जीवन दर्शन: प्रभु श्रीराम के गुण समूह संसार को सब प्रकार से मंगल देने वाले हैं
जीवन दर्शन ठोस शिक्षा की पद्धति भी यही है कि जो कहना हो जो सिखाना हो जो करना हो उसे वाणी से कम और अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने वाले आत्मचरित्र द्वारा अधिक व्यक्त किया जाए। वैसे तो सभी अवतारों के अवतरण का प्रयोजन यही रहा है पर प्रभु श्रीराम ने उसे अपने दिव्य चरित्रों द्वारा और भी अधिक स्पष्ट एवं प्रखर रूप से बहुमुखी धाराओं सहित प्रस्तुत किया है।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य। भारतीय संस्कृति के आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में मूर्तिमान करने वाले अवतारों की शृंखला में प्रभु श्रीराम का विशिष्ट स्थान है। उन्हें भारतीय धर्म के आकाश में चमकने वाला सूर्य माना जाता है। व्यक्ति और समाज के उत्कृष्ट स्वरूप को अक्षुण्ण रखने और विकसित करने के लिए क्या करना चाहिए, इसे प्रभु श्रीराम ने अपने पुण्य चरित्रों द्वारा जनसाधारण के सामने प्रस्तुत किया है।
ठोस शिक्षा की पद्धति भी यही है कि जो कहना हो, जो सिखाना हो, जो करना हो, उसे वाणी से कम और अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने वाले आत्मचरित्र द्वारा अधिक व्यक्त किया जाए। वैसे तो सभी अवतारों के अवतरण का प्रयोजन यही रहा है, पर प्रभु श्रीराम ने उसे अपने दिव्य चरित्रों द्वारा और भी अधिक स्पष्ट एवं प्रखर रूप से बहुमुखी धाराओं सहित प्रस्तुत किया है।
कथा चरित्रों के माध्यम से लोक शिक्षण अधिक सरल पड़ता है। इस रीति से यह सर्वसाधारण के लिए अधिक बुद्धिगम्य हो जाता है और हृदयगंम भी। तत्वदर्शी मनीषियों ने इस तथ्य को समझा था और जनमानस के परिष्कार के लिए आवश्यक लोक शिक्षण की व्यवस्था बनाने के उद्देश्य से कथा शैली को अपनाया था। वही सुबोध रही और लोकप्रिय बनी। अस्तु एक प्रकार से प्रक्रिया के माध्यम से धर्म चर्चा करने की रीति अपनाई गई।
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प्रभु श्रीराम के चरित्र का पाठन तथा श्रवण पुण्य माना जाता है। रामायण के रूप में रामचरित्र जन-जन में प्रख्यात है। इस ग्रंथ के अतिरिक्त भी अन्य पुराणों में श्रीराम की कथाएं आती हैं। उनके घटनाक्रमों में भिन्नता और विविधता भी है। यहां तो इतना जानना पर्याप्त है कि प्रभु श्रीराम चरित्र की दृष्टि से न केवल लोकप्रिय हैं, वरन जनमानस के मनों पर गहरी छाप छोड़ने वाले हैं। वे व्यावहारिक शिक्षा देते हैं। श्रीराम अपने सद्कर्मों से जनमानस को प्रेरणा देते हैं। रामायण में रामभक्ति अंधी भक्ति या भावोन्माद नहीं है। उसमें विवेक का पूरा-पूरा समन्वय है। गोस्वामी जी ने ज्ञान को भक्ति से कम महत्व नहीं दिया है।
वे विवेक और भक्ति को अभिन्न मानते हैं। हम जो भी करें, विवेकपूर्ण करें, यहां तक कि ईश्वर विश्वास, ईश्वर प्रेम और भक्ति आचरण के संबंध में भी यह विचार करते हैं कि वह व्यक्ति और समाज के लिए उपयोगी है या नहीं। निस्संदेह श्रुति सम्मत आस्तिकता इन सभी कसौटियों पर हर दृष्टि से खरी उतरती है। ईश्वर भक्ति के लिए किए गए पूजा पाठ, चिंतन मनन, स्वाध्याय सत्संग, जप ध्यान, आचार कर्मकांड आदि एक प्रकार से मानसिक व्यायाम है, जिन्हें अपनाकर मनुष्य मनस्वी, आत्मबल संपन्न, ब्रह्मवर्चस युक्त बनता है।
अखाड़े में किया गया व्यायाम शरीर को पुष्ट बनाता है और पूजा कक्ष में किया गया उपासनात्मक साधना सत्प्रवृत्ति के अभिवर्द्धन में असाधारण सहायता करता है। उसका मनोवैज्ञानिक महत्व है। अंतःचेतना के परिष्कार में उससे बहुत बल मिलता है। प्रसुप्त गुप्त शक्तियों को जागृत होने का अवसर मिलता है। ईश्वर सर्वव्यापक, न्यायकारी, कर्मफल दायिनी और उत्कृष्टता से ओतप्रोत चैतन्य सत्ता है।
सांसारिक दंड से बच निकलने के अनेक चतुरतापूर्ण मार्ग हैं, पर दुष्कर्मों का फल ईश्वर द्वारा आज नहीं तो कल दिया जाने वाला है, इस मान्यता के कारण व्यक्ति सत्पथ अपनाता है और सद्भाव सम्पन्न बनता है। इस दृष्टि से आस्तिकता उस नैतिकता का पक्ष पुष्ट करती है जो व्यक्ति एवं समाज की प्रगति एवं समृद्धि में हर दृष्टि से सहायक होती है। रामकथा के माध्यम से जिस राम भक्ति का प्रतिपादन किया गया है, वह वस्तुतः आत्म चिंतन, आत्म सुधार, आत्म निर्माण और आत्म परिष्कार की प्रेरणा से ही ओतप्रोत है।
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इसी श्रुतिसम्मत और सिद्ध पुरुषों द्वारा कार्यरूप में लाई गई आध्यात्मिकता के संदेश को अपनाने की प्रकाश प्रेरणा रामायण के प्रत्येक अक्षर में समाया है। राम का अवतार और उनका तथा उनके अनुयायियों का समस्त चिंतन एवं चरित्र इसी धुरी पर घूमता है। सच्ची आध्यात्मिकता को जनसाधारण के गले उतारना और सज्जनोचित मानवतावादी रीति नीति व्यवहार में समाविष्ट करना यही रामकथा का उद्देश्य है। तुलसीदास जी कहते हैं- जग मंगल गुन ग्राम राम के। दानि मुकुत धन धरम धाम के।। अर्थात प्रभु श्रीराम के गुण समूह संसार को सब प्रकार से मंगल देने वाले हैं। उनसे मुक्ति, धन, धर्म और सद्गति प्राप्त हो सकती है।