Move to Jagran APP

सरकारी प्रयास मात्र से साफ रखना संभव नहीं, जनभागीदारी से ही स्वच्छ होगी गंगा

गंगा केवल नदी नहीं अपितु हमारी सनातन संस्कृति की एक पहचान और हमारे जीवन का आधार है। ऐसे में गंगा में गंदगी हमारे लिए शर्म का विषय होना चाहिए। इसे सरकारी प्रयास मात्र से साफ रखना संभव नहीं है। जनभागीदारी से ही स्वच्छ होगी गंगा। फाइल

By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Sat, 01 Oct 2022 02:24 PM (IST)
Hero Image
जनभागीदारी से ही स्वच्छ होगी गंगा। फाइल
लालजी जायसवाल। भारत की लगभग 43 प्रतिशत जनसंख्या गंगा घाटी क्षेत्र में रहती है, इसलिए गंगा का कायाकल्प करना अनिवार्य है। इस संदर्भ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण गंगा नदी की सफाई का काम वर्तमान सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। जहां एक ओर इसकी कुछ विशेषताएं हैं तो वहीं कुछ तथ्य ऐसे भी हैं, जो इस मिशन की सफलता पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। यह हम सबका दुर्भाग्य ही है कि समय के साथ बढ़ती जनसंख्या, अनियोजित औद्योगीकरण और असंवहनीय कृषि प्रथाओं के कारण गंगा एवं इसकी सहायक नदियों में प्रदूषक तत्वों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

यहां तक कि पिछले कई वर्षों से क्रियान्वित क्लीन गंगा मिशन के बावजूद इस दिशा में कोई अपेक्षित परिणाम दिखाई नहीं दे रहा है। उल्लेखनीय है कि गंगा को साफ करने के लिए एक्शन प्लान का आरंभ वर्ष 1986 में हुआ था। केंद्र सरकार के जल शक्ति मंत्रालय की तरफ से दाखिल हलफनामे में बताया गया कि वित्त वर्ष 2014-15 से 2021-22 के दौरान 11,993.71 करोड़ रुपये विभिन्न विभागों को दिए गए हैं। केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता में निगरानी कमेटी भी बनी हुई है। इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य यह तथ्य है कि उत्तर प्रदेश में गंगा के किनारे 13 शहरों में 35 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाए गए हैं। इसके अलावा, सात अन्य शहरों में 15 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने का प्रस्ताव भी है।

नमामि गंगे कार्यक्रम

फिलहाल 95 प्रतिशत सीवेज का शोधन किया जा रहा है। मालूम हो कि पिछले साल जल शक्ति मंत्रालय द्वारा राज्यसभा में दी गई जानकारी के अनुसार, नमामि गंगे कार्यक्रम के तहत ‘राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन’ के लिए अब तक 15,074 करोड़ रुपये आवंटित किए जा चुके हैं। सवाल उठता है कि क्या मात्र रकम आवंटन से गंगा स्वच्छ हो सकेगी? अगर ऐसा होता तो गंगा निर्मल हो गई होती। उल्लेखनीय है कि नमामि गंगे कार्यक्रम के तहत 28,854 करोड़ रुपये की लागत वाली कुल 315 परियोजनाओं को मंजूरी दी गई है। इनमें से 130 परियोजनाएं पूरी भी हो गई हैं और बाकी पर अभी काम चल रहा है। इस संदर्भ में चिंता की बात यह है कि इस मिशन पर खर्च तो निरंतर बढ़ाया जा रहा है, परंतु परिणाम खर्च के अनुकूल सामने आता नहीं दिख रहा है। विकसित हो आधारभूत ढांचा : गंगा विश्व की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक है। इसका कारण हैं, कई उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्ट पानी को नदी में प्रवाहित किया जाना।

गंगा के आसपास रहने वाली विशाल जनसंख्या और उनके घरों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों का सीधे सीवेज के माध्यम से नदी में गिरना। ध्यातव्य है कि अकेले वाराणसी में ही बड़े सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगने के बाद भी सीवेज का केवल एक तिहाई हिस्सा ही साफ हो पाता है। बाकी सारा गंदा पानी गंगा में मिल जाता है। लिहाजा, गंगा में औद्योगिक अपशिष्टों के अप्रबंधित एवं अनियोजित प्रवाह के कारण इसके जल की शुद्धता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। जल में घुले ये औद्योगिक अपशिष्ट नदियों के जल का उपयोग करने वाले सभी जीवों के लिए भी हानिकारक हैं।

राष्ट्रीय हरित ट्रिब्यूनल

मालूम हो कि देशभर के पेपर मिल्स, स्टील प्लांट्स, टेक्सटाइल, चमड़ा उद्योग समेत चीनी उद्योगों से भी काफी मात्रा में अपशिष्ट पदार्थों को नदियों में ही प्रवाहित किया जाता है। ऐसे में सोचने वाली बात है कि नदियां स्वच्छ कैसे होंगी? बहरहाल, पिछले दिनों एनजीटी यानी राष्ट्रीय हरित ट्रिब्यूनल इस बात को लेकर कई बार नाराजगी भी जता चुका है कि स्वच्छ गंगा परियोजना के बावजूद 50 प्रतिशत गंदा पानी गंगा में बिना ट्रीटमेंट यानी शोधित किए हुए ही डाला जा रहा है। बिना ट्रीटमेंट वाले कचरे को गंगा नदी में जाने से रोकने के लिए पर्याप्त आधारभूत संरचना तैयार करना ही होगा। इसके बिना निर्मल धारा का लक्ष्य हासिल करना संभव नहीं है।

खैर, नमामि गंगे के तहत करीब 151 सीवेज परियोजनाओं को मंजूरी दी गई है, ताकि गंगा बेसिन में ट्रीटमेंट क्षमता को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जा सके। इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि नमामि गंगे के लिए पर्याप्त फंड उपलब्ध कराने से गंगा के शुद्धिकरण के लिए व्यापक स्तर पर आगे बढ़ने में मदद मिली है, परंतु प्रशासनिक भ्रष्टाचार तथा नियमित निगरानी के अभाव में गंगा अभी तक स्वच्छ नहीं हो सकी है। सामाजिक कुप्रथाएं : नदियों को स्वच्छ बनाए रखने के लिए वैसे तो हमारे यहां प्राचीन काल से ही अनेक पर्व-त्योहारों की परंपरा रही है और इस कारण नदियों को साफ रखने में मदद भी मिली है, परंतु कुछ सामाजिक कुप्रथाएं भी गंगा नदी में प्रदूषण को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार रही हैं। जैसे नदी किनारे शवों का अंतिम संस्कार एवं आंशिक रूप से जले हुए शव को नदी में बहा देना नदियों की सफाई के लिहाज से एक हानिकारक प्रथा है। इससे जल की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है।

स्वच्छता की शपथ

सोचना यह भी होगा कि क्या केवल सरकारी प्रयास ही क्लीन गंगा मिशन के लिए पर्याप्त होगा? नदियों को प्रदूषण से मुक्त रखने की बात तो सभी करते हैं, लेकिन इसके लिए प्रयास कुछ ही लोग करते हैं। इन दिनों देशभर में दुर्गा पूजा का उत्सव चल रहा है। कुछ दिनों बाद इन सभी मूर्तियों और फूलों समेत तमाम पूजा सामग्रियों को नदी में प्रवाहित कर दिया जाएगा। अब सवाल उठता है कि एक ओर हम स्वच्छता की शपथ लेते हैं और दूसरी ओर स्वयं प्रदूषण का कारण बनते हैं। हमें याद रखना चाहिए कि गंगा तट देवभूमि होती है। यदि यहां शवदाह करना ही है तो उसके कुछ अवशेष मात्र को गंगा में प्रवाहित किया जा सकता है। यही बात अगर हर व्यक्ति समझ जाए कि गंगा सहित अन्य नदियों में प्रदूषण रोकना सबकी जिम्मेदारी है तो यह समस्या इतनी गंभीर न होने पाए। आज का एक आम नागरिक सोचता है कि गंगा सफाई अभियान केवल सरकार की ही जिम्मेदारी है, उसका इससे कोई सरोकार नहीं है। कोई नागरिक अपने कर्तव्यों को भूलकर केवल सरकार को कोसता रहे, यह नागरिक समाज का परिचायक नहीं है।

राह में आने वाली बाधाएं

प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए अनेक सख्त नियम-कानून बनाए जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में गंगा के आसपास चमड़े के सौ से अधिक उद्योगों को बंद किया जा चुका है। लेकिन अभी भी सफाई अभियान को पूरी तरह से सफल बनाने में भ्रष्टाचार बड़ी बाधा बन रही है। सरकार को इस हेतु कड़ा कदम उठाना होगा। क्लीन गंगा मिशन के अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाने के पीछे भ्रष्टाचार और प्रशासनिक उदासीनता जैसे कारकों को नकारा नहीं जा सकता। इस मिशन के आरंभ होने के बाद से समय समय पर इसके प्रभावों को आकलन किया जाना चाहिए था। केवल फंड का आडिट या फिर कितना खर्च हुआ इसका आडिट पर्याप्त नहीं। सरकार द्वारा आवंटित फंड का नियमित आडिट होना चाहिए और देखा जाना चाहिए कि जो पैसा खर्च हुआ उसका परिणाम क्या निकला? जैसे एक विद्यार्थी का मूल्यांकन करते समय उसे परीक्षा में प्राप्त परिणाम को देखा जाता है, परीक्षा के अंकों को प्राथमिकता दी जाती है, न कि इस बात को कि वह स्कूल कितने दिन गया। इसी प्रकार अगर सभी योजनाओं का इंपैक्ट आडिट किया जाए तो शायद ही कोई योजना असफल हो। इससे पारदर्शिता के साथ ही जवाबदेही भी तय करना आसान हो जाएगा। साथ ही भ्रष्टाचार पर नकेल कसने में भी सुविधा होगी।

[शोधार्थी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय]