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संसद की दहलीज तक नहीं पहुंच पाई हैं बिहार की 195 जातियां, जातिवार गणना के बाद हक मांगने आ सकती हैं आगे

जातिवार गणना की रिपोर्ट आने के बाद हाशिये पर खड़ी कम संख्या वाली जातियों में भी उचित राजनीतिक हिस्सेदारी की भावना प्रबल हो सकती है और वे अपने अधिकारों के लिए मुखर हो सकती हैं। प्रमुख दलों की ओर से उतारे गए प्रत्याशियों की सूची बताती है कि सिर्फ 21 जातियों को ही टिकट के लायक समझा गया था ।

By Jagran NewsEdited By: Sonu GuptaUpdated: Tue, 03 Oct 2023 10:11 PM (IST)
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हिंदू जातियों में से करीब 10-12 जातियां ही अति सक्रिय राजनीति कर पाती हैं। फाइल फोटो।
अरविंद शर्मा, नई दिल्ली। जातिवार गणना के अनुसार बिहार में कुल 215 जातियां हैं। स्वतंत्रता के बाद देश में लोकसभा के कराए गए कुल 17 चुनावों का इतिहास बताता है कि इनमें से 195 जातियां अभी तक संसद की दहलीज से दूर हैं। मात्र 20 जातियों को ही प्रतिनिधित्व मिल सका है। एक बड़ा सच यह भी है कि मुख्य तौर पर 10-12 जातियां ही राजनीति में सक्रिय रहती हैं। प्रमुख पार्टियां भी इन्हीं जातियों के बीच से अपने-अपने प्रत्याशियों की तलाश करती हैं।

उचित राजनीतिक हिस्सेदारी की भावना हो सकती है प्रबल

अब जातिवार गणना की रिपोर्ट आने के बाद हाशिये पर खड़ी कम संख्या वाली जातियों में भी उचित राजनीतिक हिस्सेदारी की भावना प्रबल हो सकती है और वे अपने अधिकारों के लिए मुखर हो सकती हैं। पिछले संसदीय आम चुनाव में भी बिहार में कम संख्या वाली जातियों को परंपरागत चश्मे से ही देखा गया था।

90 प्रतिशत जातियों को नहीं समझा गया टिकट लायक

प्रमुख दलों की ओर से उतारे गए प्रत्याशियों की सूची बताती है कि सिर्फ 21 जातियों को ही टिकट के लायक समझा गया था। यह प्रदेश में सभी जातियों की कुल संख्या का महज 10 प्रतिशत है। मतलब 90 प्रतिशत जातियों को इस लायक भी नहीं समझा गया कि उन्हें टिकट दिया जा सके।

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अब तक कुछ खास समुदाय के लोग ही बने हैं सांसद

बिहार की राजनीति की जातीय सच्चाई पर लिखी गई वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत की पुस्तक में बिहार में चुनाव, जाति और बूथ लूट के आंकड़ों के हवाले से बताया गया है कि 1952 से अब तक यादव, ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, कायस्थ, कुर्मी, कोइरी, बनिया, कहार, नाई, धानुक, नोनिया, मल्लाह, विश्वकर्मा, पासवान, रविदास, मांझी, पासी, मुस्लिम और ईसाई समुदाय से ही सांसद चुने गए हैं। अन्य जातियों को अभी भी अपनी बारी का इंतजार है। हालांकि बिहार विधानसभा चुनावों में यह आंकड़ा थोड़ा बड़ा है। हालांकि ऐसा नहीं कि प्रतिनिधियों के चयन में बिहार के मतदाता प्रारंभ से ही संकुचित थे।

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कम जातियों के बीच से निकले कई नेताओं ने बदली राजनीति की धारा

राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार का कहना है कि बिहार ने जात-पात पर विचार किए बिना मीनू मसानी, जार्ज फर्नांडीज, जेबी कृपलानी एवं मधु लिमये जैसे अन्य प्रदेशों के नेताओं को प्रश्रय दिया। चुनकर संसद भेजा। जाहिर है, उनकी जाति नहीं, बल्कि संभावनाएं देखी गईं। कम संख्या वाली जातियों के बीच से भी निकलकर कई नेताओं ने राजनीति की धारा बदली है।

कर्पूरी ठाकुर, श्रीकृष्ण सिन्हा एवं नीतीश कुमार को इसी कतार का अग्रणी नेता माना जाता है, जिन्होंने शुचिता एवं सिद्धांतों के सहारे लंबे समय तक सत्ता के शीर्ष पर रहकर अगली पीढ़ी के लिए उदाहरण प्रस्तुत किया है।

अनारक्षित सीटों पर 10-12 जातियों का ही वर्चस्व

मुस्लिम समुदाय की बात अगर छोड़ दी जाए तो इन हिंदू जातियों में से करीब 10-12 जातियां ही अति सक्रिय राजनीति कर पाती हैं। अनारक्षित सीटों पर यादव, भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत, कुर्मी, कायस्थ, कोईरी, बनिया, कहार, धानुक एवं मल्लाह के बीच ही टिकट के लिए प्रतिस्पर्धा होती है। बिहार में अनुसूचित समुदाय के लिए लोकसभा में आरक्षित सीटों की संख्या छह है और इनकी जातियों की संख्या 22 है।

इन सीटों पर भी चार-पांच जातियों की ही प्रधानता रहती है। इनमें पासवान, मांझी, रविदास एवं धोबी सबसे आगे हैं। अन्य 18 जातियों को मुकाबले से भी बाहर मान लिया जाता है। जातिवार गणना की जारी रिपोर्ट को ऐतिहासिक बताने वाले दलों को यह आंकड़ा सतर्क करने के लिए काफी है।