Supreme Court: 'गर्भ में पल रहे भ्रूण को भी जीने का मौलिक अधिकार', SC ने अविवाहिता के वकील के इस तर्क पर क्यों कहा सॉरी?
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक अविवाहित महिला की उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें उसने 27 सप्ताह से अधिक की गर्भावस्था को समाप्त करने की मांग की थी। कोर्ट ने कहा कि गर्भ में पल रहे भ्रूण को भी जीने का मौलिक अधिकार है। पीठ ने आगे कहा कि गर्भावस्था की अवधि अब सात महीने से अधिक हो गयी है।
पीटीआई, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक 20 वर्षीय अविवाहित युवती की उस याचिका पर सुनवाई करने से इन्कार कर दिया जिसमें 27 सप्ताह के गर्भ को गिराने की अनुमति मांगी गई थी। शीर्ष अदालत ने कहा कि गर्भ में पल रहे भ्रूण के पास भी जीवन का मौलिक अधिकार है। जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस एसवीएन भाटी और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने यह आदेश दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली महिला की याचिका पर सुनवाई के दौरान दिया।
बच्चे को भी जिंदा रहने का है मौलिक अधिकार
हाई कोर्ट ने तीन मई के फैसले में गर्भपात की अनुमति देने से इनकार कर दिया था। पीठ ने याचिकाकर्ता के वकील से कहा कि हम कानून के विरोधाभासी आदेश पारित नहीं कर सकते। गर्भ में पल रहे बच्चे को भी जिंदा रहने का मौलिक अधिकार प्राप्त है। इस बारे में आपको क्या कहना है? महिला के वकील ने कहा कि गर्भावस्था का चिकित्सीय समापन अधिनियम केवल मां की बात करता है। यह (कानून) केवल मां के लिए बनाया गया है।
अदालत ने किया ये सवाल
पीठ ने कहा कि गर्भ अब लगभग सात माह का हो गया है। अदालत ने सवाल किया, 'गर्भ में पल रहे बच्चे के जिंदा रहने के अधिकार का क्या? आप उसका जवाब कैसे देंगे?' वकील ने कहा कि जब तक भ्रूण गर्भ में होता है और बच्चे का जन्म नहीं हो जाता तब तक यह अधिकार मां का होता है। उन्होंने कहा, 'याचिकाकर्ता इस समय अत्याधिक पीड़ा से गुजर रही है। वह बाहर नहीं जा सकती। वह नीट की कक्षाएं ले रही है। वह बहुत ही पीड़ादायक स्थिति से गुजर रही है। वह इस अवस्था में समाज का सामना नहीं कर सकती।कोर्ट ने कहा- क्षमा करें
वकील ने कहा कि याचिकाकर्ता की मानसिक और शारीरिक बेहतरी पर विचार किया जाना चाहिए। इस पर पीठ ने कहा, 'क्षमा करें।' हाई कोर्ट ने तीन मई के आदेश में रेखांकित किया था कि 25 अप्रैल को अदालत ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) को मेडिकल बोर्ड गठित करने का निर्देश दिया था ताकि भ्रूण और याचिकाकर्ता की स्थिति का आकलन किया जा सके।हाई कोर्ट का कहना था कि रिपोर्ट (मेडिकल बोर्ड की) देखने से पता चला कि भ्रूण में कोई जन्मजात असामान्यता नहीं है और न ही मां को गर्भावस्था जारी रखने से कोई खतरा है, जिसके लिए भ्रूण को समाप्त करना अनिवार्य हो। चूंकि भ्रूण में जीवन शक्ति है, वह सामान्य है और याचिकाकर्ता को गर्भावस्था जारी रखने में कोई खतरा नहीं है, इसलिए भ्रूण हत्या न तो नैतिक होगी और न ही कानूनी रूप से स्वीकार्य।
याचिकाकर्ता का हाई कोर्ट में कहना था कि 16 अप्रैल को उसे पेट में दर्द हुआ था और जब अल्ट्रासाउंड कराया गया तो 27 सप्ताह का गर्भ होने की जानकारी मिली जो गर्भपात कराने के लिए कानूनी रूप से तय अधिकतम समय सीमा 24 सप्ताह से अधिक थी।
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