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Chandrashekhar Azad: क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का नाम बहादुरी, राष्ट्रभक्ति और बलिदान का पर्याय

महज 14 वर्ष की आयु में चंद्रशेखर असहयोग आंदोलन का हिस्‍सा बन गए। इसमें अंग्रेजों ने उन्‍हें गिरफ्तार भी किया और फिर मजिस्‍ट्रेट के समक्ष प्रस्‍तुत किया गया।

By Sanjeev TiwariEdited By: Updated: Thu, 23 Jul 2020 09:45 AM (IST)
Chandrashekhar Azad: क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का नाम बहादुरी, राष्ट्रभक्ति और बलिदान का पर्याय
नई दिल्‍ली। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक कहे जाने वाले शहीद चंद्रशेखर आजाद की आज जयंती मनाई जा रही है। महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद जी का नाम बहादुरी, राष्ट्रभक्ति और बलिदान का पर्याय है। उनके हृदय में देश व मातृभूमि के लिए इतना प्रेम था कि उन्होंने बहुत छोटी उम्र से ही अंग्रेज़ों के विरुद्ध लोहा लेना शुरू किया और फिर अपना सम्पूर्ण जीवन देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया।

'अंग्रेज कभी मुझे जिंदा नहीं पकड़ सकेंगे'। यह कहना था शहीद चंद्रशेखर आजाद का। वो आजाद जिसने अंग्रेजों के दिलों में खौफ का वो बीज बो दिया था जिससे वह कभी नहीं निकल सके थे। यही वजह थी कि जब 27 फरवरी 1931 को अंग्रेजों की एक पूरी टुकड़ी ने उन्‍हें एल्फ्रेड पार्क में चारों तरफ से घेर लिया था तो किसी ने उनके पास जाने तक की हिम्‍मत नहीं दिखाई थी। इतना ही नहीं अपनी आखिरी बची हुई गोली से उन्‍होंने खुद अपनी ही जान ले ली थी। इसके बाद भी किसी फिरंगी की इतनी हिम्‍मत नहीं हुई कि वह उनके मृत शरीर के पास जाकर उसको छूने की हिम्‍मत कर सके। उनके शव के पास जाने से अंग्रेजों ने उनको गोली मारकर यह सुनिश्चित किया कि वह मर चुके हैं। इलाहाबाद का यह पाक आज भी उनकी वीरता का दास्‍तां को सुनाता दिखाई देता है। यहां ऐसा लगता है जैसे सब कुछ आपकी आंखों के सामने हो रहा हो। ऐसा था भारत माता को वो वीर सिपाही जिसने कभी अपनी जान की परवाह नहीं की। आखिरी समय पर भी उसने सुखदेव को वहां से सकुशल निकाल दिया और अंग्रेजों से अकेले लोहा लिया था। आज उसी आजाद की जयंती है।

 23 जुलाई को पंडित सीताराम तिवारी के घर हुआ जन्म

चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 को एक आदिवासी ग्राम भाबरा में हुआ था। उनके पिता पंडित सीताराम तिवारी उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदर गांव के रहने वाले थे। भीषण अकाल के चलते आजाद का परिवार ग्राम भाबरा में बस गया था। उनका प्रारंभिक जीवन इसी गांव में गुजरा। यहीं पर उन्‍होंने धनुष-बाण चलाना सीखा। काकोरी ट्रेन डकैती और सांडर्स की हत्या में शामिल निर्भीक महान देशभक्त और क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अहम स्थान रखता है।

गांधी से प्रभावित थे आजाद

बचपन में आजाद महात्मा गांधी से काफी प्रभावित थे। दिसंबर 1921 में जब गांधी जी के असहयोग आंदोलन का आरम्भिक दौर था, उस समय महज 14 वर्ष की आयु में चंद्रशेखर इस आंदोलन का हिस्‍सा बन गए। इसमें अंग्रेजों ने उन्‍हें गिरफ्तार भी किया और फिर मजिस्‍ट्रेट के समक्ष प्रस्‍तुत किया गया। यहां पर उन्‍होंने मजिस्‍ट्रेट के सवालों के जो जवाब दिए उसको सुनकर मजिस्‍ट्रेट भी हिल गया था। दरअसल, जब आजाद को मजिस्‍ट्रेट के सामने पेश किया गया तो उसने पहले उनका नाम पूछा। जवाब में उन्‍होंने कहा 'आजाद'। मजिस्‍ट्रेट का दूसरा सवाल था पिता का नाम। आजाद बोले स्‍वतंत्रता। जब मजिस्‍ट्रेट ने तीसरा सवाल में उनके घर का पता पूछा तो उनका जवाब था जेलखाना। उनके इन जवाबों से मजिस्‍ट्रेट बुरी तरह से तिलमिला गया और उन्‍हें 15 कोड़े मारने की सजा सुनाई। हर कोड़े की मार पर वह 'वंदे मातरम' और ‘महात्मा गांधी की जय' बोलते रहे। इसके बाद ही उनके नाम के आगे आजाद जोड़ दिया गया।

चंद्रशेखर का क्रांतिकारी जीवन

लेकिन जब गांधी ने 1922 में असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया तो आजाद काफी खफा हुए। इसके बाद उन्होंने देश को आजाद कराने की ठान ली थी। इसके बाद एक युवा क्रांतिकारी ने उन्हें 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन क्रांतिकारी दल' के संस्थापक राम प्रसाद बिस्मिल से परिचित करवाया। 1925 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की गई थी। आजाद बिस्मिल से बहुत प्रभावित हुए। उनके समर्पण और निष्ठा को देखते हुए बिस्मिल ने आजाद को अपनी संस्था का सक्रिय सदस्य बना लिया था। आजाद अपने साथियों के साथ संस्था के लिए धन एकत्रित करते थे। अधिकतर यह धन अंग्रेजी सरकार से लूट कर एकत्रित किया जाता था।

चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह

1925 में हुए काकोरी कांड ने अंग्रेजों को बुरी तरह से हिला कर रख दिया था। इस मामले में अशफाक उल्ला खां, रामप्रसाद 'बिस्मिल' सहित कई अन्य मुख्य क्रांतिकारियों को मौत की सजा सुनाई गई। इसके बाद चंद्रशेखर ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन संस्था का पुनर्गठन किया। भगवतीचरण वोहरा के संपर्क में आने के बाद वह भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के भी करीब आ गए। भगत सिंह के साथ मिलकर चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजी हुकूमत को दहशत में ला दिया था।

झांसी में क्रांतिकारी गतिविधियां

चंद्रशेखर आजाद ने एक निर्धारित समय के लिए झांसी को अपना गढ़ बना लिया। झांसी से पंद्रह किलोमीटर दूर ओरछा के जंगलों में वह अपने साथियों के साथ निशानेबाजी किया करते थे। अचूक निशानेबाज होने के कारण चंद्रशेखर आजाद दूसरे क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण देने के साथ-साथ पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी के नाम से बच्चों को पढ़ाने का भी काम करते थे। वह धिमारपुर गांव में अपने इसी छद्म नाम से स्थानीय लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गए थे। झांसी में रहते हुए चंद्रशेखर आजाद ने गाड़ी चलानी भी सीख ली थी।

चंद्रशेखर आजाद का आत्म-बलिदान

फरवरी 1931 में पहली बार गणेश शंकर विद्यार्थी के कहने पर वह इलाहाबाद में जवाहर लाल नेहरू से मिलने आनंद भवन गए थे। लेकिन वहां पर नेहरू ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया था। इसके बाद वह गुस्‍से में वहां से एल्फ्रेड पार्क चले गए। इस वक्‍त उनके साथ सुखदेव भी थे। वह यहां पर अपनी आगामी रणनीति तैयार कर रहे थे, तभी किसी मुखबिर के कहने पर वहां पर अंग्रेजाें की एक टुकड़ी ने उन्‍हें चारों तरफ से घेर लिया। आजाद ने तुरंत खतरा भांपते हुए सुखदेव को वहां से सुरक्षित निकाल दिया और अंग्रेजों पर फायर कर दिया। लेकिन जब उनके पास आखिरी एक गोली बची तो उन्‍होंने उससे खुद के प्राण्‍ा लेकर अपनी कथनी को सच साबित कर दिया था। एल्फ्रेड पार्क में 27 फरवरी 1931 को उनके दिए इस बलिदान को भारत कभी नहीं भुला पाएगा। आजादी के बाद इस पार्क का बाद में नाम बदलकर चंद्रशेखर आजाद पार्क और मध्य प्रदेश के जिस गांव में वह रहे थे उसका धिमारपुरा नाम बदलकर आजादपुरा रखा गया।