हमारे अंतरराष्ट्रीय उभार का आधार, देर से ही सही, लेकिन अब गंभीरता से सीख रहे भारतीय नीति-निर्माता

पिछले कुछ वर्षों में आंतरिक सुरक्षा की स्थिति में नाटकीय रूप से सुधार हुआ है। कई महत्वपूर्ण किंतु अशांत क्षेत्रों में शांति बहाल हुई है। आतंकी हमलों के लिहाज से नाजुक देश में आतंकवाद पर व्यापक अंकुश लगाया गया है। जहां घरेलू आतंकी तत्वों पर निर्णायक प्रहार कर उन्हें काबू किया गया तो बाहरी आतंकी शक्तियों को भी किनारे रखने में कामयाबी मिली है।

By Jagran NewsEdited By: Publish:Sat, 09 Sep 2023 01:13 AM (IST) Updated:Sat, 09 Sep 2023 01:13 AM (IST)
हमारे अंतरराष्ट्रीय उभार का आधार, देर से ही सही, लेकिन अब गंभीरता से सीख रहे भारतीय नीति-निर्माता
वैश्विक नेतृत्व पर भारत की पकड़ तबसे मजबूत होनी आरंभ हुई, जब उसने आंतरिक सुरक्षा की प्रतिबद्धता दिखानी शुरू की।

हर्ष वी. पंत : नई दिल्ली में जी-20 शिखर सम्मेलन आयोजन के साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का कद बढ़ना और तय है। भारत भू-राजनीति एवं भू-आर्थिकी केंद्र के रूप में स्थापित हो रहा है। दुनिया नई दिल्ली की दिखाई दिशा के अनुरूप सक्रिय हो रही है। आज भारत के नेतृत्व की साख को कहीं अधिक गंभीरता से लिया जा रहा है और अधिकांश राष्ट्र नई दिल्ली के साथ अपने संबंधों को मजबूत बनाना चाहते हैं।

दुनिया में सबसे तेजी से वृद्धि करने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था, अधिसंख्य युवा आबादी, गतिशील लोकतंत्र, वंचित वर्गों के कल्याण के भरसक प्रयासों के साथ ही विश्व कल्याण को समर्पित व्यावहारिक विदेश नीति वाला भारत अतीत की तमाम हिचक छोड़कर आगे बढ़ने के लिए तत्पर दिख रहा है।

वैश्विक पटल पर भारत का यह उभार अर्से से लंबित था। प्रेक्षकों की हमेशा से यही शिकायत रही है कि भारत संभावनाओं से भरा ऐसा देश रहा है, जो अपनी क्षमताओं के साथ कभी न्याय नहीं कर पाया। अब चूंकि भारत अपने वादों पर खरा उतरने लगा है तो यह भी उसके प्रति वैश्विक झुकाव की एक बड़ी वजह है, क्योंकि इस दौरान नई दिल्ली ने खुद को आंतरिक रूप से मजबूत बनाने के साथ ही भारतीय राज्य की क्षमताओं को भी बखूबी रेखांकित किया है।

पिछले कुछ वर्षों में आंतरिक सुरक्षा की स्थिति में नाटकीय रूप से सुधार हुआ है। कई महत्वपूर्ण, किंतु अशांत क्षेत्रों में शांति बहाल हुई है। आतंकी हमलों के लिहाज से नाजुक देश में आतंकवाद पर व्यापक अंकुश लगाया गया है। जहां घरेलू आतंकी तत्वों पर निर्णायक प्रहार कर उन्हें काबू किया गया तो बाहरी आतंकी शक्तियों को भी किनारे रखने में कामयाबी मिली है। आंतरिक सुरक्षा के दृष्टिकोण से जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 370 और 35-ए से मुक्ति दिलाना एक बड़ी उपलब्धि रही। स्वतंत्रता के बाद से कश्मीर घाटी में बनी यथास्थिति भारत के लिए भारी पड़ती जा रही थी।

राजनीतिक एवं नीतिगत दृढ़ता का अभाव ही भारतीय नीति-नियंताओं के लिए इस जकड़न को दूर करने में बाधक बना हुआ था। इस लिहाज से मोदी सरकार के सुधारवादी एजेंडे की सफलता न केवल जम्मू-कश्मीर की जनता, बल्कि भारत के भविष्य की दृष्टि से भी बहुत अहम है। यह सही है कि जम्मू-कश्मीर से जुड़े संवैधानिक परिवर्तनों को जमीन पर आकार लेने में कुछ समय लगेगा, पर इस कदम ने भारत के दुश्मनों की नींद जरूर उड़ा दी है। लद्दाख को लेकर चीन की कुंठा इसी कदम का नतीजा है, क्योंकि इस दांव से समूचे क्षेत्र में भारत की पकड़ मजबूत होगी। यह चीन की बदनीयती और दूरगामी दुस्साहसिक लक्ष्यों के लिए झटका है। आखिरकार भारत अपनी कमजोरी वाले दायरे से बाहर निकलकर खुद को सशक्त बना रहा है तो इससे उनका असहज होना स्वाभाविक ही है, जो पूर्व की यथास्थिति के साथ सहज थे।

