अफगानिस्तान से वापसी कहीं हथियार बेचने की अमेरिकी साजिश तो नहीं! भारत की मुश्किलें भी बढ़ी
ट्रंप की तरह बाइडन भारत के शुभचिंतक नहीं हो सकते इस लिहाज से एक आशंका यह भी है कि तालिबान यदि अपने मददगार पाकिस्तान के जरिये इन हथियारों का उपयोग भारत के खिलाफ करता है तो भारत को अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका से हथियार खरीदने को मजबूर होना पड़ेगा।
प्रमोद भार्गव। ताकतवर अमेरिकी सैनिकों की अफगान से वापसी के फैसले से दुनिया हैरान है। अमेरिका की पूर्ण वापसी के बाद अफगान में घटनाक्रम किस तरह से करवटें लेगा, यह अभी कोई नहीं जानता। परंतु अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी के सांसद जिम बैंक्स के एक बयान के बाद इस पहेली पर पड़ी धूल कुछ छंटती दिख रही है। जिम बैंक्स ने सवाल उठाया कि क्या अमेरिका व मित्र राष्ट्रों की सेनाएं इतनी कमजोर हैं कि तालिबान के सामने घुटने टेक दें?
समझा जा रहा है कि अमेरिका के जो बाइडन के नेतृत्व वाली डेमोक्रेटिक सरकार का यह सब किया-धरा है। आशंका जताई जा रही है कि जिस चीन के साथ पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने आर-पार की लड़ाई लड़ने की ठानी थी, उसी के समक्ष बाइडन एकाएक क्यों झुक गए? हालांकि अमेरिकी सेना की वापसी का तालिबान से समझौता दोहा में ट्रंप के कार्यकाल में ही हुआ था। लेकिन ट्रंप आनन-फानन में हथियारों का जखीरा अफगान में ही छोड़कर सेना वापसी के पक्ष में नहीं थे।
जिम बैंक्स ने हाल ही में कहा है कि बाइडन सरकार की जल्दबाजी की वजह से तालिबान को अफगान में बड़ी ताकत मिल गई है। तालिबान के हाथ 85 अरब डालर के अमेरिकी सेना के अस्त्र-शस्त्र लग गए हैं। इनमें 75 हजार सैनिकों को ढोने वाले वाहनों समेत अनेक विमान, हेलीकाप्टर और गोला-बारूद शामिल हैं। यह ताकत इतनी बड़ी है कि तालिबान के पास दुनिया के 85 प्रतिशत देशों से कहीं ज्यादा लड़ाकू हेलीकाप्टर आ गए हैं। इस हवाई ताकत की मद में चूर होकर वे कुछ भी कर सकते हैं। चूंकि भारत से अफगान सटा हुआ है लिहाजा हमें भी इसका खतरा है।
तालिबान के हाथ वे लैपटाप और कंप्यूटर भी आ गए हैं, जिनमें अमेरिका की मदद करने वाले अफगानियों के नाम-पते दर्ज हैं। तालिबानी इन लोगों से चुन-चुन कर क्रूर बदला ले सकते हैं। इसकी कारण पांच लाख से भी ज्यादा अफगानी जान जोखिम में डालकर देश छोड़ने को तैयार हैं। तालिबानी इन हथियारों को पाकर इसलिए और मजबूत हो जाएंगे, क्योंकि जो 80 हजार अफगानी सैनिक तालिबान के सामने समर्पण कर चुके हैं, वे इन हथियारों व हेलीकाप्टरों को चलाने में अमेरिकी प्रशिक्षकों द्वारा दक्ष किए जा चुके हैं। धर्म व नस्लीय एकरूपता के चलते ये तालिबान के साथ खड़े हो गए हैं। यह स्थिति दुनिया के लिए एक बड़े खतरे के रूप में सामने आ सकती है।
यहां एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी उठ रहा है कि अमेरिका ने आखिरकार अफगानिस्तान में कुछ खास हवाई अड्डों पर तैनात अमेरिका के लड़ाकू हेलीकाप्टरों पर हमला करके उन्हें नष्ट क्यों नहीं किया? क्योंकि यह तय समझा जा रहा है कि कालांतर में यही हेलीकाप्टर तालिबान की हवाई ताकत बनेंगे। इस मकसद के पीछे यह कूटनीतिक मंशा जताई जा रही है कि तालिबान को बाइडन सरकार इतनी ताकत दे देना चाहती है, ताकि रूस और तुर्की जैसे देश भयभीत रहें। माना जा रहा है कि तालिबान को इन हथियारों के इस्तेमाल के लिए किसी नैतिक कारण की जरूरत नहीं है।
अलबत्ता ट्रंप की तरह बाइडन भारत के शुभचिंतक नहीं हो सकते, इस लिहाज से एक आशंका यह भी है कि तालिबान यदि अपने मददगार पाकिस्तान के जरिये इन हथियारों का उपयोग भारत के खिलाफ करता है तो भारत को अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका से हथियार खरीदने को मजबूर होना पड़ेगा। यानी बाइडन अपने दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं। वैसे भी अमेरिका समेत अधिकांश पश्चिमी देश अपने हितों के लिए दोतरफा चालें चलने में कोई गुरेज नहीं करते। यह तथ्य इस बात से प्रमाणित होता है कि जो पाकिस्तान तालिबान को पाल कर ताकतवर बना रहा था, उसे अमेरिका समेत अन्य पश्चिमी देशों ने कभी दंडित नहीं किया।
[वरिष्ठ पत्रकार]