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प्रकृति और विज्ञान की सीमा पर छिड़ी बहस, दूर हों जीएम सरसों से जुड़ी आशंकाएं; एक्सपर्ट व्यू

जीएम फसलों के लुभावने आंकड़ों के बावजूद हमें इसे खाद्य शृंखला में शामिल करने से पहले जरूरत विकल्प  और नियामकीय पहलुओं पर विचार करना होगा। बीज की आनुवंशिकी में बदलाव  का कोई भी प्रयास जैव विविधता मानवीय सेहत और भारतीय परिस्थितियों को  ध्यान में रखकर करना होगा।

By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Sat, 05 Nov 2022 02:48 PM (IST)
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तेजी से बढ़ रहा जीएम फसलों का रकबा। पीटीआई फोटो

अरविंद कुमार मिश्रा। देश में इन दिनों आनुवंशिक रूप से संशोधित (जेनेटिकली मोडिफाइड यानी जीएम) सरसों के जरिये प्रकृति और विज्ञान की सरहद पर बहस छिड़ी है। पर्यावरण मंत्रालय के अधीन आने वाली बायोटेक रेगुलेटर जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी (जीईएसी) ने देश में जीएम सरसों के बीज उत्पादन के लिए आवश्यक पर्यावरणीय स्वीकृति दे दी है। अब भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आइसीएआर) द्वारा तय मानकों के तहत धारा मस्टर्ड हाइब्रिड (डीएमएच-11) पर परीक्षण होंगे। इससे देश में जीएम सरसों की व्यावसायिक खेती का रास्ता खुलेगा। यदि ऐसा होता है तो डीएमएच-11 देश की पहली जीएम खाद्य फसल होगी। 2017 में जीएम सरसों की व्यावसायिक खेती की सिफारिश की गई थी, पर उस समय पर्यावरण मंत्रालय ने इस पर और शोध की जरूरत बताकर रोक लगा दी थी। हालांकि जीएम कपास तेल आज भी खुले बाजार में बिक रहा है। वह हमारी खाद्य शृंखला में शामिल हो चुका है। देश में बीटी कपास की खेती को 2002 में मंजूरी दी गई थी।

फसलों की इंजीनियरिंग

जीएम फसलों में पादप कोशिकाओं के डीएनए (जीनोम, माइक्रोकांड्रिया, क्लोरोप्लास्ट) में कुछ इस तरह बदलाव किए जाते हैं कि वे कुछ खास खरपतवारों और रोगों को लेकर प्रतिरोधी बन जाती हैं। इसका उद्देश्य परंपरागत बीज से अधिक उत्पादकता और पोषक तत्व हासिल करना है। जीएम फसलों के पैरोकारों का दावा है कि जीएम फसलों में उर्वरक और पानी का उपयोग कम होगा। यही नहीं आनुवंशिक इंजीनियरिंग से तैयार ये फसलें मौसम में आ रहे अप्रत्याशित बदलावों में भी अच्छी पैदावार देती हैं।

जेनेटिक मोडिफिकेशन के अलावा आनुवंशिक रूप पृथक दो प्रजातियों की उप प्रजातियों के बीच संकरण से भी नई किस्म तैयार की जाती है, लेकिन सरसों के मामले में यह संभव नहीं है। इसकी वजह इसका स्वयं परागण गुण है। यही वजह है कि भारतीय विज्ञानी द्वारा जीन में बदलाव कर सरसों की एक नई स्वदेशी प्रजाति विकसित की गई है। संकरण के लिए परागण की प्रक्रिया में एक जीन स्थापित किया गया है। कृषि विज्ञानियों का दावा है कि इसकी पहचान तय करने के लिए खरपतवार प्रतिरोधी जीन डाला गया है, लेकिन इसको लेकर सेफ्टी परीक्षण हुए हैं या नहीं और उनका स्तर क्या है, इस पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं?

