Move to Jagran APP

Amrita pritam birth anniversary: मानो वो मुस्कान उस दरवाजे पर आज भी खड़ी है

Amrita pritam birth anniversary अमृता प्रीतम अपने समय की जानी मानी लेखिकाओं में से एक हैं। जाने एक लेखक से उनकी मुलाकात की दांस्ता।

By Ayushi TyagiEdited By: Updated: Sat, 31 Aug 2019 10:18 AM (IST)
Hero Image
Amrita pritam birth anniversary: मानो वो मुस्कान उस दरवाजे पर आज भी खड़ी है
[भगवानदास मोरवाल]। 1992 के सर्दियों के दिन थे, मैंने अपनी नौ कहानियों का एक संग्रह तैयार किया था जो प्रकाशित होने के लिए तैयार था। इसकी भूमिका आलोचक डॉ. नित्यानंद तिवारी ने लिखी थी। अपनी छोटी-सी भूमिका में तिवारी जी ने इन कहानियों की प्रशंसा की तो मेरे मन में किसी बड़े चित्रकार से इस संग्रह का आवरण बनवाने की इच्छा प्रबल होने लगी।

अमृता प्रीतम के चित्र दूसरे लेखकों की किताबों में भी थे मौजूद
चूंकि उन दिनों इमरोज एक बड़ा नाम था और अमृता प्रीतम के अलावा उनके बनाए चित्र दूसरे लेखकों की पुस्तकों के आवरण में देख चुका था, ऐसे में इमरोज के अलावा दूसरे चित्रकार का नाम मुझे नहीं भा रहा था। मुझे पता चला कि उन दिनों इमरोज हौज खास इलाके में रह रहे हैं।

एक दिन दोपहर बाद मैं बगैर इमरोज को फोन किए उनके घर जा पहुंचा। मुझे बताया गया कि इमरोज साहब पहली मंजिल पर रहते हैं। ऊपर जाती सीढ़ियों के साथ दीवार पर चिर-परिचित सी पेंटिंग्स को निहारते हुए मैं हल्के-हल्के कदमों से पहली मंजिल के बंद दरवाजे के सामने खड़ा हो गया। इससे पहले सीढ़ियों के एक मोड़ पर मिट्टी के पानी से भरे बड़े-से पात्र में गुलाब की महकती पंखुड़ियों को एक पल रुककर मैंने देखा। 

जब पहली बार सामने आई अमृता प्रीतम
मैंने हिम्मत कर झिझकते हुए कॉल बेल बजाई तो कुछ पल के इंतजार के बाद दरवाजा हल्के से खुला। दरवाजा खुलते ही दुबली-पतली जानी-पहचानी सी जो काया नजर आई, उसे पहचानने में क्षणभर की भी देरी नहीं लगी, क्योंकि इसकी तस्वीर को मैं न जाने कितनी बार पत्रिकाओं में इनकी रचनाओं विशेषकर ‘रसीदी टिकट’, ‘कलम ते कैनवास’ और इनकी कई कृतियों के फ्लैप पर देख चुका था और यह साक्षात आकृति थी -अमृता प्रीतम की। ‘इमरोज़ जी घर पर हैं? ‘मैंने बिना किसी भूमिका के पूछा। ‘हां जी, हैं।’ 

इतना कह कर अमृता जी दरवाजे से एक तरफ हट गईं। उनके एक तरफ हटते ही दूसरा चेहरा नमूदार हुआ, जिसे देख मैंने अनुमान लगा लिया कि ये इमरोज जी होंगे। ‘जी कहिये?’ इमरोज ने सीधे पूछा। मैंने अपने आने का प्रयोजन बताया तो वे मुझे ड्राइंग रूम में ले आए। वहीं पास में अमृता जी भी बैठ गईं। मद्धिम रोशनी में भीगे बेहद व्यवस्थित और सुरुचिपूर्ण ढंग से सजे किसी ऋषि की शांत कुटिया से ड्राइंग रूम और उसकी दीवारों पर टंगे चित्रों को मैं रह-रहकर निहारता रहा। ‘किताब का शीर्षक क्या है?’ इमरोज ने धीरे-से पूछा। मैंने जैसे ही ‘अस्सी मॉडल उर्फ सूबेदार’ शीर्षक बताया तो सुनते ही अमृता जी ने पूछा कि यह क्या शीर्षक हुआ? मैंने जब कहानी की कथावस्तु बताई तब वे मुस्कराकर रह गईं। यह सब पूछने के बाद इमरोज ने मेहताना बताया पांच सौ रुपये। 

तय समय पर उन्होंने मेरे संग्रह का आवरण बनाकर तैयार कर दिया। बटर पेपर से ढके आवरण की पेंटिंग को जब इमरोज मुझे देने के लिए लाए और उसे जिस समय मैं ग्रहण कर रहा था, मेरे हाथ एक अजीब-सी अनूभूति से कांप रहे थे। मैंने जब बटर पेपर के नीचे छिपे आवरण को देखा तो सबसे पहले मेरा ध्यान इमरोज की उस चिर-परिचित केलियोग्राफी पर गया, जो उनकी एक खास पहचान थी।

मैंन उन्हें उनका मेहनताना दिया और चला आया। आज भी जब कभी इस संग्रह से जुड़ी यादें ताजा हो उठती हैं, तो इनमें अमृता और इमरोज की स्निग्ध मुस्कान भी शामिल होती है। वह मुस्कान जो कभी-कभी याद आती है, तो लगता है जैसे हौजखास के गेरूआ रंग से पुते मकान में अमृता जी अब भी खड़ी हैं। 


भगवानदास मोरवाल, लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार है।

ये भी पढ़ें : ...तो इसलिए भी अमृता प्रीतम का जुड़ाव था हजारीबाग से