आलोचना करने और जवाब देने में कभी पीछे नहीं रहे प्रणब दा, राजनीति का रहा लंबा अनुभव
प्रणब दा को बांग्ला सबसे प्रिय है। राजनीति में लंंबा अनुभव रखने वाले प्रणब का नाम एक बार पीएम पद के लिए भी उछला था।
By Kamal VermaEdited By: Updated: Wed, 11 Dec 2019 12:52 PM (IST)
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। प्रणब मुखर्जी या प्रणब दा भारतीय राजनीति का वो चेहरा हैं जिन्होंने सत्ता में रहते हुए और देश के शीर्ष स्थान होते हुए सरकार और विपक्ष के बीच बेहतर तालमेल बनाकर रखा। वह 25 जुलाई 2012 को देश के 13वें राष्ट्रपति के रूप में चुने गए थे। 25 जुलाई 2017 को उनका कार्यकाल खत्म हो गया था। इस कार्यकाल के दौरान उन्होंने दो प्रधानमंत्री देखे, जिनमें मनमोहन सिंह समेत नरेंद्र मोदी शामिल हैं। दोनों से ही उनके संबंध काफी बेहतर थे। कहा जाता है कि उनमें देश का सबसे अच्छा प्रधानमंत्री बनने की योग्यता थी, लेकिन राजनीति की ही उठापठक के चलते वह इस पद पर नहीं पहुंच सके। मोदी कार्यकाल के दौरान उन्हें 8 अगस्त 2019 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' प्रदान किया था।आपको बता दें कि प्रणब मुखर्जी ने कुल 7 बार आम बजट पेश किया है। बेहद कम लोग ये जानते होंगे कि राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद से वह लगभग दो लाख 63 हजार किलोमीटर की यात्रा कर चुके हैं। वर्ष 2015 में उन्हें रूस डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया था।
पसंदीदा विषय प्रणब मुखर्जी का राजनीतिक जीवन काफी लंबा रहा है। इस जीवन में वह काफी अनुशासित रहे हैं। लेकिन बेहद कम लोग जानते हैं कि वह अपने छात्र जीवन में अनुशासित नहीं थे। कॉलेज के दौरान उनके पसंदीदा विषय की बात की जाए तो इतिहास और राजनीति विज्ञान था। साहित्य भी उनके पसंदीदा विषयों में से एक था, फिर चाहे हिंदी, इंग्लिश या बांग्ला ही हो। इसके अलावा भी उन्होंने कई अन्य भाषाओं के साहित्य का अनुवाद भी पढ़ा है। इसका खुलासा उन्होंने छात्रों से एक कार्यक्रम के दौरान किया था।
आलोचकों को दो टूक जवाब जयपुर में विधानसभा भवन में आयोजित चेंजिंग नेचर ऑफ पार्लियामेंट डेमोक्रेसी इन इंडिया विषय पर आयोजित सेमिनार के उद्धाटन सत्र उन्होंने उन लोगों को सीधा जवाब दिया था जो ये मानते हैं कि हमारा संविधान ब्रिटिश की देन है या उनकी सोच पर आधारित है। उनका कहना था कि भारतीय संसदीय व्यवस्था हम सभी के सतत संघर्ष की परिणित है। यह न तो हमें आसानी से मिली है और ना ही ब्रिटिश सरकार से उपहार में मिली है। संसदीय व्यवस्था भारतीयों की ताकत है।
कुछ चुनिंदा नेताओं में शामिल प्रणब मुखर्जी उन कुछ चुनिंदा नेताओं में से हैं जो आलोचना करने में कभी पीछे नहीं रहे फिर चाहे वो सरकार की ही क्यों न हो। वर्ष 2019-20 का आम बजट पेश करने के बाद जब सरकार द्वारा देश को 2024 तक पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की बात कहकर अपनी पीठ ठोकी जा रही थी तब उन्होंने सार्वजनिकतौर पर कहा था कि इस कामयाबी में पूर्व की सरकारों द्वारा किए गए काम भी शामिल हैं। पूर्व राष्ट्रपति ने देश की उपलब्धियों को किसी पार्टी के बताये जाने पर अफसोस जताया। उन्होंने 55 वर्षों की कांग्रेस शासन की आलोचना पर भी अपनी नाराजगी जाहिर की थी।
खुलकर व्यक्त की नाराजगी सरकार के फैसलों को लेकर भी कई बार उनकी नाराजगी खुलकर सामने आई। खासतौर पर शत्रु-संपत्ति विधेयक पर तो वह खुलकर सामने आ गए थे। उन्होंने सहिष्णुता पर चली बहस में भी हस्तक्षेप किया और देश में बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा की भी कड़े शब्दों में आलोचना की। शत्रु-संपत्ति अध्यादेश पर भी उन्होंने पांचवी बार में हस्ताक्षर किए थे। कर दिया था। सैद्धांतिक मूल्यों और नैतिक पक्षों पर जोर देने की बजाय उनका हमेशा जोर राजनीतिक-व्ये व्यावहारिक पक्ष पर रहा। इसी वजह से कई बार उनके निर्णय आम जनता की उम्मीदों के विपरीत रहे।
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