तेजी से बढ़ रहा जीएम फसलों का रकबा

जीएम फसलों की बोआई 1994 में सबसे पहले अमेरिका में हुई थी। टमाटर की एक प्रजाति (फ्लेवर सेवर) के रूप में इसका विकास किया गया था। टमाटर की इस प्रजाति को लेकर दावा किया गया था कि यह पकने में अधिक समय लेने के साथ जल्द खराब नहीं होगी। ब्रिटेन की साइंस एकेडमी द रायल सोसायटी के अनुसार अमेरिका-आलू, लौकी, कद्दू, सोयाबानी और चुकंदर, बांग्लादेश-बैंगन, चीन-पपीता और भारत समेत 15 से अधिक देश कपास एवं 17 देशों में मक्का का उत्पादन जीएम प्रजाति से हो रहा है। रकबे के अनुपात में चीन, अमेरिका और अर्जेंटीना जीएम फसलों पर सबसे अधिक निर्भर हैं। 2015 में 28 देशों में लगभग 18 करोड़ हेक्टेयर में जीएम फसलों की खेती होने लगी थी। 2016 तक यह कुल कृषि योग्य भूमि का लगभग 10 प्रतिशत था। आज सोयाबीन के कुल वैश्विक उत्पादन का 60 प्रतिशत जीएम प्रजाति पर निर्भर है।

आयात पर निर्भरता कम होने का दावा

जीएम सरसों की ओर कदम बढ़ाने के पीछे सबसे बड़ी वजह भारत की खाद्य तेलों पर विदेशी निर्भरता कम करना है। हम लगभग 1.17 लाख करोड़ रुपये की राशि हर साल खाद्य तेलों के आयात पर खर्च करते हैं। वनस्पति तेल की अपनी 70 प्रतिशत जरूरत के लिए हम मलेशिया, इंडोनेशिया, ब्राजील, अर्जेंटीना, रूस और यूक्रेन पर निर्भर हैं। आयातित सोयाबीन तेल का बड़ा अनुपात जीएम श्रेणी का है।

भारतीय विकल्पों पर बढ़ने की जरूरत

सवाल यह है कि क्या हमारे पास जीएम फसलों के अलावा तिलहन की पैदावार बढ़ाने का कोई दूसरा विकल्प नहीं है। देश को खाद्य तेलों के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करने और आयात कम करने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले साल नौ अगस्त को 11,000 करोड़ रुपये से अधिक के निवेश वाले राष्ट्रीय मिशन की शुरुआत की थी। देश में खाद्य तेल के आयात में पाम आयल की हिस्सेदारी लगभग 56 प्रतिशत है। केंद्र सरकार द्वारा शुरू खाद्य एवं पाम आयल के राष्ट्रीय मिशन से देश के किसान पाम और तिलहन की खेती में वृद्धि के लिए प्रेरित हुए हैं। तिहलन उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार ने बेहतर लागत प्रदान करने की नीति को भी अपनाया है।

पिछले दो साल में केंद्र सरकार के प्रयासों से तिलहन उत्पादन में सकारात्मक वृद्धि देखी जा रही है। वित्त वर्ष 2017-18 में तिलहन का उत्पादन 314.59 लाख टन रहा था। केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के अनुसार पिछले तीन साल में तिलहन फसलों में उत्पादकता 1.271 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर (वित्त वर्ष 2018-19) से बढ़ाकर 1.292 किलोग्राम/हेक्टेयर हो गई है। हालांकि वैश्विक औसत अब भी दो हजार किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत बीमित होने वाली फसलों में सरसों, मूंगफली, तिल को भी शामिल किया गया है। विज्ञानियों का एक धड़ा इस तथ्य को भी स्वीकार करता है कि जीएम सरसों के अलावा भी देश में अधिक पैदावार देने वाली सरसों की कई प्रजातियां हैं। तिलहन और दलहन के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करने के सामने एक बड़ी चुनौती गेहूं और धान की खेती को जरूरत से ज्यादा वरीयता देना भी है। कृषि अर्थशास्त्रियों के मुताबिक जितना पैसा खाद्य तेलों के आयात के मोर्चे पर खर्च हो रहा है, उसे तिहलन की फसल बोने वाले किसानों को फसल की कीमत के रूप में देने की रणनीति अच्छा परिणाम देगी।

पर्यावरणीय और स्वास्थ्य चिंताएं

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों को आज की जरूरत बताया है, लेकिन उन्होंने इसके परीक्षण और नियामक की कमजोर व्यवस्था पर भी चेताया है। जीएम फसलों के लिए जिस तरह ग्लाइफोसेट जैसे शाकनाशकों का इस्तेमाल बढ़ा है, उसको लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी चिंता जताई है। 2015 में डब्ल्यूएचओ ने ग्लाइफोसेट को संभावित कैंसरजनक के रूप में वर्गीकृत किया था।

