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देशी पेड़-पौधों को खत्म कर रहा विलायती बबूल

अंग्रेजी राज में विलायती बबूल हरियाली बढ़ाने के लिए लगाया गया था लेकिन आज यह नासूर बन गया है।

By Sachin MishraEdited By: Updated: Sun, 17 Jan 2016 12:05 PM (IST)
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हरिकिशन शर्मा, नई दिल्ली। 'बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाय'.... संत कबीर के दोहे की यह पंक्ति विलायती बबूल की पूरी कहानी बयां कर देती है। अंग्रेजी राज में विलायती बबूल हरियाली बढ़ाने के लिए लगाया गया था लेकिन आज यह नासूर बन गया है।

यह न सिर्फ देश की जैवविविधिता के लिए बड़ा खतरा है बल्कि पर्यावरण पर भी बोझ बन गया है। राजधानी दिल्ली सहित दर्जनभर राज्यों में फैला विलायती बबूल देशी पेड़-पौधों की लगभग 500 प्रजातियों को खत्म कर चुका है। अगर इसे समय रहते नहीं मिटाया गया तो देशी पेड़-पौधों की रही-सही प्रजातियां भी खत्म हो जाएंगी, शुष्क क्षेत्रों में जल संकट गहरा सकता है, वायु प्रदूषण बढ़ जाएगा।

मांग उठाने लगे लोग

परेशान किसानों और पर्यावरण विशेषज्ञों ने इसे हटाने की मांग शुरू कर दी है। बुलंदशहर जिले के गांव औरंगा निवासी लवकुश चौधरी ने दैनिक जागरण को फोन पर बताया कि उनके गांव में करीब 600 एकड़ क्षेत्र में विलायती बबूल के पेड़ हैं। सरकार ने कहा था कि फूल और फलदार वृक्ष लगाए जाएंगे लेकिन वहां विलायती बबूल लगा दिए गए। अब यह कांटेदार जंगल न तो लोगों के उपयोग का है, न वन्य जंतुओं के अनुकूल। इसे हटाकर फूल व फलदार वृक्ष लगने चाहिए।

पांच सौ देशी प्रजातियां लुप्त

दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यावरण अध्ययन विभाग के प्रोफेसर और पूर्व प्रो-वाइस चांसलर सी आर बाबू लंबे समय से विलायती बबूल के पर्यावरण और जैवविविधता पर दुष्प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं। प्रोफेसर बाबू ने दैनिक जागरण से कहा कि विलायती बबूल भारत में आने के बाद अब तक देशी पेड़-पौधों की 500 प्रजातियों को खत्म कर चुका है। खेजड़ी, अंतमूल,केम, जंगली कदम, कुल्लू, आंवला, हींस, करील और लसौड़ा सहित सैकड़ों देशी पौधे अब दिखाई नहीं देते। इसकी हरियाली के फायदे कम, नुकसान ज्यादा हैं। जिस जमीन पर यह पैदा होता है वहां कुछ और नहीं पनपने देता। इसकी पत्तियां छोटी होती हैं। इसका पर्यावरण की दृष्टि से भी कोई उपयोग नहीं है। बहुत कम कार्बन सोखता है।

चलाया पायलट प्रोजेक्ट

दिल्ली के रिज क्षेत्र में इस पर अंकुश लगाने का पायलट प्रयोग कर रहे बाबू कहते हैं कि विलायती बबूल से पक्षियों की प्रजातियां भी काफी कम हो गई हैं। रिज क्षेत्र में पहले करीब 450 प्रजातियां थी जो घटकर केवल 100 रह गईं। उनका पायलट प्रयोग शुरु होने के बाद पक्षियों की संख्या पुनः बढ़ी है।

सरकार दिखाए गंभीरता

प्रोफेसर बाबू ने कहा, लोग इसके दुष्प्रभावों से वाकिफ नहीं थे। लेकिन अब सरकार को इसे खत्म करने के लिए अविलंब कदम उठाने चाहिए। विलायती बबूल हटा कर देशी प्रजातियों के पौधे लगाए जाएं। अगर रिज क्षेत्र में देशी प्रजाति के पेड़ होते तो आज प्रदूषण का स्तर इतना अधिक नहीं होता।

अन्य देश भी चिंतित

अफ्रीकी महाद्वीप में इथियोपिया के रेगिस्तानी और अर्धरेगिस्तानी इलाकों में भी स्थानीय लोगों ने विलायती बबूल के परेशान होकर इसे जड़मूल से मिटाने की मांग की है। अदीस अबाबा स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ बॉयोडाइवर्सिटी कंजरवेशन के पारिस्थितिकीय विभाग ने इसके विपरीत प्रभावों के बारे में अध्ययन किया। संस्थान ने पाया कि देशी जानवरों और पौधों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है जिसके चलते जैवविविधिता कम हो गई । ब्राजील में भी अध्ययन हुए जिससे पता चला कि इसके कारण देशी प्रजातियां खत्म हो रही हैं।

यह है प्रोसोपिस जूलीफ्‌लोरा

बिलायती बबूल का वैज्ञानिक नाम प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा है। यह मूलरूप से दक्षिण और मध्य अमेरिका तथा कैरीबियाई देशों में पाया जाता था, 1870 में इसे भारत लाया गया था।

दिल्ली, उप्र, राजस्थान में बहुतायत

यह दिल्ली के रिज क्षेत्र के अलावा हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से पाया जाता है। इसके अलावा मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश में भी इसके पेड़ मिलते हैं। बताया जाता है कि तत्कालीन जोधपुर रियासत ने 1940 में इसे शाही वृक्ष का दर्जा दिया और राज्य के बड़े भूभाग में लगाया गया।

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