पूर्वोत्तर भारत भी एक ऐसा क्षेत्र है, जिस पर हाल के वर्षों में सरकार ने बहुत ज्यादा ध्यान दिया है। स्वतंत्रता के बाद से ही भारतीय नीति-निर्माताओं की ओर से इस क्षेत्र की व्यापक अनदेखी हुई, जिसके कारण भी समझ से परे हैं। अतीत से चला आ रहा यह रुख अदूरदर्शी भी रहा, जबकि यह वही क्षेत्र है जिस पर चीन रह-रहकर अपनी बुरी नीयत दिखाता रहा है। इसके बावजूद नई दिल्ली ने इस क्षेत्र को कभी राष्ट्रीय चेतना के साथ नहीं जोड़ा।

इसी कारण भारत मात्र एक ‘दक्षिण एशियाई शक्ति’ के रूप में सिमटकर रह गया था, जबकि भारत का पूर्वोत्तर दक्षिण पूर्व एशिया के साथ संपर्क की नैसर्गिक कड़ी थी। उस पर ध्यान देकर हिंद-प्रशांत को लेकर भारत का दावा और मजबूत होता। अतीत की इन गलतियों को सुधारते हुए सरकार ने पूर्वोत्तर के साथ व्यापक रूप से सक्रियता आरंभ की है। उसे देश की मुख्यधारा से जोड़ने के गंभीर प्रयास हुए हैं।

मणिपुर की हालिया अप्रिय घटनाओं के आलोक में उन प्रयासों को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए, जिनके चलते पूर्वोत्तर भारत में गवर्नेंस के स्तर पर जबरदस्त कायापलट हुआ है। इसी परिवर्तन का प्रभाव है कि पिछले कुछ वर्षों में पूर्वोत्तर भारत में अलगाववादी घटनाओं में भारी कमी आई है। जनता और सरकार में बढ़ते भरोसे का ही प्रमाण है कि पूर्वोत्तर के कई हिस्सों से सैन्य बल (विशेष शक्तियां), अधिनियम यानी अफस्पा को हटा दिया गया है या उसके प्रविधानों में भारी ढील दे दी गई है।

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लाल किले से अपने भाषण में वामपंथी चरमपंथ यानी नक्सलवाद को देश के समक्ष सबसे प्रमुख सुरक्षा चुनौती के रूप में चिह्नित किया था। एक समय देश में वामपंथी चरमपंथ से ग्रस्त बड़ा हिस्सा ‘लाल गलियारे’ के रूप में कुख्यात था। मौजूदा सरकार ने उस लाल गलियारे की रंगत ही बदल दी है। माओवादियों पर सुरक्षा बलों की मजबूत पकड़ से लेकर उनके वित्तीय स्रोतों पर प्रहार के साथ ही माओवादी नेतृत्व की कमर तोड़कर सरकार ने इस चुनौती का एक बड़ी हद तक कारगर तोड़ निकाला है। चाकचौबंद सुरक्षा व्यवस्था और विकास गतिविधियों की जुगलबंदी से सरकार ने माओवाद प्रभावित क्षेत्रों की सूरत बदल दी है। इसका ही परिणाम है कि देश के समक्ष माओवाद अब वैसी चुनौती नहीं है, जैसी कुछ साल पहले तक थी। विकास की बहती गंगा के सामने माओवादियों को अपनी वैचारिकी के दम पर नए रंगरूट भर्ती करना मुश्किल हो रहा है।

केवल आर्थिक समृद्धि या संसाधनों के मोर्चे पर बढ़त ही किसी देश को वैश्विक राजनीति में सिरमौर नहीं बनाती। भारत को लंबे समय तक एक ‘सशक्त समाज, किंतु कमजोर राज्य’ की दृष्टि से देखा गया। इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि आंतरिक मामलों पर प्रभावी पकड़ के बिना किसी भी देश का अंतरराष्ट्रीय वरीयता अनुक्रम में ऊपर चढ़ना बेहद कठिन है।

वैश्विक नेतृत्व पर भारत की पकड़ तबसे मजबूत होनी आरंभ हुई, जब उसने आंतरिक सुरक्षा सुनिश्चित करने की क्षमता एवं प्रतिबद्धता दिखानी शुरू की। एक मजबूत राज्य जो अंदरूनी हलचलों पर नियंत्रण रखने में सक्षम हो, वही बाहरी स्तर पर राष्ट्रीय आर्थिक क्षमताओं का लाभ उठाने की स्थिति में होता है। यही वह सबक है जो भारतीय नीति-निर्माता देर से ही सही, लेकिन अब गंभीरता से सीख रहे हैं।

(लेखक सामरिक मामलों के विश्लेषक एवं आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के उपाध्यक्ष हैं)

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