Bhopal Disaster: जिंदा तो हैं, पर घिसट रही जिंदगी; भोपाल गैस कांड पर बोले पीड़ित, भुलाए नहीं भूलती वह काली रात
Bhopal Disaster पीड़ितों का कहना है कि रक्तचाप घटने का नाम नहीं लेता। कभी घबराहट होती है तो कभी आंखों से पानी आने लगता है। दर्द तब और बढ़ जाता है जब इलाज के लिए भी लंबी लाइन में इंतजार करना पड़ता है। हालांकि दर्द तब भी खत्म नहीं होता क्योंकि डाक्टर भी एक गोली देकर घर भेज देते हैं।
जेएनएन, भोपाल। तीन दिसंबर, 1984 की वह काली रात आज भी भुलाए नहीं भूलती। उस रात ने सब कुछ छीन लिया। यहां तक कि मेरे शरीर को ही मुझ पर बोझ बना दिया। ये दर्द है, उन लोगों का जिन्होंने 39 साल पहले अपना सब कुछ खो दिया। अब इनके पास सिवाए दर्द के कुछ भी नहीं है। जो शरीर है, वह भी किसी काम का नहीं रहा। कमरे में टहलने पर भी दम फूलने लगता है। रक्तचाप घटने का नाम नहीं लेता।
कभी घबराहट होती है तो कभी आंखों से पानी आने लगता है। दर्द तब और बढ़ जाता है, जब इलाज के लिए भी लंबी लाइन में इंतजार करना पड़ता है। हालांकि, दर्द तब भी खत्म नहीं होता, क्योंकि डाक्टर भी एक गोली देकर घर भेज देते हैं। आज यूनियन कार्बाइड कारखाने से चंद कदम की दूरी पर बसे जेपी नगर के सैकड़ों लोग कुछ ऐसी ही जिंदगी जीने को मजबूर हैं। ये सभी जिंदा तो हैं, लेकिन इनकी जिंदगी घिसट रही है।
70 साल की नफीसा बी घर में ही छोटी सी दुकान संचालित करती हैं, जिसकी कमाई से घर खर्च चलता है। जहरीली गैस ने पति मुन्ने खां, बेटे शहजाद, एजाज और बेटी नसीम आरा को लील लिया था। अब चार कदम चलने में ही उनका दम फूलने लगता है। गैस राहत के नाम पर एक हजार रुपये और वृद्धा पेंशन के 200 रुपये मिलते हैं। इससे घर नहीं चल पता है, इसलिए दुकान खोलकर किसी तरह गुजारा कर रही हैं। इसी तरह की व्यथा-कथा अधिकांश रहवासियों की है।
लाशों के ढेर में जिंदा थी भांजी
66 वर्षीय अब्दुल हफीज उर्फ मामू बात करते-करते खांसने लगते हैं। पहले मकानों की पुताई का काम करते थे। आज हाथ-पैर हिलाना भी मुश्किल हो गया है। उस रात को याद कर बोले कि तब गैस के संपर्क में आकर 14 वर्षीय भांजी नसीम की हालत बिगड़ गई थी। हमीदिया अस्पताल में डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया था। मैं शवों के ढेर से उसे उठाकर लाया था। वह लाशों के ढेर में जिंदा थी।
अम्मी-अम्मी कहते हुए गोद में बेटे ने दम तोड़ा था
घर में स्टेशनरी की दुकान चलाकर खर्च चला रहीं 60 वर्षीय फरीदाबी आज कई गंभीर बीमारियों से जूझ रही हैं। वह बताती हैं कि तीन दिसंबर को सबसे पहले उनके इकलौते साढ़े आठ साल के बेटे शाहिद की हालत बिगड़ी थी। अम्मी-अम्मी कहते हुए उसने गोद में ही दम तोड़ दिया था।
आसपास के लोग तोड़ चुके थे दम
यहां रहने वाले पूर्व पार्षद नाथूराम सोनी बताते हैं कि उस दिन वह पत्नी और बच्चों को हाथ ठेले पर बिठाकर पीजीबीटी कालेज के मैदान तक ले गए थे। उसके बाद वह मुंह पर गीला कपड़ा लपेटकर घर वापस लौटे तो देखा कि आसपास के घरों में रहने वाले लोग गैस की चपेट में आकर दम तोड़ चुके थे। उन्होंने कहा कि गैस पीड़तों के हक में लड़ने वालों ने यूनियन कार्बाइड के खिलाफ केस दायर किया था। कंपनी अपनी हैसियत के हिसाब से मुआवजा दे चुकी है। संगठनों को भारत सरकार के खिलाफ केस करना था तो सही न्याय और मुआवजा मिलता। इलाज के नाम पर भोपाल मेमोरियल अस्पताल तो खोल दिया गया है, लेकिन वहां इलाज के लिए सिर्फ तारीख मिलती है। मजबूरी में लोगों को अन्य अस्पतालों में महंगा इलाज करवाना पड़ रहा है।
खास बातें
- गैस त्रासदी मामले में जिला न्यायालय में लंबे समय से चल रहे दो प्रकरण
- अब तक चल रही है क्षेत्राधिकार को लेकर बहस
- पूर्व में एक प्रकरण में सात जून 2010 को हो चुकी है
- आरोपितों को दो-दो वर्ष की सजा व जुर्मानासात न्यायाधीश बदल चुके हैं पर अब तक पूरी नहीं हो पाई सुनवाई
- तीन मुख्य आरोपितों की हो चुकी है मृत्यु