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कठपुतलियों की दुनिया

By Edited By: Updated: Thu, 16 Feb 2012 08:15 PM (IST)
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मंच पर सज-धज कर टशन में झूमती-इतराती सजीली कठपुतलियां अपनी प्यारी तोतली बातों से सबको लुभाती हैं। टेक्नोलॉजी ने इनकी ताकत व चमक को और बढ़ा दिया है, जिससे ये हजारों साल पुरानी होने के बावजूद आज भी हमारे दिलों पर राज कर रही हैं..

लाल-पीली-हरी रोशनी से नहाए मंच पर सिर पर हाथ रखे बैठा है हताश-निराश संजय। संगीतकार बनने की जिद में उसने घर छोड़ दिया। एक दिन उसकी मेहनत रंग लाई। उसका सपना पूरा हुआ। वह राजा आनंद के दरबार का जाना-माना नाम बन गया। वह राजकुमारी नंदिता को पसंद करता है, जिससे उसकी जिंदगी ख्वाब सी खूबसूरत हो जाती है। तभी एक दिन अचानक राजा का एक फरमान आता है और जैसे सब कुछ खत्म..। जिंदगी में लौट आता है संघर्ष का वही पुराना दौर। फरमान के अनुसार, दरबार में जहां कई संगीतकार थे, वहां केवल एक की जरूरत है। संजय मायूस है, उसे फिर से अपनी काबिलियत साबित करनी है। अब शुरू होती है असली जंग। केवल संजय के लिए ही नहीं, वहां बैठे उन तमाम दर्शकों के लिए भी, जिन्हें संजय ने महज 50 मिनट में अपना बना लिया है। हर कोई बस एक ही बात सोच रहा है कि क्या होगा संजय का? क्या वह राजा को इंप्रेस कर सकेगा और बना सकेगा नंदिता को अपनी जीवनसंगिनी?

यह दृश्य है कठपुतली शो 'संजय ऐंड हिज मास्टर' का। बौद्ध साहित्य से ली गई यह कहानी जब कठपुतली के माध्यम से दिलचस्प तरीके से मंच पर दिखाई गई, तो लोग भूल गए कि वे हजारों साल पुरानी कला से रू-ब-रू हो रहे हैं।

जितने राज्य, उतने नाम

आमतौर पर कठपुतली के नाम से ही यह कला प्रसिद्ध है, पर वास्तव में राजस्थान की कठपुतली कला को ही कठपुतली कहा जाता है। कागज और काठ [लकड़ी] से बने इन पुतलों को भारत के अलग-अलग राज्यों में विभिन्न नामों से जाना जाता है। उड़ीसा में 'साखी कुंदेई', असम में 'पुतला नाच', महाराष्ट्र में 'मालासूत्री बहुली' तो कर्नाटक में 'गोम्बेयेत्र' धागे से नचाई जाने वाली कठपुतलियों के ही नाम हैं। इसी तरह, तमिलनाडु की 'बोम्मल˜म' काफी कौशल वाली कला है, जिसमें बड़ी-बड़ी कठपुतलियां धागों और डंडों की सहायता से नचाई जाती हैं। इसी तरह, जानवरों की खाल से बनी, खूबसूरती से रंगी गई और सजावटी तौर पर छाया-कठपुतलियां आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उड़ीसा और केरल में काफी लोकप्रिय हैं। उनमें कई जोड़ होते हैं, जिनकी सहायता से उन्हें नचाया जाता है। दस्ताने वाली कठपुतलियों को नचाने वाला दर्शकों के सामने बैठकर ही उन्हें नचाता है। इस किस्म की कठपुतली का डांस केरल का 'पावकथकली' है।

कैसी-कै सी कठपुतलियां

कठपुतली डांस मुख्य रूप से चार तरह के हैं। जैसे, दस्ताने की सहायता से नचाई जाने वाली कठपुतलियां, छड़ की मदद से नचाई जाने वाली, धागे से बांध कर नचाने वाली कठपुतलियां और छाया कठपुतलियां। दस्ताने पहनकर कठपुतली नचाने का पूरा दारोमदार कलाकार के हाथों पर होता है। उंगलियों पर बेहतरीन कमांड उनके परफॉर्मेस में जान डाल देता है। छड़ की मदद से कठपुतलियों को नचाना आसान नहीं। धागे वाली कठपुतलियों की कला काफी प्रचलित है हमारे यहां। जोड़ों पर जगह-जगह धागे बांधकर कठपुतलियों को नचाने वाले कलाकारों का पूरा परफॉर्मेस संतुलन पर टिका होता है।

