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हत्या मामले में कांस्टेबल की आजीवन कारावास की सजा बरकरार, साल 2002 का है मामला; SC ने कहा- यह हत्या के अलावा और कुछ नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस स्टेशन में पत्नी के साथी की हत्या के लिए कांस्टेबल की आजीवन कारावास की सजा बरकरार रखा है। वहीं कोर्ट ने कहा कि इस वारदात में इस्तेमाल किए गए हथियार की प्रकृति मृतक पर चलाई गई गोलियों की संख्या से ये साफ हत्या का मामला है। शीर्ष अदालत ने निचली अदालत और दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसलों में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।

By Jagran News Edited By: Versha Singh Updated: Thu, 04 Jul 2024 08:50 AM (IST)
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2002 के हत्या मामले में कांस्टेबल की सजा SC ने रखी बरकरार (फाइल फोटो)

पीटीआई, नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को एक कांस्टेबल की दोषसिद्धि और आजीवन कारावास को बरकरार रखा है। दरअसल, मामला दो दशक पहले का है। एक कांस्टेबल ने पुलिस थाने के अंदर अपने साले की अपनी सर्विस बंदूक से गोली मारकर हत्या कर दी थी, क्योंकि वह पीड़ित के अपनी पत्नी के साथ कथित अवैध संबंधों से नाराज था।

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल की पीठ ने दोषी सुरेन्द्र सिंह की इस दलील को खारिज कर दिया कि पीड़ित उसे मारने आया था और अपराध आत्मरक्षा में किया गया था, इसलिए इसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत हत्या नहीं कहा जा सकता।

यह मामला हत्या के अलावा और कुछ नहीं है- SC

न्यायमूर्ति धूलिया ने 23 पन्नों के फैसले में कहा, हर संभव आधार पर यह मामला हत्या के अलावा कुछ नहीं है। इस्तेमाल किए गए हथियार की प्रकृति, मृतक पर चलाई गई गोलियों की संख्या, शरीर का वह हिस्सा जहां गोलियां चलाई गईं - ये सभी इस बात की ओर इशारा करते हैं कि अपीलकर्ता मृतक को मारने के लिए दृढ़ था। आखिरकार, उसने अपना काम पूरा किया और यह सुनिश्चित किया कि मृतक मर चुका है।

शीर्ष अदालत ने निचली अदालत और दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसलों में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया और दोषी को जमानत देने के अंतरिम आदेश को रद्द कर दिया। न्यायालय ने कहा, मामले के तथ्यों से पता चलता है कि वर्तमान मामला दिल्ली के एक पुलिस थाने के अंदर की गई निर्मम हत्या का है।

कांस्टेबल को भुगतनी होगी बची हुई सजा

फैसले में कहा गया, तदनुसार, यह अपील खारिज की जाती है। अपीलकर्ता को जमानत देने वाला 2 अप्रैल, 2012 का अंतरिम आदेश निरस्त माना जाता है और अपीलकर्ता को आज से चार सप्ताह के अंदर ट्रायल कोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया जाता है। इस फैसले की एक प्रति ट्रायल कोर्ट को भेजी जाएगी ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि अपीलकर्ता आत्मसमर्पण कर दे और अपनी बची हुई सजा भुगते।

2002 में मयूर विहार पुलिस स्टेशन में हुई थी घटना

अभियोजन पक्ष ने अदालत को बताया कि पीड़ित की शादी दोषी के चचेरे भाई से हुई थी और वह उसका पड़ोसी भी था। अभियोजन पक्ष के अनुसार, पीड़ित के दोषी की पत्नी के साथ अवैध संबंध थे और 30 जून, 2002 को वह मयूर विहार पुलिस स्टेशन गया था, जहां दोषी तैनात था।

पीड़ित और दोषी को आखिरी बार पुलिस स्टेशन के अंदर एक-दूसरे से बातचीत करते हुए देखा गया था, कुछ ही मिनटों पहले गवाहों - अन्य पुलिसकर्मियों - ने दोषी को अपनी सरकारी 9-एमएम कार्बाइन से पीड़ित की हत्या करते देखा था।

अदालत ने दोषी की दलील की खारिज

दोषी ने तर्क दिया कि उसने आत्मरक्षा में अपराध किया था और वैकल्पिक रूप से, यदि आत्मरक्षा को न्यायालय द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता है, तो यह अधिक से अधिक गंभीर और अचानक उकसावे का मामला था, जिसके कारण अपीलकर्ता के हाथों पीड़ित की मृत्यु हो गई।

दोषी ने कहा, यदि ऐसा है भी तो अपीलकर्ता को केवल गैर इरादतन हत्या के लिए ही दंडित किया जा सकता है, लेकिन अदालत ने उसकी दलील खारिज कर दी।

इन सभी साक्ष्यों को एक साथ मिलाकर देखा जाए तो वे बेबुनियाद हैं। अभियोजन पक्ष का मामला इन साक्ष्यों के आधार पर सुरक्षित है। यह हत्या का स्पष्ट मामला है। अपीलकर्ता का उद्देश्य (बेशक, मृतक का अपीलकर्ता की पत्नी के साथ संबंध था) और पुलिस स्टेशन में अपराध को अंजाम देना - ये सभी वर्तमान अपीलकर्ता द्वारा पुलिस स्टेशन के अंदर की गई हत्या की ओर इशारा करते हैं।

अदालत ने कहा, प्रवेश बिंदु पर एक बन्दूक की चोट भी बताती है कि मृतक को पहले नजदीक से गोली मारी गई थी। शेष चोटें भी ऊपर उल्लिखित प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही से मेल खाती हैं।

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