मालवा की माटी के इस वीर योद्धा के भय से अंग्रेजों ने बदले थे अपने नियम
मालवा के महाराणा बख्तावर सिंह के साथ उनके विश्वस्त सहयोगी रहे सलकूराम भवानी सिंह चिमन लाल मोहनलाल मंशाराम हीरा सिंह गुल खां शाह रसूल खां वशीउल्ला खां अता मोहम्मद मुंशी नसरुल्ला व नगाड़ा वादक फकीर को भी फांसी दे दी गई।
By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Sat, 05 Feb 2022 04:21 PM (IST)
वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में क्रांति की ज्वाला बन गए थे बलिदानी महाराणा बख्तावर सिंह। मालवा क्षेत्र में क्रांति का बिगुल फूंकने वाले महाराणा बख्तावर ने कई अंग्रेज अधिकारियों को मौत के घाट उतारा था और मात्र 34 वर्ष की अवस्था में 10 फरवरी, 1858 को शहीद हो गए थे। ईश्वर शर्मा का आलेख...
हमारे देश के हर कोने में वीरों की मौजूदगी गौरव के किस्से गढ़ती आई है। ऐसे ही एक वीर का नाम है मालवा के महाराणा अमर बलिदानी बख्तावर सिंह। मालवा यानी वर्तमान मध्य प्रदेश के उज्जैन, इंदौर के आस-पास का करीब 200 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र। मालवा के इस महान महाराणा ने 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान संपूर्ण मालवा व समीपस्थ गुजरात से अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए क्रांति कर दी थी। वर्तमान मध्य प्रदेश के जिला धार में स्थित अमझेरा कस्बे में 14 दिसंबर, 1824 को महाराजा अजीत सिंह व महारानी इंद्रकुंवर की संतान के रूप में जन्मे महाराणा बख्तावर सिंह को मात्र सात वर्ष की छोटी सी उम्र में रियासत की बागडोर थामनी पड़ी। वे बचपन से ही अंग्रेजों से बदला लेने के लिए आतुर रहते थे।
यह वह दौर था जब देश में अंग्रेजों के विरोध का स्वर मुखर हो रहा था और 1857 के महान विद्रोह की तैयारी हो रही थी। क्रांतिकारियों की तैयारी की गुप्त सूचनाएं रियासतों के राजाओं तक भी पहुंच रही थीं। इसी दौरान बख्तावर सिंह ने भी अंग्रेजों को खदेड़ने की योजना बनाई। तीन जुलाई, 1857 को सूर्य की पहली किरण के साथ महाराणा बख्तावर सिंह व उनकी क्रांति सेना ने हर-हर महादेव के जयकारे के साथ अंग्रेजों की भोपावर छावनी पर हमला कर दिया। अमझेरा की सेना के भय से अंग्रेज सैनिक बिना लड़े भाग खड़े हुए। सैनिकों ने शस्त्रागार व कोषागार को कब्जे में लिया और छावनी से अंग्रेजों का झंडा उतारकर फाड़ डाला।
इसके बाद उन्होंने सरदारपुर और मानपुर-गुजरी जैसी रणनीतिक महत्व वाली अंग्रेजों की छावनी पर हमला कर वहां मौजूद अधिकारियों को पराजित कर सैकड़ों अंग्रेज सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। महाराजा बख्तावर सिंह के इस शौर्य से गांव-गांव में फैले क्रांतिकारियों और आम भारतीय जनता का मनोबल आसमान में पहुंच गया। उन्होंने आस-पास के 200 किलोमीटर क्षेत्र में स्थित महू, आगर, नीमच, महिदपुर, मंडलेश्वर आदि सैन्य छावनियों को तबाह कर दिया। इन छावनियों के सैनिक भी अमझेरा के महाराणा के समर्थन में विद्रोह को तैयार हो गए। इससे मालवा क्षेत्र में ब्रिटिश सत्ता की प्रतिष्ठा को गहरा सदमा पहुंचा और अंग्रेजों की इंदौर स्थित बड़ी छावनी तक भय की लहर दौड़ गई।
अंग्रेज समझ चुके थे कि यदि महाराणा बख्तावर सिंह को नहीं रोका तो मालवा व निमाड़ हाथ से निकल जाएंगे। तब उन्होंने अन्य छावनियों से सैन्य बल बुलाया और 31 अक्टूबर, 1857 को धार किले पर आक्रमण कर दिया। महाराणा इस हमले के समय धार से कुछ दूर स्थित अमझेरा किले में थे। अंग्रेजों को महाराणा के न होने का लाभ मिला और वे धार किले पर कब्जा करने में सफल हो गए। पांच नवंबर, 1857 को कर्नल डूरंड ने अमझेरा पर आक्रमण की योजना बनाई, किंतु ब्रिटिश सेना के सैनिकों में अमझेरा की क्रांति सेना का इतना खौफ था कि आदेश के बावजूद सेना भोपावर से आगे नहीं बढ़ी और भाग गई।
हालांकि बाद में लेफ्टिनेंट हचिंसन के नेतृत्व में अंग्रेज सेना की पूरी बटालियन को अमझेरा भेजने की योजना बनी। इसी दौरान धार में रह रहे कर्नल डूरंड को सूचना मिली कि महाराणा बख्तावर सिंह समीपस्थ कस्बे लालगढ़ में हैं। डूरंड जानता था कि बख्तावर सिंह को सीधे गिरफ्तार करना खतरे से खाली नहीं, इसलिए उसने कुटिल चाल चलते हुए अमझेरा रियासत के कुछ प्रभावशाली लोगों को जागीर देने का लालच दिया व अपने साथ मिला लिया। इनके जरिए कर्नल डूरंड ने महाराणा बख्तावर सिंह के पास संधिवार्ता का संदेश भेजा। कुटिल मध्यस्थों ने वीर किंतु भोले महाराणा को भ्रमित कर अंग्रेजों से संधिवार्ता करने हेतु मना लिया।
11 नवंबर, 1857 को अपने सैनिकों के मना करने के बावजूद वीर महाराणा बख्तावर सिंह 12 विश्वसनीय अंगरक्षकों को लेकर लालगढ़ किले से धार के लिए निकले। कर्नल डूरंड की योजना के मुताबिक, रास्ते में इन्हें अंग्रेजों की हैदराबाद से आई अश्वारोही सैन्य टुकड़ी ने रोक लिया। महाराणा के अंगरक्षकों ने विरोध किया, किंतु अंग्रेजों की घुड़सवार टुकड़ी महाराणा को पकड़ने में सफल हो गई। इस सूचना ने क्रांतिकारियों व आम जनता का मनोबल तोड़ दिया। यद्यपि राघोगढ़ (देवास) के ठाकुर दौलत सिंह ने महू छावनी पर आक्रमण कर अमझेरा नरेश को छुड़वाने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। महाराणा से भयभीत ब्रिटिश अधिकारियों ने निर्णय लिया कि यदि इन्हें महू में ही रखा तो पूरे मालवा में अंग्रेजों पर हमले शुरू हो जाएंगे, इसलिए उन्हें इंदौर जेल भेज दिया गया। जहां यातना का स्तर दिनोंदिन बढ़ता गया, फिर भी भारत माता का यह वीर सपूत अंग्रेजों के सामने झुका नहीं।
न्याय का दिखावा करने के लिए अंग्रेजों ने 21 दिसंबर, 1857 को इंदौर रेसीडेंसी में प्रमुख राज्यों के वकीलों की उपस्थिति में सुनवाई की। अमझेरा नरेश ने इस नाटकीयता को नकार दिया और बचाव का कोई प्रयास नहीं किया। जिसके बाद राबर्ट हेमिल्टन ने बख्तावर सिंह को असीरगढ़ किला (वर्तमान बुरहानपुर जिले में स्थित) में एक बंदी की हैसियत से भेजने का निर्णय लिया, लेकिन फरवरी 1858 के प्रथम सप्ताह में कुटिलतापूर्वक यह निर्णय ले लिया गया कि अमझेरा के राजा को फांसी दे दी जाए ताकि फिर कोई राजा क्रांति की आवाज न बन सके। अंतत: 10 फरवरी, 1858 को 34 वर्षीय अमझेरा नरेश को इंदौर में नीम के पेड़ पर फांसी दे दी गई। किंतु देह से बलशाली महाराणा बख्तावर सिंह के वजन से फांसी का फंदा टूट गया।
इतिहासकार बताते हैं कि फांसी देते वक्त फंदा टूटने पर माफी दे दी जाती थी, लेकिन अंग्रेजों में महाराणा बख्तावर सिंह का इतना भय था कि उन्होंने अपने ही नियम को तोड़ दिया और इस वीर योद्धा को दोबारा फांसी के फंदे पर लटका दिया। महाराणा की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी रानी दौलत कुंअर ने भी सैनिकों के साथ अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी और वे भी वीरगति को प्राप्त हुईं। महाराणा को इंदौर में जिस नीम के पेड़ पर फांसी दी गई थी, वह पेड़ आज भी लहलहा रहा है, मानो बलिदानी महाराणा ने अपने रक्त से सींचकर उसे हमेशा हरा-भरा रहने का वरदान दे दिया हो।