Sedition Law कम से कम पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के समक्ष लगेगा मामला। संविधान पीठ देखेगी कि राजद्रोह कानून को सही ठहराने वाले 1962 में दिए गए केदारनाथ फैसले पर पुर्नविचार की जरूरत है कि नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की केंद्र सरकार की संसदीय समिति के समक्ष नये कानून के लंबित होने के आधार पर सुनवाई टालने की मांग।
By Jagran NewsEdited By: Shashank MishraUpdated: Tue, 12 Sep 2023 10:46 PM (IST)
नई दिल्ली, जागरण ब्यूरो। सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून (आइपीसी 124ए) की वैधानिकता का मामला विचार के लिए संविधान पीठ को भेज दिया है। कम से कम पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ मामले पर विचार करेगी और देखेगी कि राजद्रोह कानून को सही ठहराने वाले 1962 के फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत है कि नहीं।
सात न्यायाधीशों की पीठ को भी भेजा जा सकता मामला
सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1962 में केदारनाथ केस में आइपीसी की धारा 124ए को संविधान सम्मत ठहराया था। मंगलवार को की तीन सदस्यीय पीठ ने मामला बड़ी पीठ को भेजते हुए कहा कि अगर पांच सदस्यीय संविधान पीठ मानती है कि केदारनाथ फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत है तो मामले को उसके बाद विचार के लिए सात न्यायाधीशों की पीठ को भी भेजा जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने आइपीसी की जगह नये प्रस्तावित कानून के विधेयक संसदीय समिति के समक्ष विचाराधीन होने को देखते हुए सुनवाई कुछ दिनों के लिए टालने की केंद्र सरकार की मांग ठुकरा दी। केंद्र सरकार ने पिछले संसद सत्र में ही आइपीसी, सीआरपीसी, और भारतीय साक्ष्य कानून की जगह तीन नये कानून प्रस्तावित करने के विधेयक संसद में पेश किये थे और उन विधेयकों को ज्यादा विचार के लिए फिलहाल संसदीय समिति को भेजा गया है।
तीन साल और उम्रकैद की भी हो सकती है सजा
प्रस्तावित कानूनों में
आइपीसी की जगह भारतीय न्याय संहिता, सीआरपीसी की जगह भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह भारतीय साक्ष्य संहिता प्रस्तावित की गई है। नये प्रस्तावित कानून में राजद्रोह को खत्म करके देशद्रोह कर दिया गया है और सात साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा का प्रविधान किया गया है। जबकि अभी आइपीसी की धारा 124ए राजद्रोह में तीन साल और उम्रकैद तक की जेल का प्रविधान है।
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सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं लंबित हैं जिनमें राजद्रोह कानून (आइपीसी धारा 124ए) के दुरुपयोग का आरोप लगाते हुए अंग्रेजों के जमाने के इस कानून को रद करने की मांग की गई है। मंगलवार को मामला प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जेबी पार्डीवाला और मनोज मिश्रा की तीन सदस्यीय पीठ के समक्ष सुनवाई पर लगा था।
पीठ ने सुनवाई की शुरुआत में ही कहा कि इस मामले को बड़ी पीठ को विचार के लिए भेजने की जरूरत होगी क्योंकि केदारनाथ सिंह बनाम
बिहारराज्य के मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ इस कानून को सही ठहरा चुकी है। उस बड़ी पीठ का फैसला इस छोटी पीठ पर बाध्यकारी है। ऐसे में इस छोटी पीठ का उस फैसले पर संदेह करना उचित नहीं होगा।
केंद्र सरकार ने नया कानून किया है प्रस्तावित
