवं आलोचना करना उसका काम है। संसद और राष्ट्र के प्रति विपक्ष की विशेष जिम्मेदारी है।’ बीते कुछ वर्षों से भारत में विपक्ष की भूमिका ने निराश किया है। सदनों में व्यवधान हैं।

बीते कुछ वर्षों से धारणा बनी है कि सदन चलाने की जिम्मेदारी केवल सरकार की है, जबकि सदन चलाने की जिम्मेदारी दोनों पक्षों की है। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ठीक लिखा था कि संसदीय प्रणाली में न केवल सशक्त विरोधी पक्ष की आवश्यकता होती है, बल्कि सरकार और विरोधी पक्ष के बीच सहयोग भी आवश्यक होता है। हम जहां तक ऐसा करने में सफल होंगे, वहां तक हम संसदीय जनतंत्र की ठोस नींव रखने में सफल होंगे।

हंगामा, नारेबाजी, बहस के दौरान सदन से बहिर्गमन और सदन के भीतर प्लेकार्ड प्रदर्शित करना विपक्ष का अधिकार मान लिया गया है। व्यवधान के कारण विपक्ष भी जनहित के मुद्दे नहीं उठा पाता। महत्वपूर्ण मुद्दों की ओर सरकार का ध्यानाकर्षण भी नहीं हो पाता। ऐसे तरीकों से जनोपयोगी मुद्दे भी उपेक्षित हो जाते हैं। भारतीय संविधान में शासन की स्थिरता के बजाय जवाबदेही को अधिक महत्व दिया गया है। इसलिए संविधान निर्माताओं ने संसदीय पद्धति को अपनाया।

संसद में प्रश्न, ध्यानाकर्षण और इसी तरह के अन्य प्रस्ताव संसदीय कार्यवाही के माध्यम से सरकार को उत्तरदायी बनाते हैं। संसद सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने का श्रेष्ठ मंच है। इसकी जिम्मेदारी विपक्ष को सौंपी गई है। संसदीय कार्यवाही को विपक्ष ही आदर्श स्थिति में पहुंचा सकता है। सत्ता पक्ष और विपक्ष परस्पर शत्रु नहीं होते। विधान बनाना जटिल काम है।

सरकार जरूरी विधायन के लिए यथाविधि प्रस्ताव लाती है। विपक्ष यथाविधि विरोध करता है। संशोधन प्रस्ताव रखता है। इसी तरह बजट के पारण में सत्ता पक्ष एवं विपक्ष की साझा भूमिका होती है। संसदीय कार्यवाही को उत्कृष्ट बनाना सत्ता पक्ष एवं विपक्ष का साझा कर्तव्य है। दोनों की आत्मीयता से सदन में विचार-विमर्श का परिवेश बनता है। हंगामे का कोई औचित्य नहीं है।

दुनिया के अनेक देशों में संसदीय जनतंत्र सफल हो रहा है। ब्रिटिश संसद में हंगामा नहीं होता। बीबीसी के अनुसार सैकड़ों वर्षों से ब्रिटिश हाउस आफ कामंस को एक मिनट के लिए भी स्थगित नहीं किया गया। कनाडा, आस्ट्रेलिया, अमेरिकी कांग्रेस, स्विट्जरलैंड की संघीय सभा, चीन की नेशनल पीपुल्स कांग्रेस, जापान की डायट और फ्रांस की संसद प्रायः सुचारु रूप से चलती हैं।

भारत जैसा हंगामा इन जनप्रतिनिधि संस्थाओं में नहीं होता। शोर और हंगामे से राष्ट्रीय क्षति होती है। दुर्भाग्य से 18वीं लोकसभा की शुरुआत ही स्थगन व्यवधान से हुई है। यहां शपथ ग्रहण के दौरान ही अप्रिय प्रसंग देखने को मिले। कुछ सांसदों ने शपथ में अपनी ओर से अनावश्यक शब्द जोड़े। इससे संवैधानिक शपथ की गरिमा का उल्लंघन हुआ है।

तमाम अवरोधों के बावजूद 17वीं लोकसभा की उत्पादकता संतोषजनक रही है, लेकिन शोर शराबा और अप्रिय शब्द प्रयोग के चलते कार्यवाही निराश करती है। मूलभूत प्रश्न है कि शोर और बाधा डालकर क्या हम कार्यपालिका को ज्यादा जवाबदेह बना सकते हैं या तथ्य और साक्ष्य रखते हुए प्रभावी भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं। सदन में शालीन और मर्यादित आचरण एवं भाषा का कोई विकल्प नहीं है।

भारत में संसदीय प्रणाली का इतिहास काफी प्राचीन है। वैदिक काल में भी यहां सभा और समितियां थीं। संविधान सभा की कार्यवाही के दौरान कई धारदार बहस हुई थीं। संविधान सभा की कार्यवाही 165 दिन चली थी। 17 सत्र हुए थे। लोकसभा में भी 1968 तक सदस्य धैर्य से सुनते थे। मर्यादा में बोलते थे। फिर हंगामा आदि कारणों से संसद की कार्यवाही पर ग्रहण लगता गया। संसद का समय घटता गया। सदस्यों की शिकायत रहती है कि सदन की बैठकें कम होती हैं। उन्हें बोलने का पर्याप्त समय नहीं मिलता। संविधान सभा में प्रो. केटी शाह ने संसद को कम से कम छह माह तक चलाने का प्रस्ताव किया था। अध्यक्ष मावलंकर का विचार भी वर्ष में सात-आठ माह सदन संचालन का था।

ब्रिटिश हाउस आफ कामंस की विशेषाधिकार समिति ने 1939-40 में सदस्यों को प्राप्त विशेषाधिकारों के पीछे कारण बताया था कि सदस्य संसद में बिना किसी बाधा के अपना कर्तव्य पालन कर सकें। शोर-शराबा और सदन के वेल में जाना विशेषाधिकार नहीं है। विशेषाधिकार जिम्मेदारी बढ़ाते हैं। हाउस आफ कामंस की एक समिति ने 1951 में दिलचस्प टिप्पणी की थी, ‘विशेषाधिकारों के कारण सदस्य समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो जाते, बल्कि संसद सदस्य होने से अन्य नागरिकों की तुलना में उनके दायित्व और बढ़ जाते हैं।’

विशेषाधिकार असामान्य उन्मुक्ति हैं। वे कार्यवाही में मर्यादा पालन में साधक हैं। इन सबके बावजूद कार्यवाही में व्यवधान होते हैं। विशेषाधिकार सहित सांसदों को मिलने वाली सुविधाएं एवं अधिकार सदन में मर्यादापूर्वक और परिपूर्ण वाक् स्वातंत्र्य के प्रयोग को शक्ति देने के लिए हैं।

सदन में अमर्यादित आचरण उचित नहीं। विश्वास है कि 18वीं लोकसभा में जनोपयोगी राष्ट्रीय विमर्श होगा। पक्ष-प्रतिपक्ष साथ मिलकर भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए संकल्पबद्ध होंगे। सभी सदस्य परस्पर आत्मीयता के परिवेश में अपने कर्तव्य का पालन करेंगे।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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