SC: अधिसूचित वन भूमि पर कब्जे और निवास का दावा सिर्फ आदिवासी समुदाय तक सीमित नहीं, सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला
कोर्ट ने कहा कि वन अधिनियम की धारा 4 के तहत अधिसूचित किसी भी भूमि पर कब्जा प्राप्त करने का अधिकार केवल आदिवासी समुदायों और अन्य वनवासी समुदायों तक ही सीमित नहीं है बल्कि ये अधिकार निवास मूल कब्जे की तारीख आदि के प्रमाण पर भी आधारित है। कोर्ट ने फैसले में कहा कि वन समुदायों में केवल मान्यता प्राप्त आदिवासी और अन्य पिछड़े समुदायों के लोग शामिल नहीं हैं।
By Jagran NewsEdited By: Shashank MishraUpdated: Thu, 06 Jul 2023 11:24 PM (IST)
नई दिल्ली, माला दीक्षित। अधिसूचित वन भूमि पर निवास और कब्जे के दावे के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि अधिसूचित वन भूमि पर कब्जे और निवास का दावा सिर्फ आदिवासी समुदाय या मान्यताप्राप्त वनवासी समुदायों (एससी-एसटी) अथवा पिछड़ों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि हर उस व्यक्ति को है जिसका दावा वैध है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला दूरगामी परिणामों वाला
सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में अपने ही 37 साल पुराने वनवासी सेवा आश्रम मामले में दिये फैसले को स्पष्ट करते हुए कहा है कि अगर उस फैसले की संकीर्ण व्याख्या कर लाभ को कुछ निश्चित मान्यता प्राप्त वन समुदायों तक सीमित किया जाता है तो इससे कई अन्य समुदायों को बहुत अधिक नुकसान होगा।
कोर्ट ने कहा है कि इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि वनवासी मामले में दिया गया फैसला केवल सक्षम प्राधिकारी द्वारा सुनवाई का अधिकार देता है और अगर ऐसा प्राधिकारी किसी दावे को खारिज कर देता है तो वह दावा उस जमीन के लिए अस्तित्व में नहीं रहता।
कोर्ट ने कहा कि वन अधिनियम की धारा 4 के तहत अधिसूचित किसी भी भूमि पर कब्जा प्राप्त करने का अधिकार केवल आदिवासी समुदायों और अन्य वनवासी समुदायों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि ये अधिकार निवास, मूल कब्जे की तारीख आदि के प्रमाण पर भी आधारित है। अगर उस भूमि पर निवास का अधिकार केवल कुछ समुदायों तक ही सीमित नहीं है, तो फिर दावों पर सुनवाई का अधिकार सीमित कैसे हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला दूरगामी परिणामों वाला है।
न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने पांच जुलाई को उत्तर प्रदेश में सोनभद्र में अधिसूचित वन भूमि पर कब्जे और दावे से संबंधी हरि प्रकाश शुक्ला की याचिका स्वीकार करते हुए यह फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट का 4 फरवरी 2013 का आदेश रद कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार की सभी दलीलें खारिज कर दीं।
कोर्ट ने फैसले में कहा है कि यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि वन समुदायों में केवल मान्यता प्राप्त आदिवासी और अन्य पिछड़े समुदायों के लोग शामिल नहीं हैं, बल्कि उस भूमि पर रहने वाले अन्य समूह भी शामिल हैं। ये अन्य समूह, जिन्हें विभिन्न सामाजिक - राजनैतिक एवं आर्थिक कारणों से कानून के तहत वनवासी समुदाय के रूप में मान्यता नहीं मिली, भी उस वनवासी समुदाय का अभिन्न अंग हैं और उस वन समुदाय और उनके कामकाज के लिए आवश्यक हैं।
कोर्ट ने कहा कि इसके अलावा और भी कई उदाहरण हो सकते हैं कि लोगों के पूर्वज वनवासी रहे हों हालांकि दस्तावेजों की कमी के कारण वे इसे साबित करने में सक्षम न हों। पीठ ने कहा कि वह इस तथ्य से अवगत हैं कि अपीलकर्ता पिछड़े समुदाय से नहीं हैं और न ही वे ऐसा होने का दावा करते हैं।