NSD Director Exclusive Interview: फिल्मों में जाने का आसान माध्यम है थिएटर, एक्टिंग में करियर बनाना चैलेंज
थिएटर मनोरंजन का बेहतरीन जरिया माना जाता है। एक आर्टिस्ट को एक्टिंग के साथ-साथ म्यूजिक डायरेक्शन सहित कई चीजों की बारीक नॉलेज मिलती है। एनएसडी के डायरेक्टर रमेश गौढ़ ने थिएटर से जुड़ी तमाम चीजों पर जागरण डॉट कॉम से विशेष बातचीत की।
करिश्मा लालवानी, नई दिल्ली। भारत की 142 करोड़ की जनसंख्या में सबसे ज्यादा युवाओं का बोलबाला है। दुनिया भर में भारतीय संस्कृति और अपने दम पर धूम मचाने वाली फिल्म इंडस्ट्री में आज के नए युवा अपना टैलेंट दिखाते हुए नजर आते हैं। आज हम इसके पीछे की जा रही मेहनत और उसके संघर्ष की चर्चा करेंगे।
इस पर नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के डायरेक्टर रमेश गौड़ ने दैनिक जागरण डॉट कॉम से विशेष बातचीत की। उन्होंने बताया कि सिर्फ पूरे देश में नहीं, बल्कि दुनियाभर में भारतीय फिल्म इंडस्ट्री और भारतीय ड्रामा काफी ज्यादा पसंद किया जा रहा है। इसके पीछे हमारी पूरे साल चलने वाली मेहनत होती है।
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में किस तरह हुई शुरुआत?
एडिशनल डायरेक्टर के तौर पर एक साल से काम कर रहा हूं। अभी तक की जर्नी सफलता भरी रही है। यहां हर दिशा में बेहतर करने का प्रयास किया है। चाहे भारत रंग महोत्सव हो, वर्कशॉप हो, रीजनल सेंटर्स हों या समर एजुकेशन प्रोग्राम, एनएसडी से जुड़ी हर एक्टिविटी को अच्छे से इस्टैबिलश किया गया है।
सबसे बड़ा बदलाव एनएसडी के सिलेबस में किया गया, जिसमें 20 वर्षों से बदलाव नहीं हुआ था। इसके साथ ही बहुत सारे ऐसे एरिया हैं, जहां इम्प्रूवमेंट लाने की कोशिश की गई। इसमें कई सारे स्ट्रीट प्ले शामिल हैं, जिनके जरिये हमने कुछ संदेश देने का प्रयास किया। यह बड़ी उपलब्धि है क्योंकि एनएसडी ने कभी भी कैंपस से बाहर निकलकर नाटक नहीं किए। यह पहली बार था जब सेंट्रल विस्ता की मदद से एनएसडी से कई परफॉर्मेंस आयोजित की गईं। कहीं न कहीं यह सबसे बड़ा बदलाव है।
थिएटर जैसी क्रिएटिव फील्ड से जुड़ने का ख्याल कैसे आया?
थिएटर में मेरा किस्मत से आना तय हुआ। इस फील्ड से जुड़ी मेरे पास कोई क्वालिफिकेशन नहीं है। हालांकि, ऐसी क्रिएटिव फील्ड में मेरा शुरू से कुछ लगाव जरूर रहा है। मैं 20 सालों से इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में कल्चर से जुड़ा हुआ हूं। मिनिष्ट्री ऑफ कल्चर ने मुझे एनएसडी में एडिशनल डायरेक्टर का चार्ज दिया।
अपनी पोस्ट को मैंने कभी भी इस तरह नहीं देखा कि मुझे एडिशनल डायरेक्टर की तरह बस बने रहना है। इसे मैंने रिस्पॉनसिबिलिटी के तौर पर देखा। जितनी इस इंस्टीट्यूट की जरूरत रही, जितना रिसोर्सेज क्रिएट करने की रिक्वारमेंट रही, मैंने उतना समय दिया है। मेरा चार्ज एडिशनल हो सकता है, लेकिन जो काम एक रेगुलर डायरेक्टर कर सकता था, उसी तरह मैंने काम किया है।
142 करोड़ की आबादी वाले देश में सिर्फ एक एनएसडी?
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में तीन साल का डिप्लोमा कोर्स होता है, जिसमें से सिर्फ 26 स्टूडेंट्स को एडमिशन दिया जाता है। इस लिहाज से तीन साल में 78 स्टूडेंट्स का चयन होता है। इसके अलावा हमारे चार सेंटर हैं, जहां 20-20 स्टूडेंट्स होते हैं। इन रेगुलर एक्टिविटीज के अलावा पूरे इंडिया में थिएटर वर्कशॉप कराए जाते हैं, जिसके जरिये हम बहुत बड़ी स्ट्रेंथ को कवर करते हैं। यह 40 दिन की वर्कशॉप होती है। पूरे सालभर में कम से कम 30-40 वर्कशॉप आयोजित की जाती है, जिसमें 50 पार्टिसिपेंट्स होते हैं। इसके अलावा भारत रंग महोत्सव होता है, जिसमें बड़ी संख्या में लोग थिएटर से जुड़ते हैं।
एनएसडी सिर्फ डिप्लोमा करने का एक जरिया नहीं है, लेकिन यह सच बात है कि इतनी बड़ी पॉपुलेशन के लिए सिर्फ एक एनएसडी काफी नहीं है। जिस तरह से आईआईटी, आईआईएम जैसे इंस्टीट्यूट पूरे देश में हैं, उस तरह से कम से कम छह या सात एनएसडी के सेंटर भी होने चाहिए, जहां मॉडल सेम हो। इसका एक फायदा यह भी होगा कि अलग-अलग जगहों की लोक परंपराओं के बारे में भी लोगों का जानने का अधिक मौका मिलेगा।
देशभर के हर राज्य में एनएसडी को पहुंचाने का क्या प्लान है?
यूनिवर्सिटी का सबसे बड़ा इश्यू होता है बजट। वह एक डिपार्टमेंट को जो बजट देते हैं, उसमें वह मॉडल जो बाकी डिपार्टमेंट के लिए है, वही थिएटर डिपार्टमेंट के लिए भी है। अगर एनएसडी के एक स्टूडेंट प्रोडक्शन का बजट 20 लाख है, और बाकी कुछ जगहों पर पूरे साल भर का बजट 20 लाख का है, तो सबसे बड़ी समस्या फंड्स की आएगी। यूनिवर्सिटी में एनएसडी लेवल का एजुकेशन रहे, उस तरह फंड एलोकेशन होना चाहिए और ट्रेनिंग प्लेसेज होने चाहिए।
पहले की तुलना में अब कितना बदलाव आया?
हमारे देश में थिएटर का लेवल पहले से काफी बेहतर हुआ है। अब के जो स्टूडेंट्स आते हैं, वह पहले से ही सीख कर आते हैं। उन्होंने कहीं न कहीं से थिएटर की ट्रेनिंग या एक्टिंग का कोई शॉर्ट कोर्स किया होता है। एनएसडी में 26 बच्चों का एडमिशन होता है, जिसमें प्राथमिकता उनको दी जाती है जिनको थिएटर का काम आता हो। यानी कि जो बेस्ट होगा उसे सिलेक्ट किया जाएगा। इस बार जो बैच पास आउट होकर गया है, उसमें 18 लड़कियां और 8 लड़के थे।
फिल्म, थिएटर या वेब सीरीज, किसमें दिखता है स्टूडेंट्स का ज्यादा इंटरेस्ट?
देखा जाए तो जहां लुक्रेटिव इंसेंटिव ज्यादा होता है, वहां लोगों की दिलचस्पी भी ज्यादा होती है, और सबसे ज्यादा लुक्रेटिव इंसेंटिव हिंदी फिल्में, फिर रीजनल फिल्में, इसके बाद ओटीटी और टीवी चैनल में मिलता है। एनएसडी की अपनी एक रेप्युटेशन है, जिसमें से ज्यादा से ज्यादा लोगों को काम मिल जाता है। लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं, जो थिएटर को लेकर पैशनेट होते हैं और लंबे वक्त तक इसी से जुड़े होते हैं। हमारी पॉलिसी भी यही है कि ज्यादा से ज्यादा लोग थिएटर से जुडें।
एक कलाकार के लिए थिएटर कितना जरूरी है?
थिएटर परफॉर्मिंग आर्ट्स का एक कंप्लीट फॉर्म है। फिल्म इंडस्ट्री में कितने ही बड़े नाम हैं, चाहे वह नसीरुद्दीन शाह हों, पंकज त्रिपाठी हों या यशपाल शर्मा हों। इन सबको स्टार के तौर पर नहीं, अच्छे एक्टर के तौर पर पहचान मिली है। यह सभी थिएटर के कलाकार रहे हैं। एनएसडी में भी जो ट्रेनिंग दी जाती है, वह फिल्मों के लिए नहीं होती, बल्कि पूरे पैकेज को ध्यान में रखकर दी जाती है। चाहे वह म्यूजिक के लिए हो, आर्ट्स के लिए हो, डायरेक्टन हो या फिर डिजाइन। इसका फायदा यह होता है कि ड्रामा आर्टिस्ट को इस क्रिएटिव फील्ड से जुड़ी हर चीज की बारीक नॉलेज हो जाती है।
लड़कियों के लिए थिएटर में करियर कितना स्टेबल?
लड़कियों के लिए इस फील्ड में अनसर्टेन करियर जैसी बात नहीं है, लेकिन पेरेंट्स का सपोर्ट होना जरूरी है। कई बार ऐसा होता है कि थिएटर करने के बाद भी आर्टिस्ट को काम नहीं मिलता, या काम कम मिलता है। मतलब एक्टिंग में करियर बनाना बड़ा चैलेंज हो सकता है।