ग्लोबल वार्मिंग के कारण नैनीताल की पहाडियों से गायब हो गया यह पौधा
पटूवा प्रजाति पर खतरे की वजह हर साल बर्फबारी की मात्रा घटना है। वन विभाग के मुताबिक पेट से जुड़े रोग में यह लाभदायक माना जाता है।
By TaniskEdited By: Updated: Wed, 05 Dec 2018 07:08 PM (IST)
हल्द्वानी, गोविंद बिष्ट। बदलते मौसम की वजह से गिरता तापमान वनस्पतियों के लिए भारी पड़ रहा है। स्थिति यह है कि नैनीताल की पहाडिय़ों में पाए जाने वाले जिस पटूवा पौधे की वजह से उस इलाके का नाम पटूवाडांगर पड़ा, अब यह वनस्पति धीरे-धीरे विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी है। पटूवा प्रजाति पर खतरे की वजह हर साल बर्फबारी की मात्रा घटना है।
उत्तराखंड में हर जगह के हिसाब से दुर्लभ व औषधीय प्रजातियों की तमाम श्रृंखला मिलती है। नैनीताल से करीब दस किमी पहले पटूवाडांगर इलाका पड़ता है। इस एरिया में कभी दवा रिसर्च सेंटर होने के साथ रैबीज के इंजेक्शन तैयार होते थे। दिलचस्प बात यह है कि पटूवाडांगर का नाम पटूवा नामक एक पौधे की वजह से पड़ा। इसकी खासियत है कि सर्दियों की शुरुआत में यह मुरझाने लगता और बर्फ पिघलने के साथ दोबारा खिल उठता। लेकिन जलवायु परिवर्तन की चपेट में आकर पटूवा संकट में आ चुका है। हर साल कम होती बर्फबारी की वजह से इसकी जड़ें खड़ी नहीं हो पा रही। वहीं वन अनुसंधान केंद्र ने इलाके का निरीक्षण करने के बाद विलुप्त होने के कारणों का अध्ययन किया। जिसके बाद नर्सरी में इसकी पौध तैयार कर संरक्षण की कवायद शुरू हो चुकी है।
बर्फबारी व पौधे का कनेक्शन
पटूवा एक ऐसा पौधा है जिसकी जड़ हमेशा जीवित रहती है। परंतु तना सर्दियों में सुसुप्तावस्था में चले जाने की वजह से यह पौधा सूखने लगता है। वहीं बसंत के आगमन यानी फरवरी के बाद बर्फ पिघलने का दौर शुरू होते ही पटूवा दोबारा प्ररोहण करने लगता है। तने निकलकर झाडिय़ों का रूप लेते हैं। लेकिन पिछले आठ साल से बर्फबारी की कमी प्रजाति को खात्मे की ओर ले जा रही है।
पटूवा के फायदे
वन विभाग के मुताबिक पेट से जुड़े रोग में यह लाभदायक माना जाता है। इस पर रिसर्च हो चुकी है। इसके अलावा प्राकृत्तिक रंग बनाने में इसका योगदान है। वहीं मृदा संरक्षण को लेकर यह काफी मददगार है। पांच फीट का झाड़ीनुमा पौधा है
चौड़ी पत्ती वाला झाड़ीनुमा पौधा करीब पांच फीट लंबाई का होता है। फेवेसी कुल के इस पौधे का वैज्ञानिक नाम मेजोट्रोयिल पेलिटा है। करीब 1400 फीट की शुष्क पहाडिय़ों के बीच चीड़ के जंगल में यह पनपता है। अप्रैल से नवंबर तक यह खिलता है। तैयार कराई जा रही है नर्सरी
अनुसंधान केंद्र प्रभारी ज्योलीकोट मदन बिष्ट ने बताया कि बीज एकत्र कर नर्सरी में पौध तैयार करवाई जा रही है। तकनीक का इस्तेमाल कर जड़ से भी पौधे तैयार करने का लक्ष्य है। आठ साल से बर्फबारी का कम होना इसके संकट की वजह है।
ग्लोबल वार्मिंग का पड़ा असर मौसम विज्ञान केंद्र दून के निदेशक बिक्रम सिंह ने बताया कि बर्फबारी कम होने की वजह ग्लोबल वार्मिंग है। पिछले कुछ समय से ऊंचे इलाकों में हिमपात केंद्रित हो चुका है। जबकि जिन कम ऊंचाई वाली जगहों पर पहले बर्फ गिरती थी, वहां की स्थिति बदल रही है।