महामारी के बीच बाल श्रम का संकट, जबरन मजदूरी कराने के लिए बच्चों की तस्करी का सिलसिला भी शुरू
लाकडाउन से हुए नुकसान की भरपाई के लिए कुछ लोग सस्ते श्रम के विकल्प के रूप में बाल मजदूरी को बढ़ावा दे सकते हैं। यहां एक बड़ा मुद्दा कोरोना महामारी के दौरान स्कूलों का बंद रहना भी है।
By Shashank PandeyEdited By: Updated: Wed, 21 Jul 2021 01:29 PM (IST)
उमेश कुमार गुप्ता। लाकडाउन खुलने के साथ ही बिहार, झारखंड, बंगाल और उत्तर प्रदेश से जबरिया मजदूरी कराने के लिए बच्चों की तस्करी का सिलसिला भी शुरू हो गया है। पिछले एक महीने के दौरान ऐसे ही 500 से अधिक बच्चों को उत्तर प्रदेश और बिहार के विभिन्न रेलवे स्टेशनों से छापामार कार्रवाइयों के दौरान रेलवे पुलिस और स्वयंसेवी संस्थाओं ने मुक्त कराया। बहरहाल जो बच्चे मानव तस्करी या बंधुआ मजदूरी का शिकार होने से बच गए, वास्तव में भाग्यशाली हैं या नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि उनके पुनर्वास के लिए सरकार क्या कदम उठाती है। अन्यथा मजबूरन अपना गांव छोड़कर वे हजारों किमी दूर जाने को ही विवश होंगे।
गत माह अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और यूनिसेफ ने ‘बाल मजदूरी के वैश्विक अनुमान, चलन और आगे की राह’ शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित की। उसके मुताबिक फिलहाल दुनिया में करीब 16 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी कर रहे हैं। उनमें से सात करोड़ 90 लाख बच्चे खतरनाक कार्यो में संलग्न हैं। रपट के अनुसार कोविड महामारी के कारण बढ़ी गरीबी के चलते करीब छह करोड़ 80 लाख और बच्चे वर्ष 2022 के अंत तक बाल मजदूर बनने को विवश हो सकते हैं। बाल मजदूरी के मुद्दे पर सक्रिय कार्यकर्ताओं की मानें तो लाकडाउन से हुए नुकसान की भरपाई करने के क्रम में कुछ लोग सस्ते श्रम के रूप में बाल मजदूरों को रखने पर ज्यादा तवज्जो दे सकते हैं।यहां एक बड़ा मुद्दा महामारी के दौरान स्कूलों का बंद रहना भी है। बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और बंगाल के ग्रामीण इलाकों में एक बड़ी जनसंख्या ऐसी है, जिसके पास स्मार्टफोन नहीं है। इससे वे अपने बच्चों को आनलाइन क्लास नहीं करा पा रहे। माता-पिता का मानना है कि यदि ये लोग पढ़ नहीं रहे तो अच्छा है कहीं बाहर जाकर काम सीखें और कुछ पैसे ही कमाएं। ऐसे सोच से बाल मजदूरी के खात्मे और शिक्षा के अधिकार के लिए पिछले एक दशक में चलाए गए अभियान को आघात पहुंचा है।
इस समस्या के निदान के लिए आवश्यक है कि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रही सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को गति प्रदान की जाए। साथ ही जिला स्तर पर बने बाल श्रमिक कल्याण एवं पुनर्वास कोष का उपयोग मुक्त कराए गए बाल श्रमिकों के आíथक पुनर्वास में किया जाए। वहीं जिला स्तरीय बाल संरक्षण इकाइयों के लिए भी यह आवश्यक है कि वे स्वयंसेवी संगठनों के साथ मिलकर ऐसे परिवारों का पता लगाएं जो बड़ी मुश्किल स्थिति में हैं और बच्चों को असमय आजीविका से जोड़ने पर बाध्य हैं। ऐसे परिवारों को सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं से जोड़ने की पहल की जानी चाहिए। इसमें श्रम अधिकारियों की जवाबदेही भी अवश्य सुनिश्चित की जानी चाहिए, ताकि वे इस बात का ध्यान रखें कि किसी भी जगह बाल श्रमिकों से काम न लिया जा रहा हो।
(लेखक बाल अधिकार कार्यकर्ता हैं)