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जानें, आखिर कैसे भोपाल में हुई एक त्रासदी ने रातों-रात ले ली थी हजारों लोगों की जान

भोपाल गैस कांड दुनिया के सबसे दर्दनाक औद्योगिक हादसों में से एक है। इसका खामियाजा कई पीढ़ियों को भुगतना पड़ रहा। आज भी इसका कचरा निस्तारण एक चुनौती बना हुआ है।

By Amit SinghEdited By: Updated: Sun, 02 Dec 2018 10:42 AM (IST)
जानें, आखिर कैसे भोपाल में हुई एक त्रासदी ने रातों-रात ले ली थी हजारों लोगों की जान
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। भोपाल गैस कांड या भोपाल गैस त्रासदी, इतिहास में दुनिया का सबसे बड़े औद्योगिक हादसा माना जाता है। इस दुर्घटना को भले ही 34 साल बीत चुके हों, लेकिन यहां के लोगों आज भी इस घटना को याद कर दहल जाते हैं। आज भी यहां जहरीली गैसों का खतरा बरकरार है। उस त्रासदी का 346 टन जहरीला कचरा निस्तारण अब भी एक चुनौती बना हुआ है।

ये कचरा आज भी हादसे की वजह बने यूनियन कार्बाइड कारखाने में कवर्ड शेड में मौजूद है। इसके खतरे को देखते हुए यहां पर आम लोगों का प्रवेश अब भी वर्जित है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर कारखाने के 10 टन कचरे का निस्तारण इंदौर के पास पीथमपुर में किया गया था, लेकिन इसका पर्यावरण पर क्या असर पड़ा ये अब भी पहेली बना हुआ है। स्थानीय लोगों का मानना है कि इस कचरे और 34 साल पहले हुए हादसे में कारखाने से निकली जहरीली गैसों का असर आज भी यहां के लोगों को झेलना पड़ रहा है। दरअसल भारत के पास इस जहरीले कचरे के निस्तारण की तकनीक और विशेषज्ञ आज भी मौजूद नहीं हैं।

केंद्र के पास लंबित है रिपोर्ट
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर 13-18 अगस्त 2015 तक पीथमपुर में 'रामके' कंपनी के इंसीनरेटर में यहां का लगभग 10 टन जहरीला कचरा जलाया गया था। ट्रीटमेंट स्टोरेज डिस्पोजल फेसीलिटीज (टीएसडीएफ) संयंत्र से इसके निष्पादन में पर्यावरण पर कितना असर पड़ा, इसकी रिपोर्ट केंद्रीय वन-पर्यावरण मंत्रालय को चली गई है। हालांकि इसका असर क्या हुआ, ये अब भी पहेली बना हुआ है। साथ ही ये सवाल अब भी बरकरार है कि इस जहरीले कचरे का निस्तारण कब तक होगा।

कचरा जर्मनी भेजने की थी योजना
हादसे के बाद जहरीले कचरे को जर्मनी भेजने का प्रस्ताव सरकार ने तैयार किया था। हालांकि जर्मन नागरिकों के विरोध के कारण इस कचरे को वहां नहीं भेजा जा सका। जानकारों के अनुसार इस तरह के केमिकल को दो हजार डिग्री से अधिक तापमान पर जलाया जाता है।

दिसंबर 1984 में हुआ था हादसा
भोपाल गैस त्रासदी 2-3 दिसंबर 1984 को यूनियन कार्बाइड नामक कंपनी के कारखाने में जहरीली गैस के रिसाव से हुई थी। कड़ाके की ठंड रात में हुए इस हादसे में तकरीब 8000 लोगों की जान दो सप्ताह के भीतर हो गई थी। वहीं 8000 से ज्यादा लोग इसके दुष्प्रभाव की वजह से बीमार होकर दम तोड़ चुके हैं। अब भी इस हादसे की वजह से अपंग या अंधे हुए लोग इस त्रासदी की मार झेल रहे हैं। स्थानीय लोगों का मानना है कि इस हादसे की वजह से आज भी भोपाल आसपास अपंग बच्चे पैदा होते हैं। मरने वालों के अनुमान पर अलग-अलग एजेंसियों की राय भी अलग-अलग है। पहले अधिकारिक तौर पर मरने वालों की संख्या 2,259 बताई गई थी। मध्य प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने 3,787 लोगों के मरने की पुष्टि की थी। वहीं कुछ रिपोर्ट का दावा है कि 8000 से ज्यादा लोगों की मौत तो दो सप्ताह के अंदर ही हो गई थी और लगभग अन्य 8000 लोग गैस रिसाव से फैली बीमारियों के कारण मारे गये थे। इसके प्रभावितों की संख्या लाखों में होने का अनुमान है।

कीड़ों की तरह हुई थी मौत
यूनियन कार्बाइड नामक कंपनी से मिथाइल आइसो साइनाइट (मिक) नामक जहरीली गैस का रिसाव हुआ था। इसका उपयोग कीटनाशक के लिए किया जाता था। अचानक से काफी मात्रा में जहरीली गैस का रिसाव होने से यहां के लोगों की मौत भी कीड़ों की तरह हुई थी। इस हादसे की भयावह तस्वीरें आज भी लोगों का दिल दहला देती हैं। लोग आज भी उस मंजर को याद कर रो पड़ते हैं।

ऐसे हुआ था भोपाल गैस कांड
दो दिसंबर 1984 की रात नाइट शिफ्ट में काम करने आए करीब आधा दर्जन कर्मचारी भूमिगत टैंक के पास पाइपलाइन की सफाई शुरू करने जा रहे थे। उसी वक्त टैंक का तापमान अचानक 200 डिग्री पहुंच गया, जबकि इस टैंक का तापमान चार से पांच डिग्री के बीच रहना चाहिए था। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि टैंक को सुरक्षित रखने के लिए प्रयोग किया जाने वाला फ्रीजर प्लांट बिजली का बिल बचाने के लिए बंद कर दिया गया था। तापमान बढ़ने पर टैंक में बनने वाली जहरीली गैस उससे जुड़ी पाइप लाइन में पहुंचने लगी। पाइप लाइन का वॉल्व सही से बंद नहीं था, लिहाजा उससे जहरीली गैस का रिसाव शुरू हो गया।

वहां मौजूद कर्मचारियों ने वॉल्व बंद करने का प्रयास किया, लेकिन तभी खतरे का सायरन बज गया। कर्मचारियों को कारखाने में जहरीली गैस का पता था, लिहाजा सायरन बजने पर उन्होंने वहां से सुरक्षित बाहर निकलना ही बेहतर समझा। आसपास की बस्तियों में रहने वाले लोगों को घुटन, आंखों में जलनी, उल्टी, पेट फूलने जैसी समस्या होने लगी। पुलिस जब तक सतर्क होती, आसपास के इलाके और कारखाने में भगदड़ मच चुकी थी। इसके बावजूद कारखाने के संचालक ने किसी तरह के गैस रिसाव से इंकार कर दिया। इसके थोड़ी देर बाद ही अस्पताल में मरीजों की भीड़ उमड़ पड़ी। सुबह पुलिस ने लाउडस्पीकर से लोगों को चेतावनी देनी शुरू की, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

अंग्रेजी के सुरक्षा मैन्युअल ने बिगाड़ा खेल
हादसे के बाद जांच एजेंसियों को पता चला कि कारखाने से संबंधित सभी सुरक्षा मैन्युअल अंग्रेजी में थे। इसके विपरीत कारखाने के ज्यादातर कर्मचारियों को अंग्रेजी का कोई ज्ञान नहीं था। संभवतः उन्हें आपात स्थिति से निपटने के लिए जरूरी प्रशिक्षण भी नहीं दिया गया था। जानकारों के अनुसार अगर लोग मुंह पर गीला कपड़ा डाल लेते तो भी जहरीली गैस का असर काफी कम होता, लेकिन किसी को इसकी जानकारी ही नहीं थी। इस वजह से हादसा इतना बड़ा हो गया।

मुख्य आरोपी की हो चुकी है मौत
यूनियन कार्बाइड कारखाने की जहरीली गैस से ही मौतों के मामलों और बरती गई लापरवाहियों के लिए फैक्ट्री के संचालक वॉरेन एंडरसन को मुख्य आरोपी बनाया गया था। हादसे के तुरंत बाद ही वह भारत छोड़कर अपने देश अमेरीका भाग गया था। पीड़ित उसे भारत लाकर सजा देने की मांग करते रहे, लेकिन भारत सरकार उसे अमेरीका से नहीं ला सकी। अंततः 29 सितंबर 2014 को उसकी मौत हो गई। ये हादसा इतना बड़ा था कि इस पर वर्ष 2014 में‘भोपाल ए प्रेयर ऑफ रेन’नाम से फिल्म भी बनी थी।