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क्या काप-27 जैसी पहल से वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के खतरों के प्रति जागरूकता लाने में सफलता मिलेगी?

जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के प्रयासों पर दुनियाभर के प्रतिनिधि विमर्श कर रहे हैं। इस दिशा में किसी भी विमर्श का सार्थक परिणाम तभी निकल सकता है जब विकसित देश अपनी जिम्मेदारी को समझें और अपने किए वादों को पूरा करने में तत्परता दिखाएं।

By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Mon, 07 Nov 2022 02:59 PM (IST)
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विकसित देशों का अपनी प्रतिबद्धताओं पर टिके रहना आवश्यक है।
डा. अरुणाभ घोष। कान्फ्रेंस आफ पार्टीज का 27वां सम्मेलन (काप 27) शुरू हो गया है। वैश्विक स्तर पर हालिया घटनाक्रमों से इसका महत्व बढ़ गया है। रूस-यूक्रेन संकट के कारण ऊर्जा की कीमतें और विकसित देशों में जीवाश्म ईंधन की खपत बढ़ी है। इसके बावजूद विकासशील देशों पर जीवाश्म ईंधन का उपयोग घटाने के लिए दबाव डाला जा रहा है। असल में इस मामलेमें विकसित देशों का दोहरा रवैया चिंताजनक रहा है। अमीर देशों को समझना होगा कि यह किसी देश की नहीं पूरी मानवता की समस्या है। इससे निपटने के लिए अमीर देशों को आगे बढ़कर अन्य देशों की सहायता करनी चाहिए। पिछले सम्मेलनों में जो वादे किए गए हैं, उन पर जिम्मेदारी के साथ आगे बढ़ना होगा।

लास एंड डैमेज फाइनेंशियल फैसिलिटी

जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले देशों की मांग है कि उन्हें अप्रत्याशित मौसम के कारण होने वाले नुकसान की क्षतिपूर्ति मिले। वैसे तो 2007 से ही संयुक्त राष्ट्र के एजेंडे में यह मांग है, लेकिन इस दिशा में खास प्रगति दिखी नहीं है। भारत सर्वाधिक प्रभावित देशों में से है। आपदाओं के कारण यहां पिछले 20 वर्षों में 79 अरब डालर का नुकसान हो चुका है। विकासशील देश एक नई ‘लास एंड डैमेज फाइनेंशियल फैसिलिटी’ (एलडीएफएफ) की मांग कर रहे हैं। विकसित देश यह कहकर विरोध कर रहे हैं कि नई वित्तीय व्यवस्था की जरूरत नहीं है।

कार्बन क्रेडिट की व्यवस्था

देखना होगा कि सम्मेलन में क्या राय बनती है। एक अन्य अहम मुद्दा अडेप्टेशन फाइनेंस का भी है। विकसित देशों को इस वित्तीय सहायता के मामले में ईमानदारी से कदम बढ़ाना चाहिए। पिछले साल इस मद में 40 अरब डालर देने का वादा किया गया था। 2030 तक इस मद में सालाना 340 डालर की जरूरत होगी। निश्चित तौर पर अभी विकसित देशों का वादा बहुत कम है। भारत का कहना है कि इस मामले में विकसित देशों की जवाबदेही तय होनी चाहिए। इसी तरह क्लाइमेट फाइनेंस पर भी चर्चा जरूरी है। 2020 तक क्लाइमेट फाइनेंस को 100 अरब डालर के स्तर पर पहुंचाने की बात थी, जिसकी समयसीमा 2023 कर दी गई है। पेरिस समझौते को साकार करने की दिशा में प्रयासों पर भी विमर्श की आवश्यकता है। इसमें कार्बन क्रेडिट की व्यवस्था भी की गई थी। इस व्यवस्था को मजबूती से आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। इससे होने वाले आय का एक हिस्सा अडेप्टेशन केमद में खर्च होता है। इस दिशा में कदम बढ़ाने से कम कार्बन उत्सर्जन वाली भारतीय परियोजनाओं में निवेश आकर्षित करना संभव होगा। विकसित देशों का अपनी प्रतिबद्धताओं पर टिके रहना भी आवश्यक है।

नेट-जीरो उत्सर्जन लक्ष्य की घोषणा

पिछल साल कई देशों ने नेट-जीरो उत्सर्जन लक्ष्य की घोषणा की थी, लेकिन पिछले सालभर में इस दिशा में कोई प्रगति नहीं दिखी है। यूएनएफसीसीसी ने हाल ही में कहा था कि औसत वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना दूर की कौड़ी होता जा रहा है। अभी दुनिया वर्ष 2100 तक 2.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि की राह पर चल रही है। समुचित न्याय यही होगा कि विकसित देश 2050 से पहले नेट-जीरो तक पहुंचें, जिससेविकासशील देशों को थोड़ा कार्बन स्पेस मिले। भारत ने अपने राष्ट्रीय लक्ष्य को बढ़ाया है। भारत दुनिया को अपना बाजार उपलब्ध कराने को तैयार है। प्रश्न यह है कि क्या विकसित देश भी वादा पूरा करेंगे? कथनी और करनी का अंतर मिटाए बिना समुचित परिणाम नहीं मिल सकता।

[सीईओ, काउंसिल आन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर]