'चचा! घर लौट जा.. तोहर वोट डला गेलई', कभी विरोध करने पर मतदाता की जान पर बन आती थी, अब जबरई करने वाले जाते हैं जेल
बम और बंदूकों की आवाज पर भारी पड़ता ‘लोकतंत्र का टीका’। बिहार में एक दौर वो भी था जब चुनाव के दौरान बम-बंदूकें गरजतीं। इसके बीच कोई हिम्मत करके वोट देने निकलता भी तो पता चलता कि उसके नाम पर वोट डाला जा चुका है। ग्रामीण और सुदूर इलाकों में दबंग बूथों का ठेका लेते। उस बूथ पर एक खास दल या नेता को ही वोट डाला जाता।
कुमार रजत, पटना। चचा, घर लौट जा... तोहर वोट डला गेलई हे। पिछली सदी के 80 और 90 के दशक में मतदान केंद्रों के बाहर यह तस्वीरें आम थीं। चुनाव के दौरान बम-बंदूकें गरजतीं। इसके बीच कोई हिम्मत करके वोट देने निकलता भी तो पता चलता कि उसके नाम पर वोट डाला जा चुका है। ग्रामीण और सुदूर इलाकों में दबंग बूथों का ठेका लेते। उस बूथ पर एक खास दल या नेता को ही वोट डाला जाता। इसका विरोध करना अपनी जान से हाथ धोना था। अब हाल के चुनावों की तस्वीर देखते हैं...।
गया, जमुई और औरंगाबाद के नक्सल प्रभावित इलाकों के बाहर सुबह सात बजे से ही मतदाताओं की लंबी कतारें लगी हैं। इसमें महिलाएं भी शामिल हैं। बम-बंदूकों की जगह लोकतंत्र के टीके ने ले ली है, जिसके साथ सेल्फी ली जा रही है।बिहार के चुनाव में यह बदलाव एक दिन की बात नहीं है। इसकी शुरुआत 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में चुनाव आयुक्त रहे टीएन शेषन ने की थी, जिसका व्यापक प्रभाव 2005 आते-आते केजे राव की मेहनत ने दिखाया। मतदान केंद्रों पर केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती ने भी अपराधियों और गुंडा तत्वों से निबटने में अहम भूमिका निभाई।
नक्सलियों को कुंद कर देने के बाद चुनावी हिंसा काफी हद तक नियंत्रित हुई। इस बार तो चुनाव से पहले ही 150 कंपनी से अधिक केंद्रीय बल जिलों में भेज दिए गए हैं, ताकि मतदाता निर्भीक रहें।
90 के दशक में सर्वाधिक हिंसा व पुनर्मतदान
साल 1998 और 1999 में हुए आम चुनाव में बिहार में सर्वाधिक हिंसा और गड़बड़ी के मामले सामने आए। पत्रकार श्रीकांत के अनुसार, 1952 से 1991 तक की चुनावी यात्रा में पुनर्मतदान वाले केंद्रों की संख्या में 45 गुना की बढ़ोतरी दर्ज की गई। इससे बूथ कब्जा करने वालों का संगठित चेहरा सामने आया।1952 से लेकर अब तक के सभी लोकसभा चुनावों की जानकारी के लिए यहां क्लिक करेंपहले आम चुनाव में बिहार में महज 26 मतदान केंद्रों पर दोबारा वोटिंग कराई गई थी, जो 1991 में 1175 हो गई। अगले तीन चुनावों में यह आंकड़ा चार गुना बढ़ गया। 1996 में 1933, जबकि 1998 में 4995 केंद्रों पर पुनर्मतदान कराया गया। उसके बाद इसमें गिरावट शुरू हुई।
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