शीत युद्ध के बाद स्थापित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था महाशक्तियों के बुरे बर्ताव के चलते लगातार क्षीण होती जा रही

Russia-Ukraine News शीतयुद्ध के दौरान अधिकांश छोटे देशों ने किसी न किसी महाशक्ति के पाले में शरण लेकर सुरक्षा आश्वासन पाने की चेष्टा की थी लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध ने नाटो जैसे गठजोड़ में शामिल होने की बुद्धिमत्ता पर ही सवालिया निशान लगा दिया है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Tue, 01 Mar 2022 10:58 AM (IST) Updated:Tue, 01 Mar 2022 11:00 AM (IST)
शीत युद्ध के बाद स्थापित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था महाशक्तियों के बुरे बर्ताव के चलते लगातार क्षीण होती जा रही
Russia-Ukraine News,: जंगलराज वाले दौर में दुनिया।

श्रीराम चौलिया। यक्रेन पर रूस के आक्रमण ने हमारे समक्ष एक तात्कालिक प्रश्न खड़ा कर दिया है कि हम किस प्रकार के विश्व में जी रहे हैं? वर्षों से ‘वैश्विक अव्यवस्था’ और ‘नेतृत्वहीन दुनिया’ की चर्चा होती रही है, परंतु अब यह वास्तव में दिखने लगी है। समकालीन दौर में एक धारणा यह भी बनी थी कि निरंतर बढ़ती परस्पर आर्थिक निर्भरता और आपस में लगातार जुड़ती दुनिया जैसी संकल्पनाओं के कारण 21वीं सदी में कोई बड़ा अंतरराष्ट्रीय टकराव नहीं होगा और छिटपुट घटनाओं को छोड़कर वैश्विक शांति कायम रहेगी, किंतु यूक्रेन के कीव और खारकीव जैसे घनी आबादी वाले शहरों में छिड़ी घमासान लड़ाई ने इन सभी धारणाओं को ध्वस्त कर दिया है। जिस हिंसक अंतरराष्ट्रीय इतिहास को बीती शताब्दियों की भूली-बिसरी घटनाएं मान लिया गया था, अब उनकी वापसी होती दिख रही।

दबंगई की राजनीति और शक्ति आधारित भू-राजनीति का डंका बजता दिखाई दे रहा है। इसे रोकने का दारोमदार जिस संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था पर है, वह कई वर्षों से अपना भरोसा खोती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर और अंतरराष्ट्रीय कानूनों की दुर्बलता लगातार जगजाहिर हो रही है। उनका मखौल उड़ाने में चीन, अमेरिका और रूस जैसे वीटो शक्ति से लैस देश ही सबसे आगे रहे हैं।

अमेरिका और उसके यूरोपीय मित्र देशों ने 2011 में लीबिया में जो अवैध हमला कर तख्तापलट कराया, उसके दुष्परिणाम उत्तरी और पश्चिमी अफ्रीका में आज तक भुगते जा रहे हैं। रूस ने 2008 में जार्जिया और फिर 2014 में क्रीमिया में जो सैन्य अभियान चलाए, उन्हें रोकने में भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय असमर्थ रहा। 2011 से लगभग एक दशक तक सीरिया और इराक के तथाकथित ‘गृहयुद्ध’ में पश्चिमी शक्तियां और रूस, दोनों ने अलग-अलग स्थानीय लड़ाकों की सहायता की और इस्लामिक स्टेट यानी आइएस के खात्मे के नाम पर गैरकानूनी हस्तक्षेप किए। 2015 से चल रहे यमन के छद्म युद्ध में भी अमेरिका, रूस और उनके साथी देशों ने वहां विनाशकारी खेल खेला है। इधर एशिया में चीन ने अपनी ताकत का बेजा लाभ उठाकर दक्षिणी चीन सागर में स्थित छोटे देशों के हिस्सों को हड़प लिया और 2016 में ‘पर्मानेंट कोर्ट आफ आर्बिट्रेशन’ के निर्णय की खुलेआम अवहेलना की।