कानून को चुनौती देने वाले एक याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने मामले को पांच न्यायाधीशों या उससे बड़ी सात जजों की संविधानपीठ को भेजे जाने का समर्थन किया। एक अन्य याचिकाकर्ता के वकील अर¨वद दत्तार ने भी मामले को बड़ी संविधान पीठ को भेजने की मांग की।हालांकि केंद्र सरकार की ओर से पेश अटार्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने कहा कि केंद्र सरकार ने नया कानून प्रस्तावित किया है अभी वह संसदीय समिति के समक्ष विचाराधीन है। ऐसे में कुछ इंतजार किया जाना चाहिए। चीफ जस्टिस ने पूछा कि नया कानून क्या है।
जिस पर अटार्नी जनरल का जवाब था कि उसमें कुछ बदलाव है। इस पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि अगर मान लो नया कानून लागू भी हो जाता है तो भी पुराने केस जो 124ए के हैं वो चलेंगे क्योंकि अवधारणा यही है कि नया कानून पूर्व प्रभाव से लागू नहीं होगा। नया कानून लागू होने की तिथि से ही आगे लागू होगा। ऐसे में इसे तो तय करना होगा। नया कानून इस प्रविधान की वैधता पर निर्णय की जरूरत को खत्म नहीं करेगा।
अटार्नी जनरल ने कहा कि संसदीय समिति इस सब पर भी विचार करेगी और वे इस बारे में भी कोर्ट को बताएंगे कि पुराने मामलों का क्या होगा। तभी सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि वह अटार्नी जनरल की बात का समर्थन कर रहे हैं कि मामला संसदीय समिति के समक्ष विचाराधीन होने तक कोर्ट सुनवाई स्थगित कर दे।
मेहता ने कहा कि हमें पहले से कोई अवधारणा नहीं बना लेनी चाहिए। सरकार को थोड़ा सा समय दिया जाए। कपिल सिब्बल ने नये कानून पर टिप्पणी करते हुए कहा कि प्रस्तावित नया कानून और भी ज्यादा कठोर है। चीफ जस्टिस ने कहा कि संसद को बहुत अधिकार हैं। संसद यह कह सकती है कि नया कानून लागू होने के बाद पुराना लागू नहीं होगा।
प्रधान न्यायाधीश के समक्ष पेश करने का आदेश
संसद यह भी कह सकती है कि पुराने कानून में चल रहे सारे मुकदमे खत्म हो जाएंगें, लेकिन ऐसा होने तक तो 124ए को दी गई चुनौती बरकरार रहेगी। मेहता ने फिर कहा थोड़ा इंतजार कर लिया जाना चाहिए। लेकिन कपिल सिब्बल ने मामला संविधान पीठ को भेजने की मांग जारी रखते हुए कहा कि कोर्ट को 124ए की परिभाषा देखनी चाहिए जिसमें सरकार शब्द का प्रयोग किया गया है।
जबकि अनुच्छेद 19 (1)(ए) में स्टेट शब्द का प्रयोग किया गया है। सरकार और स्टेट को एक नहीं माना जा सकता। ये अंग्रेजों के जमाने का कानून है। पीठ ने सभी पक्षों को सुनने के बाद याचिकाओं को कम से कम पांच न्यायाधीशों के समक्ष सुनवाई पर लगाने के लिए प्रधान न्यायाधीश के समक्ष पेश करने का आदेश दिया।कोर्ट ने आदेश में यह भी दर्ज किया कि जब 1962 में पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने धारा 124 ए को वैध ठहराया था उस वक्त सिर्फ सीमित तौर पर अनुच्छेद 19(1)(ए) के लिहाज से ही विचार किया गया था। उस समय मामले पर संविधान के अनुच्छेद 14 समानता का अधिकार के नजरिये से विचार नहीं किया गया था।
वर्ष 1973 में राजद्रोह को बनाया गया था संज्ञेय अपराध
सुनवाई के दौरान कपिल सिब्बल ने कहा कि शुरुआत में राजद्रोह का कानून संज्ञेय अपराध नहीं था। 1973 में इसे संज्ञेय अपराध बनाया गया जिसके बाद इसमें गिरफ्तारी होने लगी। उनकी दलील पर चीफ जस्टिस ने कहा कि कानून को संज्ञेय हमने बाद में बनाया।सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुनवाई टालने की मांग जारी रखते हुए कहा कि पहले की सरकारें इसे रद नहीं कर सकीं उन्होंने मौका गवां दिया लेकिन अब नया कानून आ रहा है। लेकिन कोर्ट ने सुनवाई टालने की मांग नहीं मानी।
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