EWS Reservations: क्या अनुसूचित जाति और जनजाति के क्रीमीलेयर तबके को आरक्षण से बाहर कर देना चाहिए?
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ आर्थिक रूप से दुर्बल वर्ग (ईडब्ल्यूएस) को नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थाओं में 10 प्रतिशत आरक्षण देने के मामले की संवैधानिक वैधता से संबंधित मुद्दों पर विचार कर रही है।
By JagranEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Thu, 29 Sep 2022 09:30 AM (IST)
कैलाश बिश्नोई। आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने के मामले पर केंद्र सरकार ने इसकी सुनवाई के दौरान तर्क दिया है कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण आर्थिक न्याय की अवधारणा के अनुकूल है। इसके बाद न्यायालय ने आर्थिक आधार पर आरक्षण के प्रविधान को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई पूरी होने के बाद अपना निर्णय सुरक्षित रख लिया है। दो वर्ष पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण संबंधी एक मामले में अनुच्छेद-32 के तहत दायर याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है, बल्कि परंपरागत और ऐतिहासिक रूप से निरंतर अभावों में रह रहे वंचित वर्गों को उनके अधिकारों से सशक्त करने की एक नीति है।
ईडब्ल्यूएस श्रेणी में देश का एक बड़ा वर्ग शामिल
जाहिर है संविधान में भी सरकारी नीतियों का लाभ लक्षित समूह तक पहुंचाने के लिए आर्थिक उपाय किए जाने को प्रतिबंधित नहीं किया गया है। ऐसे में आर्थिक रूप से दुर्बल वर्गों को शिक्षा और नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन विधेयक सरकार का एक ऐसा ही साहसिक और जरूरी कदम था। इसमें संदेह नहीं कि सामाजिक रूप से उन्नत जातियों में भी गरीब हैं और उन्हें मदद की आवश्यकता है। ईडब्ल्यूएस श्रेणी में देश का एक बड़ा वर्ग शामिल है, जिसका उत्थान भी जरूरी है। इस श्रेणी के लिए आरक्षण का उद्देश्य उन करोड़ों लोगों का उत्थान करना है जो अभी भी गरीबी रेखा से नीचे हैं। अब तक आरक्षण को दलितों, आदिवासियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों का सशक्तीकरण कर उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने वाला एक ‘टूल’ माना जाता रहा है। लेकिन आरक्षण को कभी भी आर्थिक पिछड़ापन दूर करने का ‘टूल’ नहीं माना गया।
अब केंद्र सरकार ने इस दिशा में एक नई पहल की है तो यह कदम समाज के एक बड़े वर्ग की लंबे समय से चली आ रही मांग को पूरा करने वाला माना जा सकता है। भारत में आरक्षण का मुद्दा इस इस प्रश्न से जुड़ा हुआ है कि क्या आबादी के एक वर्ग विशेष को आरक्षण देने का आधार जाति या वर्ग होना चाहिए या नहीं? इस मूलभूत प्रश्न के संदर्भ में बहुत-से विश्लेषकों का विचार है कि आरक्षण के मानदंड के रूप में केवल आर्थिक पिछड़ेपन को ही आधार बनाया जाना चाहिए, जबकि कुछ राजनीतिक मामलों के जानकारों का विचार यह है कि इसमें सामाजिक पिछड़ेपन को भी शामिल किया जाना चाहिए।
भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रविधान
भारत में विभिन्न रिपोर्टों और अध्ययनों में यह बात समय-समय पर सामने आती रही है कि ऐसी अनेक जातियां-उपजातियां हैं, जिन तक आरक्षण का लाभ नहीं पहुंच पा रहा है। कुछ जातियां आरक्षण का लाभ लेने में आगे हैं और अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में पहुंच गई हैं, जबकि पिछड़े समाज में एक बड़ा तबका है, जो प्राथमिक शिक्षा से भी वंचित है। भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रविधान उन जातियों और समुदायों के लिए किया गया था, जो समाज में सुविधाओं से वंचित रहते आए हैं। लेकिन इस प्रविधान के पीछे उद्देश्य यह भी था कि जब वंचित जातियां और समुदाय आरक्षण का लाभ पाकर समाज की मुख्यधारा से जुड़ जाएंगे या उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो जाएगी तो धीरे-धीरे आरक्षण के प्रविधान को समाप्त कर दिया जाएगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना था, किंतु आरक्षण प्रदान करने के आधार का गलत फायदा उठाकर संकीर्ण सोच वाले राजनीतिक दलों ने इसे राजनीतिक हितों की पूर्ति का साधन बना लिया।
अब यह महसूस किया जाने लगा है कि आरक्षण सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का रामबाण इलाज नहीं है। अनुत्तरित प्रश्न : आज आलम यह है कि सामाजिक और आर्थिक रूप से संपन्न मानी जाने वाली जातियां मसलन आंध्र प्रदेश में कापू समुदाय, महाराष्ट्र में मराठा, हरियाणा में जाट और गुजरात में पटेल भी आरक्षण की मांग कर रहे हैं। ऐसे में आरक्षण से जुड़े हुए तमाम प्रश्नों पर एक स्वस्थ बहस जरूरी हो गई है। मसलन क्या आज यह नहीं देखा जाना चाहिए कि जो वर्ग आरक्षण के दायरे में हैं, वे उससे उचित रूप से लाभान्वित हो सके हैं या नहीं? निसंदेह यह भी देखे जाने की आवश्यकता है कि केवल पात्र लोगों को ही आरक्षण कैसे मिले? इस प्रश्न का उत्तर भी तलाशा जाना चाहिए कि क्या नौकरियों, स्कूलों और विश्वविद्यालयों में आरक्षण का प्रविधान सामजिक विभेद को बढ़ावा दे रहा है? क्या अनुसूचित जाति/ जनजाति के क्रीमीलेयर तबके को आरक्षण से बाहर कर देना चाहिए?
एक और विवाद का पक्ष भी उभरा है कि क्या सामान्य वर्ग और ओबीसी तबके के लिए आरक्षण की व्यवस्था में आर्थिक सीमा के संदर्भ में एक ही पैमाने को आधार बनाया जा सकता है! अगर ऐसा है तो आरक्षण का वर्ग अलग-अलग होने का औचित्य क्या है! क्या अनुसूचित जाति/ जनजाति के ही अभिजात वर्ग ने इसके लाभों पर एकाधिकार जमा लिया है? अब इस प्रश्न पर भी सरकार व संसद को सोचना होगा कि क्या आरक्षण का लाभ एक बार मिलना चाहिए या बार-बार व पीढ़ी-दर-पीढ़ी।
आरक्षण के बल पर जो उच्च पदों पर पहुंच गए, विधानसभाओं व संसद की सदनों तक में आ गए, क्या उनके बच्चों को भी आरक्षण मिलना चाहिए? मुद्दा यह भी है कि इतने बड़े आरक्षित वर्ग के लिए क्या हमारे पास पर्याप्त नौकरियां मौजूद हैं? यह स्पष्ट करना जरूरी है कि आरक्षण वंचित-शोषित व सामाजिक-शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के उत्थान का जरिया है, न कि सरकारी नौकरियां देने का माध्यम। दुर्भाग्य से उसे सरकारी नौकरी हासिल करने का उपाय मान लिया गया है।