संविधान सम्मत है दुर्बल आर्थिक वर्ग को आरक्षण, मजबूत होगा देश का सामाजिक ढांचा; एक्सपर्ट व्यू
सामान्य वर्ग के गरीब व्यक्ति को सरकारी नौकरी एवं उच्च शिक्षण संस्थान में 10 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने लाखों ऐसी प्रतिभाओं को नेपथ्य में खो जाने से बचाने का कार्य किया है जिनकी प्रतिभा गरीबी के कारण दम तोड़ देती थी।
By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Thu, 10 Nov 2022 10:26 AM (IST)
सन्नी कुमार। सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने 3-2 के बहुमत से यह निर्णय दिया है कि 103वां संविधान संशोधन संविधान सम्मत है। इसका अर्थ है कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग यानी ईडब्ल्यूएस को मिलने वाला 10 प्रतिशत आरक्षण कायम रहेगा। इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्यतः तीन बिंदुओं पर मत स्पष्ट किया। कोर्ट ने आरक्षण को सकारात्मक कार्यवाही का उपकरण बताते हुए कहा कि आर्थिक रूप से पिछड़ों को आरक्षण देना संविधान के विरुद्ध नहीं है।
राज्य को अधिकार है कि वह समावेशी नीति बनाए। केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करता है, क्योंकि ईडब्ल्यूएस एक जायज वर्गीकरण का उदाहरण है। इसमें अंतिम बिंदु को देखें तो बहुमत वाले निर्णय ने 50 प्रतिशत की आरक्षण सीमा को पार करने को भी संवैधानिक माना, क्योंकि यह कोई अनम्य सीमा नहीं है। इन्हीं तीन बिंदुओं को केंद्र में रखकर कहा जा रहा था कि आर्थिक रूप से पिछड़ों को आरक्षण देना संविधान के विरुद्ध है।
देखते हैं कि कैसे यह दावा गलत था और क्यों सर्वोच्च न्यायालय ने इस आरक्षण को कायम रखा। यह बात बार-बार दोहराई जाती है कि संविधान आरक्षण के लिए केवल सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को ही आधार बनाता है, इसलिए आर्थिक आधार पर आरक्षण गलत है। यह एक ‘अर्धसत्य’ है जिसका चतुराई पूर्वक इस्तेमाल किया जाता है। मूल संविधान में कहीं भी ‘सामाजिक व शैक्षिक’ पिछड़ेपन को आरक्षण का आधार नहीं बनाया गया है। इसलिए यह कहना कि सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के अलावा किसी अन्य आधार को स्वीकार करना मूल संविधान की भावना के विरुद्ध है, गलत है।
वस्तुतः ‘सामाजिक व शैक्षिक’ पद प्रथम संविधान संशोधन के माध्यम से जोड़ा गया है तथा अनुच्छेद 16 (4) भी केवल ‘पिछड़े हुए नागरिकों’ शब्दावली का उपयोग करता है। अर्थात यह दायित्व राज्य का है कि वह पिछड़ेपन का निर्धारण करे। और अगर समय के साथ हुए परिवर्तनों और उससे उपजी असमानता को राज्य चिह्नित करता है तो यह उचित ही है। अतः 103वें संशोधन द्वारा आर्थिक पिछड़ेपन को आरक्षण का आधार मानना संवैधानिक रूप से गलत नहीं माना जा सकता है। फिर संविधान का ही अनुच्छेद-46 राज्य को यह अधिकार देता है कि वह ‘जनता के दुर्बल वर्गों’ के हित में विशेष उपबंध करे। वर्तमान संशोधन इस प्रविधान से सुसंगति रखता है। इसके अतिरिक्त, जहां तक पिछड़े वर्ग की पहचान की बात है तो समय-समय पर इसका विस्तार होता रहा है।
