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Maharashtra: '100 रुपये बहुत छोटी रिश्वत राशि', रिश्वतखोरी के आरोपित डॉक्टर को बांबे हाई कोर्ट से राहत

जस्टिस जितेंद्र जैन की एकल पीठ ने मंगलवार को कहा कि यह एक उपयुक्त मामला है जिसे एक मामूली मामला माना जाएगा। कोर्ट ने चिकित्सा अधिकारी को बरी करने के ट्रायल कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा। पिगले ने भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो से शिकायत की जिसने जाल बिछाया और डॉ. शिंदे को रंगे हाथों पकड़ लिया। उन पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के प्रविधानों के तहत मुकदमा चलाया गया।

By AgencyEdited By: Amit SinghUpdated: Thu, 05 Oct 2023 10:18 PM (IST)
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कोर्ट ने चिकित्सा अधिकारी को बरी करने के ट्रायल कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा।
पीटीआई, मुंबई। भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के एक मामले में एक सरकारी चिकित्सा अधिकारी को बरी करते हुए बांबे हाई कोर्ट ने कहा है कि वर्ष 2007 में और अब तो 100 रुपये की रिश्वत राशि बहुत छोटी लगती है। जस्टिस जितेंद्र जैन की एकल पीठ ने मंगलवार को कहा कि यह एक उपयुक्त मामला है, जिसे एक मामूली मामला माना जाएगा। कोर्ट ने चिकित्सा अधिकारी को बरी करने के ट्रायल कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा।

2007 में एलटी पिगले नामक व्यक्ति ने महाराष्ट्र के पुणे जिले के पौड में एक ग्रामीण अस्पताल के चिकित्सा अधिकारी डा अनिल शिंदे पर उनके भतीजे द्वारा हमले के बाद उनकी चोटों को प्रमाणित करने के लिए 100 रुपये मांगने का आरोप लगाया था। पिगले ने भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो से शिकायत की, जिसने जाल बिछाया और डॉ. शिंदे को रंगे हाथों पकड़ लिया। उन पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के प्रविधानों के तहत मुकदमा चलाया गया। जनवरी 2012 में एक विशेष अदालत ने डॉ. शिंदे को सभी आरोपों से बरी कर दिया, जिसे राज्य ने हाई कोर्ट में चुनौती दी थी।

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अनिश्चितकाल तक कैद में नहीं रखा जा सकता

वहीं, एक अन्य मामले में बांबे हाई कोर्ट ने दोहरे हत्याकांड के एक आरोपित को जमानत देते हुए कहा है कि किसी व्यक्ति को मुकदमा लंबित रहने के कारण अनिश्चितकाल तक कैद में नहीं रखा जा सकता क्योंकि यह संविधान में निहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। पुणे जिले की लोनावाला पुलिस ने आकाश सतीश चंडालिया को दोहरे हत्याकांड और साजिश रचने के आरोप में सितंबर, 2015 में गिरफ्तार किया था।

मौलिक अधिकारों का उल्लंघन

हाई कोर्ट ने कहा कि मुकदमा लंबित रहने के कारण किसी व्यक्ति को अनिश्चितकाल तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता, यह संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है व किसी आरोपित को रिहा करने में विवेक का इस्तेमाल करने के लिए न्यायसंगत आधार माना जाता है।

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