सैयद वंश व मुगलकालीन खंडहरों के ध्वंसावशेष

By Edited By: Publish:Mon, 05 Mar 2012 07:24 PM (IST) Updated:Mon, 05 Mar 2012 07:24 PM (IST)
सैयद वंश व मुगलकालीन खंडहरों के ध्वंसावशेष

बीबीपुर कदीम गांव का ऐतिहासिक महत्व इसलिए भी काफी बढ़ जाता है कि यहां सैयद वंश से लेकर मुगलकालीन खंडहरों के ध्वंसावशेष देखने को मिलते हैं। मदारपुर युद्ध हारने के बाद बाह्माण भूमिहारों के प्रथम आगमन को कच्ची कोट व झंझावा पोखरा प्रमाणित कर रहे हैं। यहां मुगल शहजादे अकबर के आगमन की चर्चा जन-जन से सुनी जाती है। वहीं पूर्वाचल के क्रांतिकारियों ने यहां जन्म लेकर भारत माता की रक्षा के लिए आजीवन संघर्ष किया।

भारत में मुगलकाल के पूर्व 1414 से 1451 ई. तक सैयद वंश का शासन था, जिसका संचालन स्वतंत्र रुप से जौनपुर से होता था। जौनपुर सूबे में आजमगढ़, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर जनपद आते थे। बीबीपुर गांव में सैयद वंश के शासकों ने एक पक्की कोट बनवाया था, जिसका ध्वंसावशेष आज भी सिलनी नदी के किनारे पुराने पुल के पास मौजूद है। 1451 ई. में सैयद वंश का शासन समाप्त होने पर लोधी वंश का शासन शुरू हो गया। 1526 ई. में मुगल बादशाह की सेनाओं ने देश पर आक्रमण कर दिया। कानपुर- फर्रूखाबाद के बीच बिल्हौर रेलवे स्टेशन के पास मदारपुर गांव में क्षेत्र के भृगु वंशीय ब्राह्माण भूमिहारों ने संगठित होकर मुगल सेना के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। किंतु बाबर की ताकतवर सेनाओं के आगे ये लोग टिक नहीं पाये और भारी नरसंहार हुआ। अफरातफरी के बीच कुछ लोगों ने क्षेत्र के बढ़नी गांव में डेरा डाला तो कुछ बचे लोगों ने बिहार की ओर कूच कर दिया। मदारपुर से बीबीपुर आये भीम शाह के सहोदर भाई जीवन शाह बड़े बहादुर व तलवारबाज थे। उनकी वीरता से प्रसन्न होकर लोधी शासक ने उन्हें मनमानी भू- सम्पत्ति अर्जित करने की छूट दे दी। फलस्वरुप उन्होंने टौंस (तमसा) नदी से लेकर पश्चिम सिलनी नदी के तट पर ओरा से गंगटिया मुजफ्फरपुर तक अपना भूआधिपत्य जमा लिया। इसके बाद सैयद कोट पर कब्जे को लेकर दोनों पक्षों में संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में कोट की सुरक्षा में लगे सात सैयद नौजवान मारे गये, जिनके शव अलग-अलग स्थानों बीबीपुर, गजयपुर, ओरा, मेढ़ी, मुकुंदपुर, बिशौली तथा भोर्रा मकबूलपुर में पाये गये। बाद में सभी शवों को बीबीपुर गांव के सिवान में इकट्ठे दफनाया गया जो स्थान आज भी 'सतखन्नी' के नाम से प्रसिद्ध है।

इतना ही नहीं उक्त सातों गांवों में अलग-अलग मजारों पर भी सैयद की पूजा-अर्चना होती है। बीबीपुर स्थित कोट के खंडहर के उपर सैयद के अनुयायियों ने एक छोटी सी पक्की मजार का निर्माण कराया है जहां हर वीरवार (गुरुवार) को पूजा-अर्चना के साथ मेला भी लगता है। सैयद कोट पर कब्जे के बाद भीमशाह के वंशज बदली शाह एवं विनोद शाह ने एक कच्ची कोट एवं बड़े पोखरे का निर्माण कराया जो आज भी झंझवा पोखरा के नाम से गांव में मौजूद है तो कच्ची कोट के टीले नाईयों की बस्ती के पास देखने को मिलते हैं।

1565-66 ई. के मध्य मुगल शाहजादे अकबर का आगमन जौनपुर सूबे के परगना निजामाबाद (अब आजमगढ़) में हुआ, जिसे उस समय हनुमंतगढ़ के नाम से जाना जाता था। जौनपुर सूबे के सूबेदार कुली अली खां की बगावत को कुचल कर वापस जौनपुर जाते समय अकबर ने ससैन्य यहां विश्राम किया था। इसी बीच अकबर का जन्मदिन भी आ गया और निजामाबाद से मंदुरी तक सेना का पड़ाव पड़ गया। सिलनी नदी की गोद में बीहड़ों के बीच बसे सुरक्षित गांव की कोट में बेगमों को ठहराया गया। इसलिए गांव का नाम बीबीपुर कदीम पड़ा। सेना के तंबुओं एवं घोड़ों के लिए जहां खूंटे गाड़े गये उस स्थान की जगह खुटौली गांव बसा है। हाथियों के बांधने वाले स्थान का नाम गजयपुर पड़ा। अकबर बादशाह के जन्मदिन पर जहां टीका लगाया गया उसका नाम टीकापुर। पड़ोस के गांव वालों ने टीकाकरण का विरोध किया तो उसका नाम मेढ़ी पड़ा। अकबर के गुरु व उत्तराधिकारी बैरम खां के नाम पर बैरमपुर गांव का नामकरण हुआ।

जानकारों के अनुसार अकबर के आगमन का प्रमाण आजमगढ़ गजेटियर अकबरनामा एवं आईने अकबरी से मिलते हैं। बीबीपुर गांव की ऐतिहासिकता को इसलिए भी काफी बल मिलता है कि गुलामी की जंजीरों में जकड़ी भारत माता की आजादी के दीवाने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पूर्वाचल के गांधी स्व. बाबू विश्राम राय, स्व. शिवराम राय एवं स्व. बाबू रघुनाथ प्रसाद राय जैसे क्रांतिकारी सपूतों ने यहां जन्म लेकर देख की आजादी के लिए जीवन पर्यत संघर्ष किया और जेलों के अंदर यातनाएं झेलीं।

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