वर्ष 1990 के पूर्व वह समूह जो बाद में ‘ओबीसी’ के रूप में संगठित किया गया, आरक्षण के दायरे में नहीं था। और भले ही इसे जाति के आधार पर समूहीकृत किया गया हो, किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने ‘आर्थिक कारक’ को भी स्वीकार करते हुए ‘क्रीमीलेयर’ की अवधारणा दी। अर्थात एक ही जाति समूह का कोई हिस्सा अपनी जातिगत पहचान को धारण करने के बावजूद केवल इसलिए आरक्षण के दायरे से बाहर या अंदर रहेगा, क्योंकि उसकी ‘आर्थिक हैसियत’ भिन्न है। अर्थात इंद्रा साहनी केस की उपरोक्त व्याख्या प्रकारांतर से ‘आर्थिक पिछड़ेपन’ को आरक्षण के आधार के रूप में स्वीकार करना ही है।
यहां तक कि इंद्रा साहनी के मामले में ही यह भी कहा गया कि यदि किसी समूह का आर्थिक पिछड़ेपन के कारण पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो राज्य उसके लिए प्रविधान कर सकता है। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय ने आर्थिक रूप से पिछड़ों की पहचान को जायज वर्गीकरण कहा है। वर्तमान में सामाजिक गतिशीलता बढ़ी है तथा जाति व्यवस्था की कठोरता कम हुई है। उदाहरण के लिए, एक तरफ ओबीसी में ऐसी कई जातियां हैं जो कथित अगड़ी जातियों से बेहतर स्थिति में हैं, परंतु आरक्षण पा रही हैं। इसी प्रकार दक्षिण भारत में रेड्डी, लिंगायत, वोक्कालिगा इत्यादि ऐसी अनेक जातियां हैं जो सामाजिक स्तरीकरण में कथित सवर्णों के समकक्ष स्थापित हो गई हैं, किंतु आरक्षण के दायरे में हैं। फिर जाति को वर्ग के समतुल्य मान लेने से उस समुदाय में ही शहरी-ग्रामीण, पुरुष-महिला, भूस्वामी-भूमिहीन का अंतर गौण मान लिया जाता है, जो आरक्षण के मर्म को कमजोर करता है।
एक ही आरक्षण श्रेणी में शामिल जातियों की स्थिति भी एक जैसी नहीं है, किंतु उन्हें एकसमान आरक्षण प्रदान किया जा रहा है। फिर आरक्षण की अधिकतम सीमा के संदर्भ में एक तो यह कि मूल संविधान में कहीं भी इसकी अधिकतम सीमा का जिक्र नहीं है। समय समय पर संसद और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय द्वारा ही यह तय होता रहा है। इसलिए ही कोर्ट ने कहा कि यह सीमा अनम्य नहीं है। बीते समय में सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्वीकार किया है कि भारत की विविधता देखते हुए विशेष अवसरों पर इस सीमा को बढ़ाया जा सकता है और ऐसा कई राज्यों द्वारा किया भी गया, जैसे तमिलनाडु में 69 प्रतिशत के लगभग आरक्षण लागू है। अतः 50 प्रतिशत की सीमा का अतिक्रमण न तो पहली बार है और न ही असंवैधानिक। आर्थिक रूप से पिछड़ेपन को आधार बनाकर ही स्कूलों में कुछ सीटें इन वर्गों के लिए निश्चित की जा रही हैं, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी आपत्ति नहीं जताई है। अंत में यह कि वर्तमान युग में आर्थिक हैसियत किसी व्यक्ति की शिक्षा व रोजगार पर प्रभावी ढंग से असर डाल रही है। अतः जब शैक्षिक पिछड़ेपन के ‘प्रभाव’ के लिए आर्थिक पिछड़ापन ‘कारण’ है तो स्वाभाविक है कि ‘कारण’ को बुनियाद मानकर निर्णय लिये जाएं। ऐसे में ईडब्लूएस आरक्षण संवैधानिक होने के साथ-साथ उचित भी है।[अध्येता, इतिहास]