चीन ने कोविड महामारी के बावजूद 2020 में भारत पर पूर्वी लद्दाख में अतिक्रमण करने में कोई संकोच नहीं किया, जबकि ऐसा कदम दोनों देशों के मध्य द्विपक्षीय अंतरराष्ट्रीय समझौतों का खुला उल्लंघन था। ये सभी उदाहरण यही बताते हैं कि शीत युद्ध के बाद स्थापित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था महाशक्तियों के बुरे बर्ताव और कपट के चलते बीते एक दशक से क्षीण होती जा रही है। जो हश्र यूक्रेन का हुआ, वह ताबूत में आखिरी कील के समान है। ऐसा इसलिए, क्योंकि यहां परोक्ष रूप से या छिपकर एक बड़े देश यानी रूस ने छोटे देश अर्थात यूक्रेन पर आघात ही नहीं किया, बल्कि खुलेआम तख्तापलट और कथित नि:शस्त्रीकरण की मंशा से हमला किया।

अब तो वह परमाणु हमले की भी धमकी दे रहा है। दरअसल महाशक्तियों के बीच सदियों से चली आ रही प्रतिद्वंद्विता और एक दूसरे पर हावी होने की राष्ट्रवादी भूख ही इस लड़खड़ाती अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का मूल कारण है। यही इसकी पृष्ठभूमि है। हाल के कुछ वर्षों में चीन और रूस ने स्वयं को अमेरिका की बराबरी वाला दर्जा हासिल

करने के मकसद से अति राष्ट्रवाद का सहारा लिया है। हालांकि रूस ‘व्यापक राष्ट्रीय शक्ति’ वाले देशों के वरीयता क्रम में चीन से पीछे है और अमेरिका से बराबरी करने के काबिल नहीं रहा, फिर भी उसने और उसके साथ ही चीन के नेताओं ने कथित राष्ट्रीय पुनर्जागरण की अवधारणा का ‘सैन्यीकरण’ किया है। दोनों अपने पुराने गौरव एवं ऐतिहासिक शिकायतों का हवाला देते हैं और अपने पड़ोसी देशों के इलाकों को अपना बताकर उन पर नियंत्रण हासिल करना चाहते हैं। दूसरी ओर अमेरिका किसी भी हाल में अपनी वैश्विक प्रधानता को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है और रूस या चीन के क्षेत्रीय दावों को स्वीकार नहीं करना चाहता।

रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन कम से कम 2007 से नाटो गठबंधन के पूर्वी विस्तार के विरुद्ध शिकायत कर रहे थे, लेकिन अमेरिका ने उनकी एक न सुनी। नाटो के नए सदस्य बढ़ते गए और रूस की पश्चिमी सीमाओं पर अत्याधुनिक हथियार एवं सेनाएं तैनात करते गए। इस दबाव के खिलाफ रूस की शिकायत जायज थी, परंतु यूक्रेन जैसे संप्रभु देश पर सीधा आक्रमण करना और उसे ऐतिहासिक रूसी साम्राज्य का अभिन्न अंग बताकर उसे अपनी कठपुतली बनाने की मंशा प्रकट करना कानूनी और नैतिक रूप से अनुचित है। जब बाहुबली आपे से बाहर हो जाएं तो नतीजा विनाश के रूप में ही निकलता है। यूक्रेन तो तबाह हो ही रहा है, लेकिन उस पर हमला खुद रूस को आर्थिक और सामरिक रूप से भारी पड़ सकता है। अब यह तय है कि यदि चीन ताइवान अथवा अन्य किसी देश पर आधिपत्य का प्रयास करेगा तो उसे भी प्रतिरोध का झटका मिलेगा। इसके बाद भी फिलहाल अन्य देशों के खिलाफ बल प्रयोग की बढ़ती प्रवृत्ति को नियंत्रित करना असंभव सा लगता है। आखिर जिसकी लाठी उसकी भैंस वाले इस दौर में वे देश क्या करें, जो बड़े देशों के निशाने पर हैं?

शीतयुद्ध के दौरान बड़ी शक्तियों के साये में रहते हुए छोटे देशों को एक प्रकार की तटस्थता अपनाना ही शायद दीर्घकालिक दृष्टि से तार्किक होगा। रही बात भारत जैसी उभरती शक्तियों की तो उन्हें ऐसी रणनीति चुननी चाहिए, जिससे वे न केवल संभावित खतरे वाले देशों से निपटने के लिए अपनी सैन्य क्षमता में वृद्धि कर सकें, बल्कि ऐसे देशों के दुश्मनों से दोस्ती मजबूत कर अपना सशक्त गठबंधन बना सकें। याद रहे कि विश्व में बढ़ते एक प्रकार के जंगलराज से आत्मिर्भरता और गुटबंदी का मिश्रण ही मुक्ति दिलाने में सहायक सिद्ध हो सकेगा।

(लेखक जिंदल स्कूल आफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं)

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