देश की इस सीट पर 1952 से अब तक सिर्फ 3 बार चुनाव हारी है कांग्रेस, पढ़िए पूरी खबर

1952 से अब तक के सभी चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी उतरे। सिर्फ तीन चुनाव को छोड़ सभी मुकाबले फतह किए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Tue, 16 Apr 2019 09:38 AM (IST) Updated:Tue, 16 Apr 2019 09:42 AM (IST)
देश की इस सीट पर 1952 से अब तक सिर्फ 3 बार चुनाव हारी है कांग्रेस, पढ़िए पूरी खबर
देश की इस सीट पर 1952 से अब तक सिर्फ 3 बार चुनाव हारी है कांग्रेस, पढ़िए पूरी खबर

रसिक द्विवेदी, रायबरेली। उप्र में रायबरेली का जिक्र आते ही मस्तिष्क में वीआइपी जिले का नक्शा कौंध उठता है। कारण भी साफ है कि इसी सीट से पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी लड़ चुकी हैं। वह जीतीं भी और उन्हें खाटी समाजवादी राजनारायण के हाथों हारना भी पड़ा। यह वही सीट है जहां नेहरू-गांधी परिवार की दो पीढ़ियों का सीधा नाता रहा है। यही नहीं, इस परिवार ने जिसे भी यहां से खड़ा किया उसने जीत का परचम फहराया। इसे कांग्रेस का गढ़ भी कहा जाता है क्योंकि जब यूपी में इस दल का सूपड़ा साफ हो गया तो इसी जिले ने लाज भी बचाई। 1952 से लेकर 2014 तक का चुनावी इतिहास स्पष्ट रूप से कहता है कि सिर्फ तीन बार कांग्रेस हारी है, बाकी फिरोज गांधी से लेकर इंदिरा गांधी, शीला कौल, अरुण नेहरू, सतीश शर्मा जैसी बड़ी हस्तियां यहां से चुनाव जीतकर देश की सबसे बड़ी पंचायत में पहुंच चुकी हैं। राजमाता विजयराजे सिंधिया, महिपाल शास्त्री, जनेश्वर मिश्र, सविता आंबेडकर जैसे चेहरे हारकर यहां से चले भी गए।

सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां:

यहां के लोग खेती किसानी से जुड़े रहे हैं। आर्थिक आधार भी यही रहा है। 1952 से यहां कांग्रेस च्यों-च्यों मजबूत हुई, उसका गांव-गांव संगठन बनता गया। चूंकि लगातार सत्ता में पार्टी बनी रही, ऐसे में इस दल के नेता भी मजबूत होते गए। जिले में विकास के लिए फैक्ट्रियां लगने लगीं तो यहां के लोगों का सामाजिक ताना-बाना भी मजबूत होने लगा। जब खेती-किसानी के लिए जिले में नहरों का जाल बिछा और रोजगार के लिए युवाओं को बाहर नहीं जाना पड़ा, ऐसे में चुनाव के दौरान एकतरफा वोटिंग होती रही। आंकड़े गवाह हैं कि बीते चार चुनाव सोनिया गांधी ने 50 फीसद मतों से ज्यादा पाकर जीता।

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बड़े-बड़े दिग्गज भी हुए ढेर:

