देश में व्यावसायिक और तकनीकी विषयों में उच्च शिक्षा में निजी संस्थानों का वर्चस्व, एक्सपर्ट व्यू
दिन-प्रतिदिन महंगी होने के कारण व्यावसायिक विषयों में उच्च शिक्षा की पहुंच विशेष वर्ग के छात्रों तक ही सिमटती जा रही है। ग्रामीण और विपन्न आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले बहुत कम छात्र ही इस क्षेत्र में आगे बढ़ पाते हैं।
By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Thu, 20 Oct 2022 02:01 PM (IST)
डा. विकास सिंह। मानव समाज को आगे बढ़ाने में शिक्षा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसे एक सार्थक खोज के रूप में देखा जाता है और यह सामाजिक गतिशीलता का मार्ग प्रशस्त करता है। लिहाजा विकसित अर्थव्यवस्था के रूप में उभरने की हमारी आकांक्षा उच्च शिक्षा में निवेश में दिखनी चाहिए, परंतु ऐसा हो नहीं रहा है। शैक्षिक उपलब्धि सामाजिक विकास को गति प्रदान करती है, समावेशी सूचकांक को मजबूत करती है। एक स्नातक व्यक्ति के पास ‘नियमित नौकरी’ की व्यापक संभावनाएं होती हैं और हमारे देश में वह कुल औसत वेतन से लगभग 1.9 गुना अधिक कमाता है।
गरीबों और कम साधन संपन्न लोगों के लिए यह आजीविका के अवसर का एकमात्र तरीका है। हालांकि बढ़ती लागत, अवसर की असमानता, नौकरियों की तैयारी और संबंधित अनिश्चितता जैसे कारक उच्च शिक्षा के मूल्य को कम करते हैं। मध्यम आय वाले अधिकांश परिवार शैक्षणिक संस्थानों के लिए अपने मानदंड बदलने लगे हैं। उनके लिए साख से ज्यादा खर्च और गुणवत्ता से ज्यादा सामर्थ्य मायने रखता है। उच्च शिक्षा में खर्च पिछले 10 वर्षों में तेजी से बढ़ा है, परिणामस्वरूप सामाजिक आर्थिक खाई चौड़ी हो रही है। निम्न आय वाले परिवारों के युवाओं को उच्च शिक्षा प्रणाली से ‘निर्वासन’ की ओर ले जाने वाले अधिकांश कामकाजी परिवारों के लिए यह असहनीय है।
निवेश की तुलना में प्राप्ति
सरकारी संस्थान में इंजीनियरिंग ‘डिग्री’ के लिए निवेश लगभग तीन लाख रुपये है। देशभर में प्रत्येक वर्ष इंजीनियरिंग करने वालों के आंकड़ों पर गौर करें तो लगभग 10 लाख छात्र निजी गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों को कई गुणा अधिक रकम का भुगतान करते हैं। उदाहरण के तौर पर, एक इंजीनियर किसी शीर्ष चार निजी संस्थान से स्नातक होने के लिए 20 लाख रुपये का भुगतान करता है। इसमें से भाग्यशाली 50 प्रतिशत को शीर्ष संगठन द्वारा ‘नियोजित’ किए जाने का अवसर प्राप्त होता है और फिर वह उच्च शिक्षा में स्वयं के निवेश को अच्छी तरह से ‘अर्जित’ करने में सक्षम होता है। यानी कहा जा सकता है कि इतने लोगों का प्रयास ही फलीभूत हो पाता है।
निचले पायदान के चार कालेजों के छात्र लगभग नौ लाख रुपये का भुगतान करते हैं, लेकिन किसी बैच विशेष के चार छात्रों में से केवल एक छात्र ही ‘नियमित नौकरी’ प्राप्त कर सकेगा। इस संदर्भ में यह जानना चाहिए कि ‘पेबैक’ अवधि यानी निवेश को ‘वापस’ पाने में लगने वाला समय पांच वर्ष होता है। एक तिहाई छात्र असंगठित क्षेत्र में काम करेंगे, जिसमें नौकरी की सुरक्षा नहीं होगी, कोई लाभ नहीं होगा और विडंबना यह कि देश की प्रति व्यक्ति आय की तुलना में उनकी आय कम होगी। इंजीनियरिंग शिक्षा के क्षेत्र में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के लिए भी स्थिति बेहतर नहीं है।
शैक्षिक असमानता
एक संबंधित अध्ययन के माध्यम से प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय आंकड़े को दर्शाने का प्रयास किया गया है। यह आर्थिक स्थिति (खर्च) और शैक्षिक प्राप्ति के बीच एक मजबूत संबंध पर प्रकाश डालता है। अध्ययन आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण आंकड़ा (2017-18) पर निर्भर था और इसे वर्तमान में समायोजित किया गया है। हमारे देश में 50 प्रतिशत से अधिक कार्यरत लोग और स्वरोजगार में जुटे लगभग 60 प्रतिशत लोगों समेत लगभग सभी सामयिक श्रमिक 14 हजार रुपये प्रति माह से कम कमाते हैं। लगभग 80 प्रतिशत भारतीय श्रमिकों की आमदनी देश में प्रति व्यक्ति आय से कम होती है। इन परिस्थितियों के बीच यदि ऐसे परिवार उच्च शिक्षा की बढ़ती लागत को वहन करते हैं तो निश्चित रूप से यह उनके द्वारा किया जाने वाला ‘त्याग’ कहा जा सकता है, जिस प्रक्रिया में संभवत: उस परिवार के लोग अपनी अनेक आवश्यकताओं को पूरा करने से वंचित होना पड़ता होगा।
इस मामले में चिंताजनक स्थिति यह है कि अधिकांश परिवार अपनी बचत को क्यों खत्म करते हैं या व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के भुगतान के लिए अपनी संपत्ति तक क्यों गिरवी रखते हैं? इस संबंध में किया गया एक अध्ययन परेशान करने वाली प्रवृत्ति को रेखांकित करता है। अध्ययन में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि शिक्षा खर्च एक ऐसा बोझ है जिसे अधिकांश भारतीय नहीं उठा सकते हैं। अध्ययन बताता है कि मध्यम और निम्न-आय वाले आधे से अधिक परिवार अपने बच्चों को ‘शिक्षित’ करने के लिए ऋण लेते हैं। उनकी उम्र के अंतिम चरण में बढ़ता ऋण बोझ गतिशीलता की उनकी क्षमता को पंगु बना देता है।