Birsa Munda: अंग्रेजों के खिलाफ फूंका था बिगुल, आदिवासियों के भगवान बने बिरसा मुंडा; ऐसी थी शहादत की कहानी
Birsa Munda Punyatithi 2023 मुंडा आदिवासियों के भगवान माने जाने वाले बिरसा मुंडा की आज 123वीं पुण्यतिथि है। उन्होंने 25 साल की कम उम्र में ही अंग्रेजों को खौफजदा कर दिया था। उन्हें गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेजों ने 500 रुपय के इनाम की घोषणा की थी। (जागरण ग्राफिक्स)
By Preeti GuptaEdited By: Preeti GuptaUpdated: Fri, 09 Jun 2023 03:01 PM (IST)
नई दिल्ली, ऑलनाइन डेस्क। Birsa Munda Death Anniversary: ब्रिटिशों ने भारत पर 200 सालों तक राज किया, लेकिन उनके लिए यह समय इतना आसानी से नहीं गुजरा था। भारत के ऐसे कई क्रांतिकारी रहे हैं, जिन्होंने ब्रिटिशों की नाक में दम कर रखा था। उन्हीं में से एक थे बिरसा मुंडा।
उन्होंने 25 साल की कम उम्र में ही अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। वह एक स्वतंत्रता सेनानी और आदिवासी नेता थे। इतना ही नहीं आदिवासी समुदाय के लोग तो उन्हें भगवान मानते थे। ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशक्त विद्रोह किए जाने वाले बिरसा मुंडा की आज 123वीं पुण्यतिथि है।
बिरसा मुंडा ने न केवल आजादी में योगदान दिया था, बल्कि उन्होंने आदिवासी समुदाय के उत्थान के लिए भी कई कार्य किए थे। भले ही बिरसा मुंडा बहुत कम उम्र में शहीद हो गए थे, लेकिन उनके साहसिक कार्यों के कारण वह आज भी अमर हैं।
धर्मांतरण का शिकार हुए थे बिरसा मुंडा
बिरसा मुंडा ने बहुत कम उम्र में अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया था। अंग्रेज भी उनसे खौफ खाने लगे थे। उन्होंने ये लड़ाई तब शुरू की थी जब वो 25 साल के भी नहीं हुए थे। उनका जन्म 15 नवंबर, 1875 को मुंडा जनजाति में हुआ था। उन्हें बाँसुरी बजाने का शौक था। वह पढ़ाई में भी होशियार थे।
ईसाई धर्म को त्यागा
उनकी शुरुआती पढ़ाई सलगा से हुई थी, लेकिन उन्हें जर्मन मिशन स्कूल भेज दिया गया, जहां वे ईसाई बन कर बिरसा डेविड हो गए थे। वहां पढ़ाई करने के दौरान उन्हें ब्रिटिशों द्वारा धर्मांतरण कराए जाने का पूरा खेल समझ आ गया था, जिसके चलते उन्होंने स्कूल छोड़ दिया और साथ ही साथ ईसाई धर्म को भी त्याग दिया था। ईसाई धर्म का परित्याग करने के बाद उन्होंने अपना नया धर्म 'बिरसैत' शुरू किया था। जल्द ही मुंडा और उराँव जनजाति के लोग उनके धर्म को मानने लगे थे।
आदिवासियों के भगवान माने जाने वाले बिरसा मुंडा की संघर्ष की शुरुआत चाईबासा में हुई थी जहाँ उन्होंने 1886 से 1890 तक चार वर्ष बिताए। वहीं से अंग्रेजों के खिलाफ एक आदिवासी आंदोलन की शुरुआत हुई। उन्होंने ठान लिया था कि वो अंग्रेजों को सबक सिखा कर ही रहेंगे।