इस वजह से ताहिरा कश्यप ने अपनी फिल्म के लिए चुना 'शर्माजी का बेटी' का नाम, कहां- 'मैं लैंगिक भेदभाव का...'

शर्माजी की बेटी (Sharma Ji Ki Beti) की Tahira Kashyap ने फिल्म को लेकर कई मजेदार किस्से साझा किए हैं । उन्होंने ये भी बताया कि आखिर क्यों इस फिल्म का नाम शर्माजी की बेटी ही रखा । इस मूवी में कुछ-कुछ कमियां हैं ऐसी समस्याएं हैं जिसे देखने के बाद लगता है कि इसका जश्न भी होना चाहिए ।

By Jagran NewsEdited By: Aditi Yadav Publish:Sun, 30 Jun 2024 12:26 PM (IST) Updated:Sun, 30 Jun 2024 01:44 PM (IST)
इस वजह से ताहिरा कश्यप ने अपनी फिल्म के लिए चुना 'शर्माजी का बेटी' का नाम,  कहां-  'मैं लैंगिक भेदभाव का...'
Tahira Kashyap sharma ji ki beti (Photo Instagram)

 स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई।  ‘टॉफी’, पिन्नी’ जैसी शार्ट फिल्म निर्देशित कर चुकी ताहिरा कश्यप ने अब अमेजन प्राइम वीडियो पर प्रदर्शित फीचर फिल्म ‘शर्माजी की बेटी’ को निर्देशित किया है। फिल्म में साक्षी तंवर, दिव्या दत्ता और सैयामी खेर जैसी अभिनेत्री नजर आ रही हैं। खुद को फेमनिस्ट बताने वाली ताहिरा निर्देशक होने के साथ लेखक भी हैं। फिल्म समेत कई मुद्दों पर ताहिरा ने साझा किए जज्बात...

फिल्म का नाम ‘शर्माजी की बेटी’ रखने की कोई खास वजह?

हां, शर्माजी का बेटा बहुत ही लोकप्रिय मीम है। मतलब शर्मा जी का बेटा जो हर जगह अव्वल होता है, जिसने जिंदगी में सब किया होता है। मुझे लगा कि हमें शर्माजी की बेटी जैसी फिल्म बनानी चाहिए। हां इनमें कुछ-कुछ कमियां हैं पर यह ऐसी समस्याएं हैं, जिनका हमें जश्न मनाना चाहिए। उसके अलावा शर्माजी बहुत कॉमन सरनेम है।

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आपने एक्स पर लिखा है कि फूड और फेमिनिज्म आपका पसंदीदा जॉनर है...

मुझे लगता है कि हमें खुलकर बोलना चाहिए कि हम फेमिनिस्ट हैं। फेमिनिस्ट होना कोई शर्मनाक बात नहीं है। हम यह नहीं कह रहे हैं कि महिलाएं पुरुषों से बेहतर हैं। हम कह रहे हैं कि महिलाएं और पुरुष एक समान हैं। उन्हें समान इज्जत, मान-सम्मान और नौकरी में समान अवसर मिलना चाहिए। अगर समानता के आंदोलन को फेमिनिज्म का नाम दिया जाए, तो हां मैं फेमिनिस्ट हूं। हां खाना और फेमिनिज्म दोनों मेरे लिए बिल्कुल सही चीजें हैं। यह बात सच है कि खाना मेरी जिंदगी में अहम भूमिका निभाता है। इस फिल्म के बहाने मैं दुनिया को यह बताना चाहती हूं कि 30 साल की उम्र के बाद की महिलाओं से जुड़ी कई दिलचस्प कहानियां हो सकती हैं।      

कभी आपके साथ असमानता का व्यवहार हुआ, जिसे आपने अपनी कहानियों में उठाया?

‘शर्माजी की बेटी’ का हर पात्र मेरे दिल के करीब है। इसे मैंने अनुभव नहीं किया है, लेकिन ऑब्जर्व किया है। बतौर लेखक बहुत सारी ऐसी चीजों की ओर ध्यान जाता है, जिसे कोई नोटिस नहीं करता। वो आदत शुरू से थी। हां, मैं बहुत बार लैंगिक भेदभाव का शिकार रही हूं। बहुत सारे पितृसत्तामक विषयों का हिस्सा रही हूं। शायद यही वजह है कि उसके बारे में बहुत मजबूती से बात करती हूं। मैं जिस घर में पैदा हुई, वह काफी प्रगतिशील रहा है। मैं अपने माता-पिता की इकलौती संतान हूं। मां शिक्षा के क्षेत्र से थीं, जबकि पिता पत्रकार थे। दसवीं कक्षा के बाद जब बिना माता-पिता की छत्रछाया के दुनिया का अनुभव हुआ तो पता चला कि दुनिया वैसी नहीं है, जैसी मेरे घर में है। मेरे दोस्तों के घर का माहौल अलग था। मैं देखती थी कि महिलाएं नौ से पांच की नौकरी करने के बाद सब्जी खरीदती थीं, फिर घर आकर खाना बनाती थीं।

वहां से मैंने दुनिया को ऑब्जर्व करना शुरू किया। उसके अलावा जब हम ट्यूशन जाते थे, तो लड़के पीछा करते थे। उस समय अगर घर में पता चल जाता था तो माहौल ऐसा था कि आपके ट्यूशन बंद कर देंगे। आपको ही सजा भुगतनी होगी। यह सब पितृसत्तामक समाज का परिणाम है। मुझे लगता है कि ऐसी कहानियां बतानी चाहिए, लेकिन मेरा इन कहानियों को कहने का तरीका थोड़ा ह्यूमरस है। दर्शकों को मैसेज जरूर मिलेगा, लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर नहीं। यहां हंसी-मजाक में कुछ न कुछ समझने को जरूर मिलेगा।  

भारतीय सिनेमा में महिलाओं की कहानियों को पिछली शताब्दी के सातवें और आठवें दशक में बेहतर कहा गया या आज कहा जा रहा है?

मुझे लगता है कि हर चीज का एक दौर आता है। पिछली शताब्दी के सातवें और आठवें दशक में फिल्में आई थीं, लेकिन उन्हें आर्ट सिनेमा करार दे दिया गया। उसके बाद एंग्री यंग मैन का समय आया। फिर एक समय ऐसा था कि एक प्रकार की फार्मूला फिल्में ही चलती रहती थीं, लेकिन ओटीटी प्लेटफार्म आने के बाद बतौर दर्शक हमें अलग-अलग तरह का कंटेंट मिलने लग गया है। दक्षिण भारतीय फिल्में बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं।

ओटीटी प्लेटफार्म पर प्रयोगात्मक कहानियां ज्यादा हैं तो सिनेमाघर की पसंद भी बदलने लगी है। सिनेमा अलग-अलग तरह की फिल्में ला रहा है। अच्छी बात तब होगी जब इन सब जॉनर में महिलाओं को बराबर की भूमिका दी जाएगी। फिर हम उस मुकाम पर पहुंचें, जहां हमें यह न कहना पड़े कि यह महिला प्रधान फिल्म है। मैं उस दिन की कामना कर रही हूं जब हम महिलाओं से संबंधित इतनी सारी फिल्में बना लें कि हम सिर्फ यह बोले कि हम फिल्म देखने जा रहे हैं। हमारे सिनेमा में पुरुषप्रधान फिल्म जैसा कोई शब्द नहीं होता। मैं चाहती हूं कि यह महिला प्रधान शब्द भी लोग भूल जाएं।

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