टेक्नोलॉजी की चमक

कई हजार साल पुरानी इस कला को क्या आज रेडियो, टीवी, फिल्म और आधुनिक तकनीकी सुविधाओं वाले थियेटर ने पीछे छोड़ दिया है? इशारा पपेट थियेटर ट्रस्ट के ट्रस्टी और इस कला को देश-विदेश में लोकप्रिय करने वाले दादी पद्मजी इस बात को सही नहीं मानते। वे कहते हैं, 'कोई भी कला समाप्त नहीं होती। खास तौर पर इतनी समृद्ध कला तो कभी नहीं खत्म हो सकती, जिसमें हर प्रकार का संदेश पहुंचाने की जबरदस्त क्षमता है।' दादी यह कहना नहीं भूलते कि आज टेक्नोलॉजी ने इस कला को और ज्यादा समृद्ध किया है। अब यह कला सड़कों, गली-कूचों से निकलकर फ्लड लाइट्स की चकाचौंध में अपनी चमक बिखेर रही है। पहले जहां लैंप और लालटेन का इस्तेमाल होता था आज कठपुतली कला में बड़े-बड़े थियेटर परफॉर्मेस की तर्ज पर लाइट और प्रोजेक्टर का इस्तेमाल किया जाता है। संवाद अदायगी में मंच पर एडवांस साउंड तकनीक के इस्तेमाल से भी इस परंपरागत कला में नयापन आया है। स्विट्जरलैंड की कलाकार कातिया लारबेगा बताती हैं, 'इसके डिजाइन को लेकर भी काफी काम हो रहा है, ताकि बड़े और बच्चे सभी इन्हें पसंद करें। तभी कार्टून पात्रों की तरह कठपुतलियों वे पसंद कर रहे हैं।' सही है आज टेलीविजन शोज में भी कठपुतली को शामिल किया जा रहा है, जो लोकप्रिय भी हैं।

ये नहीं हैं बेजान

एशिया में कठपुतली कला तकरीबन साढ़े चार हजार साल पुरानी है। इस कला की दुनिया के जाने-माने नाम संजय रॉय के मुताबिक, यह कला जितनी परंपरागत है, उतनी ही प्रासंगिक भी। बेजान कागज और काठ की बनी कठपुतली कलाकार का हाथ व साथ मिलते ही जीवंत हो जाती है। सच तो यह है कि यह जिसके इशारे पर ये नाचती हैं, वे भी खुद बन जाते हैं कठपुतली। संजय रॉय इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं-'चूंकि कलाकार की पूरी ऊर्जा उन बेजान पुतलों में हस्तांतरित हो जाती है, इसलिए लोग उन्हें बेजान नहीं समझते।' सच है तमाम कलाओं को समाहित किए हुए कठपुतली कला को आवाज और अंदाज देने वाले पर्दे के पीछे के कलाकार खुद को इन बेजान पुतलों से अलग नहीं कर सकते। कलाकार की ऐसी ही अनवरत कोशिश पर टिकी होती है कठपुतली की कला।

चलो कठपुतली बनाएं

सबसे पहले बनाना होगा स्टेज, जिस पर कठपुतली शो का आयोजन होगा।

सामग्री : जूते का बॉक्स, पेंसिल, कलर, ग्लू।

विधि: एक कागज पर अपनी पसंद की ड्राइंग बनाओ और उसे बॉक्स के बेस पर चिपका दो। फिर बॉक्स को सीधा कर इस तरह रखो कि वह ड्राइंग नजर आए। स्टेज हो गया तैयार अब बारी है कठपुतली बनाने की।

धागे वाली कठपुतली के लिए

* प्लास्टिक के कुछ कप

* मजबूत धागा, ग्लू, कैंची, छेद करने के लिए सुई।

विधि: कप पर अपनी पसंद की कठपुतली का चेहरा बनाओ। यह अलग-अलग होना चाहिए, ताकि सारे पात्र अलग नजर आएं। ये जानवरों के भी चेहरे हो सकते हैं और इंसानों के भी। कप में छेद कर उसमें धागे लगाओ, फिर स्टेज के ऊपरी हिस्से में छेद करो। यहीं से कठपुतली को अपने मुताबिक नचाना है। फिर अपनी पसंद के हिसाब से साउंड और लाइट का इंतजाम करो और हो जाओ तैयार कठपुतली शो के लिए।

[सीमा झा]

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