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Harishankar Parsai Birth Anniversary: जबलपुर के फुहारा बाजार से फूटी थी परसाई के व्यंग्य की धार

हरिशंकर परसाई की पहली रचना ‘उदार’ उपनाम से एक साप्ताहिक समाचार पत्र प्रहरी में प्रकाशित हुई थी इसके बाद कुछ अन्य रचनाएं भी इसी उपनाम से प्रकाशित हुईं।

By TaniskEdited By: Updated: Sat, 22 Aug 2020 08:53 AM (IST)
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Harishankar Parsai Birth Anniversary: जबलपुर के फुहारा बाजार से फूटी थी परसाई के व्यंग्य की धार
सुरेंद्र दुबे, जबलपुर। देश के प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के व्यंग्य की धार मध्य प्रदेश के जबलपुर के फुहारा बाजार से फूटी थी। वर्ष 1948 में परसाई की पहली रचना ‘दूसरे की चमक-दमक’ शीर्षक से जबलपुर से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र प्रहरी में ‘उदार’ उपनाम से प्रकाशित हुई थी। इसके बाद कुछ अन्य रचनाएं भी इसी उपनाम से प्रकाशित हुईं।

जबलपुर निवासी वयोवृद्ध अधिवक्ता जगदीश प्रसाद गुप्ता ने बताया कि समाचार पत्र के संपादक पंडित भवानी प्रसाद तिवारी व रामेश्वर गुरु ने उदार उपनाम से छपी व्यंग्य रचनाओं को दमदार पाते हुए लेखक को तलाशा। इसके बाद परसाई की व्यंग्य-रचनाएं प्रकाशित होने लगीं। ‘तस्वीर के दो पहलू’ और ‘अमीरों के नाम पत्र’ जैसे स्तंभ काफी सराहे गए। उनकी दमदार लेखनी की चर्चा होने लगी और अन्य शहरों से भी उनकी रचनाओं की मांग होने लगी। महज दो साल में जबलपुर के परसाई देशभर में चर्चित हो गए। उनके ‘सुनो भाई साधो’ शीर्षक से लिखे कॉलम को भी खूब ख्याति मिली। 

ऐसे जागा एक शिक्षक के भीतर छिपा असाधारण लेखक

परसाई ने ‘हम एक उम्र से वाकिफ हैं’ पुस्तक में उस घटना का जिक्र किया है, जिसके बाद उनके भीतर का लेखक सामने आया। उन्होंने लिखा है-दीपावली की जगमग रात में, मैं जबलपुर में बड़े फुहारे की सड़क से निकल रहा था। यह शहर का केंद्रीय बाजार है। यहां एक बड़ी दुकान पर लक्ष्मी की पूजा हो रही थी और सड़क पर चमचमाती नई कार खड़ी थी। कुछ बच्चे कार को देख रहे थे। दो बहुत गरीब बच्चे लोभ को रोक नहीं पाए। कार पर हाथ फेरने लगे। अचानक चालक आया और दोनों को चपत मार दी। वे रोने लगे। मैं खड़ा-खड़ा यह दृश्य देख रहा था। उसने मुङो झकझोर दिया। मेरी वर्ग-चेतना को वह दृश्य जगा गया। बहरहाल, इस घटना को अपनी कल्पनाशीलता व भाषा की सामथ्र्य के साथ लिखा और लेखक की जगह पर उपनाम उदार लिखकर समाचार पत्र में प्रकाशनार्थ भेज दिया। वह रचना प्रकाशित हो गई। 

अपने समय के जनशत्रुओं को घायल किया 

22 अगस्त, 1924 को जन्मे और 10 अगस्त, 1995 को दुनिया को अलविदा कहने वाले परसाई की 1948 से शुरू हुई लेखन की विकास-यात्र अंतिम दिनों तक जारी रही। परसाई ने व्यंग्यों के जरिये अपने समय के जनशत्रुओं को बुरी तरह घायल किया। उन्होंने संप्रेषण की नई-नई शैलियां विकसित कीं। जैसे-चिठ्ठी-पत्री, चौपाल में बतियाने, नुक्कड़ भाषणों, बयान और साक्षात्कार की कला आदि। कबीर की विरासत के सच्चे हकदार की तरह उनका समग्र लेखन अपने समय को समझने-परखने की ईमानदार कोशिश रहा। वे ताउम्र जिन सवालों से टकराते रहे, वे जीवन और साहित्य के सबसे जरूरी सवाल थे। इस सिलसिले में खुद परसाई ने कहा था-साहित्य का सृजन जीवन से होता है। जो जीवन के मूल्य हैं, वही साहित्य के भी। उसके सिवाय अलग से उसका कोई मूल्य नहीं है। इसीलिए स्पष्ट कथन और स्वाभाविक ओज के बिना साहित्य अपनी सार्थकता खो देता है।