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सुप्रीम कोर्ट में उठी संविधान से समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्द हटाने की मांग, पढ़ें SC ने क्या दिया जवाब

Supreme Court सुप्रीम कोर्ट में सोमवार को मांग उठी की संविधान की प्रस्तावना में संशोधन से शामिल किए गए समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्द हटा दिए जाएं। भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी अश्वनी उपाध्याय और बलराम सिंह ने इस संबंध में याचिकाएं दाखिल की हैं। कोर्ट ने इस मामले पर अहम टिप्पणी की है। पढ़ें सुनवाई में कोर्ट ने क्या-क्या कहा।

By Jagran News Edited By: Sachin Pandey Updated: Mon, 21 Oct 2024 11:04 PM (IST)
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कोर्ट में हिंदुत्व की जगह भारतीय संविधानित्व शब्द जोड़ने की मांग भी की गई। (File Image)

जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी (सोशलिस्ट)और पंथनिरपेक्ष (सेक्यूलर) शब्द जोड़े जाने को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान कहा कि पंथनिरपेक्षता को हमेशा से संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना गया है और सुप्रीम कोर्ट के बहुत से फैसलों में ऐसा कहा जा चुका है।

शीर्ष अदालत ने कहा कि समाजवाद का मतलब अवसर की समानता और देश की संपत्ति का बराबर बंटवारा भी हो सकता है। हालांकि, कोर्ट ने अभी तक इस मामले में औपचारिक नोटिस जारी नहीं किया है। कोर्ट मामले में 18 नवंबर को फिर सुनवाई करेगा।

'डॉ आंबेडकर भी थे खिलाफ'

जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस पीवी संजय कुमार की पीठ ने ये टिप्पणियां तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 42वें संविधान संशोधन के जरिये 1976 में संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए शब्द पंथनिरपेक्षता और समाजवादी शब्दों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान कीं। भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी, अश्वनी उपाध्याय और बलराम सिंह ने इस संबंध में याचिकाएं दाखिल की हैं।

सोमवार को बलराम सिंह की ओर से बहस करते हुए वकील विष्णु शंकर जैन ने प्रस्तावना में संशोधन कर पंथ निरपेक्षता और समाजवादी शब्द जोड़ने का विरोध करते हुए कहा कि डॉ. भीम राव आंबेडकर प्रस्तावना में समाजवादी शब्द जोड़ने के पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि इससे निजी स्वतंत्रता में कटौती होगी। उन्होंने यह भी कहा कि संविधान की प्रस्तावना में संशोधन नहीं किया जा सकता है।

पंथनिरपेक्षता संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा: कोर्ट

जैन की दलीलों पर जस्टिस खन्ना ने कहा कि समाजवाद के विभिन्न अर्थ हो सकते हैं। इसे उस अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए जैसी पश्चिम में अवधारणा है। उन्होंने कहा कि यदि कोई समानता के अधिकार और संविधान में प्रयुक्त किए गए शब्द बंधुत्व के साथ-साथ संविधान के तीसरे भाग को देखे तो स्पष्ट संकेत मिलता है कि पंथनिरपेक्षता को संविधान की मूल विशेषता माना गया है। इस अदालत ने अपने कई फैसलों में पंथनिरपेक्षता को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना है।

जस्टिस खन्ना ने कहा कि आप नहीं चाहते कि भारत पंथनिरपेक्ष बने। जैन ने कहा कि वह इसके विरुद्ध नहीं हैं, उनकी चुनौती इस संविधान संशोधन को लेकर है। अश्वनी उपाध्याय ने याचिका पर स्वयं बहस करते हुए कहा कि यह संशोधन जब हुआ था, उस समय देश में आपातकाल लागू था। सुब्रमण्मय स्वामी ने प्रस्तावना में किए गए संशोधन को पूर्व तिथि से लागू करने पर आपत्ति व्यक्त की। जैन ने याचिकाओं पर नोटिस जारी कर विस्तृत सुनवाई की मांग की, लेकिन कोर्ट ने फिलहाल नोटिस जारी नहीं किया।

(Justice Sanjeev Khanna File Image)

हिंदुत्व की जगह भारतीय संविधानित्व की मांग खारिज

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को उस जनहित याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया, जिसमें हिंदुत्व की जगह भारतीय संविधानित्व शब्द जोड़ने की मांग की गई थी। प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पार्डीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने दिल्ली के विकासपुरी निवासी एसएन कुंद्रा द्वारा दायर याचिका को खारिज करते हुए कहा, 'यह प्रक्रिया का पूर्ण दुरुपयोग है।' प्रधान न्यायाधीश ने कहा, 'नहीं, हम इस पर सुनवाई नहीं करेंगे।'

पारिवारिक न्यायालयों में हाइब्रिड सुनवाई शुरू करने की मांग

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को देशभर के पारिवारिक न्यायालयों में हाइब्रिड सुनवाई शुरू करने की मांग वाली एक जनहित याचिका (पीआईएल) पर नोटिस जारी किया। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने जांच करने पर सहमति जताई और केंद्र, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से जवाब मांगा। बेंच ने आदेश दिया, 'नोटिस जारी करें, छह सप्ताह में जवाब दें।' बेंच में जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और मनोज मिश्रा भी शामिल थे।

अधिवक्ता केसी जैन द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि पारिवारिक विवादों का शीघ्र समाधान करने के उद्देश्य से पारिवारिक न्यायालय अधिनियम बनाया गया था, फिर भी देश भर की पारिवारिक अदालतों में 11 लाख से अधिक मामले लंबित हैं। जनहित याचिका में कहा गया कि मामलों के निपटारे में होने वाली देरी, विशेष रूप से भरण-पोषण, बच्चों की हिरासत, मुलाकात के अधिकार, वैवाहिक अधिकारों की बहाली और तलाक के मामलों में, वादियों, विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों पर भावनात्मक और वित्तीय दबाव बढ़ा रही है।