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कई मायनों में खास है भाजपा का त्रिपुरा में वामपंथियों के गढ़ को ढहना

माकपा को राज्य में पच्चीस वषों की सत्ता विराधी लहर का खामियाजा भुगतना पड़ा। त्रिपुरा में आदिवासियों की संख्या बहुत अधिक है।

By Kamal VermaEdited By: Updated: Mon, 05 Mar 2018 11:17 AM (IST)
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कई मायनों में खास है भाजपा का त्रिपुरा में वामपंथियों के गढ़ को ढहना

नई दिल्ली [अभिषेक रंजन सिंह]। असम में कमल खिलाने के बाद भाजपा पूवरेत्तर राज्य त्रिपुरा में भी सत्ता हासिल करने में कामयाब हुई है। पश्चिम बंगाल के बाद त्रिपुरा वामपंथियों का बेहद मजबूत गढ़ गढ़ रहा है,ऐसे में यहां भाजपा की जीत के खास मायने हैं। इसमें जहां एक तरफ आरएसएस और वनवासी कल्याण आश्रम ने बड़ी अहम भूमिका निभाई। वहीं माकपा को राज्य में पच्चीस वषों की सत्ता विराधी लहर का खामियाजा भुगतना पड़ा। त्रिपुरा में आदिवासियों की संख्या बहुत अधिक है। वाम सरकार में अपनी अनदेखी से नाराज आदिवासियों का माणिक सरकार से मोहभंग हुआ। आदिवासियों को पहले कांग्रेस का परंपरागत वोटर माना जाता था, लेकिन हाल के कुछ वषों में आदिवासियों का जुड़ाव भाजपा के प्रति बढ़ा है। इसके कई कारण हैं।

माकपा को हराना बड़ी कामयाबी 

केंद्र में सबसे पहले अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में ही जनजातीय कल्याण मंत्रालय बना जिसका फायदा पूर्वोत्तर के आदिवासियों को मिला। देश में आदिवासियों की कुल आबादी का पचास फीसद पूवरेत्तर में निवास करता है। झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल राज्यों का गठन भाजपा की सरकार में ही हुआ। इस बार त्रिपुरा में माकपा सरकार को भाजपा से कड़ी टक्कर मिलने की तो संभावनाएं जताई जा रही थीं, लेकिन ढाई दशकों से सत्ता पर काबिज माकपा की इतनी बड़ी हार की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। भाजपा और संघ कई वषों से त्रिपुरा में जमीनी स्तर पर काम कर रहे थे। पूवरेत्तर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे साबित करते हैं कि वह पूर्वोत्तर के आदिवासियों के प्रति गंभीर हैं।

पूर्वोत्तर परिषद की बैठक

मोदी ने चालीस साल बाद पूर्वोत्तर परिषद की बैठक कराई। केंद्र सरकार के कोई न कोई मंत्री हर पखवाड़े पूर्वोत्तर की यात्रा पर जाते हैं। साढ़े तीन वषों में करीब डेढ़ सौ केंद्रीय मंत्रियों ने पूर्वोत्तर की यात्रा के दौरान वहां केंद्रीय योजनाओं की समीक्षा की। इसमें कोई शक नहीं कि पच्चीस वषों के वाम शासन में गरीबों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ती चली गई। त्रिपुरा की 67 फीसद आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रही है। वर्ष 1998 में जब माणिक सरकार मुख्यमंत्री बने उस समय में राज्य में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या पिचासी हजार थी। बीते उन्नीस वषों में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या बढ़कर आठ लाख हो गई है। 1993 में माकपा सत्ता में आई। इसी साल वहां चौथा वेतनमान लागू हुआ। पच्चीस वषों से वहां के सरकारी कर्मचारियों का यही वतन है।

देश में सातवां वेतनमान लागू

प्रधानमंत्री मोदी के समय देश में सातवां वेतनमान लागू हुआ, लेकिन असम में भी अभी तक पांचवां वेतनमान ही चल रहा था, मगर वहां भाजपा की सरकार बनने के तुरंत बाद सातवां वेतनमान लागू कर दिया गया। त्रिपुरा में मतदाताओं की कुल संख्या पच्चीस लाख है। जिनमें राज्य सरकार के कर्मचारियों की संख्या दो लाख है। ढाई लाख के करीब पेंशनर हैं और भाजपा इन्हें अपने पक्ष में साधने में खासी कामयाब भी रही रही। त्रिपुरा में प्रधानमंत्री मोदी के अलावा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने काफी चुनावी जनसभाएं कीं। इसकी प्रमुख वजह थी उनका नाथ संप्रदाय से संबद्ध होना। त्रिपुरा में नाथ संप्रदाय से जुड़े सतरह छोटे-बड़े मंदिर हैं। राज्य में पिछड़ी जातियों की आबादी पच्चीस प्रतिशत है और उनमें अस्सी प्रतिशत लोग नाथ संप्रदाय से जुड़े हैं।

पहले भी त्रिपुरा आते रहे हैं योगी

योगी आदित्यनाथ प्रवचन के सिलसिले में पहले भी त्रिपुरा आते रहे हैं। त्रिपुरा चुनाव में भाजपा की कामयाबी में उनकी भी बड़ी भूमिका है। त्रिपुरा के नतीजे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जीा के लिए चिंता की बात जरूर है। त्रिपुरा में बांग्ला भाषी मतदाताओं की संख्या भी अधिक है। इस बार बांग्ला भाषियों ने जिस तरह भाजपा के पक्ष में मतदान किया उसका असर पश्चिम बंगाल के आगामी चुनावों में देखा जा सकता है। बंगाल में पिछले कुछ वषों से भाजपा जिस तरह उभरी है उससे स्पष्ट है कि अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को पश्चिम बंगाल से ठीक-ठाक सीटें मिल सकती हैं। इसके अलावा इतना तो तय है कि पश्चिम बंगाल में विधानसभा और लोकसभा चुनावों में अधिकांश सीटों पर मुख्य मुकाबला अब तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच होगा। हालिया नतीजे भी इसकी तस्दीक करते हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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