रायबरेली हमेशा सुर्खियों में रही। यही कारण था कि यहां से चुनाव लड़ने बड़े-बड़े सूरमा उतरे। किसी ने परचम फहराया तो कई रणबांकुरे चारों खाने चित होकर लौट गए। 1952 और 1957 का चुनाव फिरोज गांधी के नाम रहा। फिर 1967 और 1971 में इंदिरा गांधी ने विजय पताका फहराई। लेकिन, 1977 में समाजवादी राज नारायण ने कांग्रेस का यह किला ढहाते हुए इंदिरा गांधी को 55202 वोटों से शिकस्त दे दी। हालांकि, तीन साल बाद ही इंदिरा गांधी फिर मैदान में उतरीं और उनके सामने मध्य प्रदेश से राजमाता विजय राजे सिंधिया आईं। लोकदल से महिपाल शास्त्री ने भी ताल ठोंकी। लेकिन इंदिरा गांधी ने करीब पौने दो लाख मतों से बड़ी जीत दर्ज कर ली। चूंकि इंदिरा गांधी आंध्र प्रदेश के मेडक से भी चुनाव जीती थीं। ऐसे में उन्होंने रायबरेली सीट छोड़ दी और यहां उपचुनाव हुआ। जिसमें अरुण नेहरू कांग्रेस प्रत्याशी बनकर आए। जबकि उनके खिलाफ ताल ठोंकने जनेश्वर मिश्र उतरे। लेकिन, गांधी परिवार का तिलिस्म काम करता रहा। अरुण नेहरू ने एक लाख से ज्यादा वोटों से मिश्र को पराजित किया। 1984 में सविता अंबेडकर अरुण नेहरू के खिलाफ उतरीं। वे भी हार कर लौट गईं। इसके बाद शीला कौल ने कांग्रेसी परचम फहराया।

हां, इसी दौरान 1996 और 1998 में कांग्रेस को इस जिले में सबसे बड़ा झटका लगा। जब एक स्थानीय नेता अशोक सिंह ने बतौर भाजपा प्रत्याशी दोनों चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार को चारों खाने चित कर दिया। 1999 में अरुण नेहरू ने पाला बदला तो उनके खिलाफ कांग्रेस ने कैप्टन सतीश शर्मा को मैदान में उतारा। इस चुनाव का परिणाम कांग्रेस के लिए सुखद रहा। उसके बाद सोनिया गांधी ने यहां कमान संभाली और लगातार जीतने का क्रम जारी रहा। उनके खिलाफ लड़ने के लिए अलगअलग चुनावों में बसपा से आरएस कुशवाहा, सपा से राज कुमार और उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ता अजय अग्रवाल भाजपा से उतरे। लेकिन सभीढेर हो गए।

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जब टूटा तिलिस्म:

1967 में इंदिरा गांधी यहां से सांसद बनीं तो विपक्ष को लगा कि रायबरेली उसके लिए अब दिवा स्वप्न है। ऐसे में सोशलिस्टों ने यहां पर जमीनी मेहनत की। गांव-गांव, गली-गली किसान मजदूरों की बात उठाने लगे और उनकी नुमाइंदगी वाला चेहरा उस दौर के कद्दावर नेता राज नारायण के रूप में सामने लाया गया। उन्होंने 1971 में इंदिरा गांधी के सामने चुनौती पेश की। लेकिन, एक लाख से भी ज्यादा वोटों से शिकस्त पाई। 1977 के चुनाव में मैदान में उतरे और उन्होंने इंदिरा को हरा दिया।

सोनिया के खिलाफ उनका ही करीबी

भाजपा ने एमएलसी दिनेश प्रताप सिंह को टिकट दिया है। वह सोनिया गांधी के खिलाफ मुकाबिल होंगे। दिनेश बीते साल 21 अप्रैल को ही भाजपा में शामिल हुए हैं। वह 10 साल तक कांग्रेस के सिपाही के रूप में जाने जाते रहे। कांग्रेस में रहते वह एमएलसी, उनके भाई अवधेश प्रताप सिंह जिला पंचायत अध्यक्ष और एक अन्य भाई राकेश प्रताप सिंह हरचंदपुर से कांग्रेस के विधायक बने। मगर, सत्ता के बदलाव में दिनेश ने पाला बदलने में समझदारी समझी। जो कभी सोनिया के चुनाव का बूथ स्तर तक काम देखते थे, अब उन्हीं सोनिया से भिड़ेंगे।

कांग्रेस का अभेद किला

1952 से अब तक के सभी चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी उतरे। सिर्फ तीन चुनाव को छोड़ सभी मुकाबले फतह किए। भाजपा से दो बार और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राज नारायण से ही कांग्रेस हारी है। 2014 में जब देश में मोदी लहर थी, उस दौरान भी सोनिया गांधी ने साढ़े तीन लाख से भी ज्यादा वोटों से जीत दर्ज कराई थी।

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