एक अनुमान के मुताबिक वैश्विक स्तर पर 85 प्रतिशत से अधिक जीएम फसलें शाकनाशक प्रतिरोधी हैं। इससे भले ही तात्कालिक रूप से कुछ वर्षों तक फसलों की उच्च पैदावार हासिल कर ली जाए, लेकिन इंसानी सेहत के साथ ही पर्यावरण पर दीर्घकालिक नुकसान का आकलन भी होना चाहिए। अमेरिका समेत कई देशों के अनुभव बताते हैं कि जीएम फसलों का रकबा बढ़ने से ग्लाइफोसेट प्रतिरोधी खरपतवार में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। वे खेत जो कभी अच्छी पैदावार के लिए जाने जाते थे, आज व्यापक रूप से खरपतवार से मुक्ति का संघर्ष कर रहे हैं। भारत में जहां पहले ही जोत का आकार छोटा और आबादी का दबाव अधिक है, यह संकट को और बढ़ा सकता है।

कुल मिलाकर जीएम फसलों के लुभावने आंकड़ों के बावजूद हमें इसे खाद्य शृंखला में शामिल करने से पहले जरूरत, विकल्प और नियामकीय पहलुओं पर विचार करना होगा। बीज की आनुवंशिकी में बदलाव का कोई भी प्रयास जैव विविधता, मानवीय सेहत और भारतीय परिस्थितियों को ध्यान में रखकर करना होगा। वह भी तब जब धरती गंभीर जलवायु संकट से गुजर रही है। ऐसी परिस्थितियों में आज भारत पर्यावरण अनुकूल विकास की दिशा में न सिर्फ नेतृत्वकर्ता की भूमिका में है, बल्कि विकास की जनआकांक्षाओं को पूरा करते हुए जैविक अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में विश्व जगत को राह दिखा रहा है।

उत्साहजनक नहीं बीटी कपास का अनुभव

देश आज कपास का दुनिया भर में सबसे बड़ा उत्पादक है। इसके पीछे बीटी कपास को श्रेय दिया जाता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक बीटी कपास पारंपरिक कपास के मुकाबले 24 प्रतिशत अधिक उपज देता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में महाराष्ट्र में बीटी कपास की खेती करने वाले किसानों ने उर्वरकों का उपयोग बढ़ने के साथ ही बीटी कपास में नई प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने की शिकायत की है। पहले बीटी कपास को जिन गुलाबी सुंडियों से सुरक्षित माना गया था, वे फिर इसकी सबसे बड़ी दुश्मन बन चुकी हैं। 2012 में कृषि संबंधी संसदीय समिति जीव-जंतुओं पर बीटी कपास के प्रतिकूल असर पर चिंता जाहिर कर चुकी है। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इसके बीजों को जब मेमनों को खिलाया गया तो उनके यकृत, हृदय, गुर्दे, फेफड़ों के वजन में कमी आ गई।

अमेरिका और यूरोप में उठे विरोध के स्वर 

इसमें कोई दो मत नहीं कि पिछले कुछ दशकों में वैश्विक आबादी जिस तरह बढ़ी है, उसके लिए खाद्यान्न संकट को दूर करने में जीएम फसलों ने अहम भूमिका निभाई है, लेकिन जीएम फसलों को लेकर चिंताएं भी कम नहीं हैं। अमेरिका, अफ्रीका और यूरोप में जीएम खाद्य पदार्थों के खिलाफ हो रहे व्यापक विरोध प्रदर्शन इसकी बानगी हैं। कुछ देशों में नागरिकों द्वारा पूरी तरह जीएम फसलों पर प्रतिबंध की मांग हो रही है। जीएम फसलों के विरोध का स्वर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एकाधिकार से भी जुड़ा है। अमेरिकी कंपनी मोनसेंटो अकेले जीएम बीज की वैश्विक बिक्री में 90 प्रतिशत हिस्सेदारी रखती है। कुछ साल पहले तक अमेरिका और यूरोपीय देशों में जीएम और गैर जीएम खाद्य पदार्थों में अंतर नहीं किया जाता था। अब जीएम और गैर जीएम खाद्य पदार्थों के लिए अलग-अलग मानक चिह्न हैं।

[लोक नीति विशेषज्ञ]