Swami Swaroopanand: नौ वर्ष की उम्र में शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने घर का त्याग कर शुरू की थी धर्म यात्राएं
Swami Swaroopanand स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म 2 सितम्बर 1924 को मध्य प्रदेश राज्य के सिवनी जिले के दिघोरी गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता धनपति उपाध्याय और मां गिरिजा देवी ने बचपन में उनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा था।
By Ashisha Singh RajputEdited By: Updated: Sun, 11 Sep 2022 06:32 PM (IST)
नई दिल्ली, जेएनएन। हिंदुओं के सबसे बड़े धर्म गुरू शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती का 99 साल की उम्र रविवार को निधन हो गया है। स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ज्योतिर्मठ और द्वारका पीठ के शंकराचार्य थे। लंबे समय से बीमार धर्म गुरू शंकराचार्य ने आज दोपहर 3.30 बजे परमहंसी गंगा आश्रम झोतेश्वर जिला नरसिंहपुर में अपने जीवन की अंतिम सांसे ली। नौ वर्ष की छोटी सी उम्र में शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने अपना घर त्याग दिया था और तभी से वें धर्म से जुड़ गए थे।
नौ वर्ष की उम्र में धर्म से जुड़े स्वामी स्वरूपानंद
स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म 2 सितम्बर 1924 को मध्य प्रदेश राज्य के सिवनी जिले के दिघोरी गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता धनपति उपाध्याय और मां गिरिजा देवी ने बचपन में उनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा था।नौ वर्ष की छोटी सी उम्र में जब लोगों को अपना ही बहुत अच्छे से ध्यान नहीं होता उस समय स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने घर को त्याग कर धर्म यात्रायें प्रारम्भ कर दी थीं। अपने जीवन की पहली धाम यात्रा के दौरान वह काशी पहुंचे और यहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा-दीक्षा ली।
आजादी की लड़ाई में भाग लेकर शंकराचार्य गए थे जेल
स्वामी स्वरूपानंद की धर्म यात्रा के समय भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लड़ाई चल रही थी। जब 1942 में अंग्रेजो के खिलाफ भारत में आवाज उठने लगी उस दौरान 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का नारा लगा। यह वही वक्त था जब स्वामी स्वरूपानंद भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे। 19 साल की उम्र में वह 'क्रांतिकारी साधु' के रूप में प्रसिद्ध हुए। इसी दौरान उन्हें जेल भी जाना पड़ा। उन्होंने वाराणसी की जेल में नौ और मध्यप्रदेश की जेल में छह महीने की सजा भी काटी।स्वामी स्वरूपानंद बाद में करपात्री महाराज की राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी बने। वहीं 1950 में वे दंडी संन्यासी बनाये गए। यहां से उनके सन्यासी जीवन और धर्म गुरु बनने का आरंभ हो चुका था। 1950 में शारदा पीठ शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे और 1981 में उन्हें शंकराचार्य की उपाधि मिली।