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लगभग दो दशकों के बाद अफगानिस्तान में तालिबान के बढ़ते वर्चस्व के बीच भारत की चिंताएं

अमेरिका द्वारा अपने सैनिकों को अफगानिस्तान से निकालने के निर्णय के बाद तालिबान ने जिस तरह वहां प्रांतों और जिलों को अपने कब्जे में लेना शुरू किया है उससे महाशक्तियों के साथ ही क्षेत्रीय शक्तियों पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Fri, 16 Jul 2021 09:31 AM (IST)
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अफगानिस्तान में एक बार फिर बढ़ रहा तालिबान का वर्चस्व। इंटरनेट मीडिया
विवेक ओझा। एक ऐसे समय में जब तालिबान द्वारा अफगानिस्तान के भूक्षेत्र के 85 प्रतिशत हिस्से पर अपने नियंत्रण का दावा किया जा रहा है, तब यह बात साफ हो गई है कि तालिबान जल्द से जल्द अफगानिस्तान में इस्लामिक शासन तंत्र की स्थापना के लिए आमादा है। ऐसे में भारत का चिंतित होना स्वाभाविक है। भारतीय नेतृत्व को दिख रहा है कि एक नॉन स्टेट एक्टर (आतंकी संगठन) स्टेट एक्टर बनने की कोशिश कर रहा है।

तालिबान चाहता है कि वह अफगानिस्तान में 1996 से 2001 के दौर जैसा ही शासन करे और उसे दुनिया के देशों से अंतरराष्ट्रीय मान्यता और पहचान मिले ताकि वह अफगानिस्तान की चुनी हुई सरकार और उसके सैनिकों को एक झटके में उखाड़ फेंक अपने हिसाब से वहां का शासन चलाए। लेकिन भारत ने हाल ही में दुशांबे में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन के विदेश मंत्रियों के कांटैक्ट ग्रुप की बैठक में तालिबान पर अपना मत स्पष्ट किया है। इस बैठक में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भारत का पक्ष रखते हुए कहा है कि भारत सहित दुनिया भर के देश हिंसा और बल प्रयोग के आधार पर किसी के द्वारा सत्ता पर कब्जे के विरुद्ध हैं और ऐसी गतिविधियां वैध नहीं हैं।

भारत ने दुशांबे में एससीओ की मीटिंग में इस बात को सुनिश्चित करने पर जोर दिया है कि काबुल के पड़ोसी आतंकवाद, अलगाववाद और उग्रवाद के खतरे का सामना न करें। भारत का पक्ष अभी भी यही है कि एक स्वतंत्र, तटस्थ, एकीकृत, शांतिपूर्ण, लोकतांत्रिक और समृद्ध अफगानिस्तान का निर्माण प्राथमिकता के तौर पर होना चाहिए। जिस तरह से पिछले कुछ माह में तालिबान की आक्रामकता अपने इस्लामिक एजेंडे को लेकर बढ़ी है, उससे भारत समेत दुनिया के कई देश चिंतित हो गए हैं। जो भी देश तालिबान के मंसूबों से आशंकाओं से भर उठे हैं, उन्हें ईरान और पाकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों में तालिबान के नियंत्रण क्षेत्रों से चिंता महसूस हो रही है। तालिबान ने ईरान और अफगानिस्तान बार्डर पर इस्लाम कलां हो या तुर्कमेनिस्तान अफगानिस्तान सीमा पर स्थित तोरघुंडी जिला हो, अफगानिस्तान का ताखर या हेरात हो, सभी को अपने कब्जे में कर लिया है। इस्लाम कलां सीमा चौकी ईरान और अफगानिस्तान के बीच होने वाले व्यापार का केंद्र भी है। यहां से अफगान सरकार को हर माह लगभग दो करोड़ डॉलर का राजस्व मिलता है, तोरघुंडी भी इसी तरह तुर्कमेनिस्तान और अफगानिस्तान के बीच व्यापार की अहम कड़ी है। ताजिकिस्तान अफगानिस्तान के उत्तर-पूर्व में स्थित है। इस इलाके में भी तालिबान का प्रभाव बढ़ रहा है।

तालिबान जिस तरह मध्य एशिया के देशों और ईरान के सीमा शहरों को कब्जे में ले रहा है, वह भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिहाज से चुनौतीपूर्ण हो जाएगा। बात चाहे चाबहार बंदरगाह, तापी गैस पाइप लाइन प्रोजेक्ट की सुरक्षा की हो या फिर अंतरराष्ट्रीय उत्तर दक्षिण गलियारे के निर्माण की, अगर तालिबान ने भारत, ईरान, अफगानिस्तान को क्षेत्रीय स्थिरता नहीं दी तो समस्या बढ़ जाएगी। तालिबान के बढ़ते प्रभाव से हंिदूू अल्पसंख्यकों, भारतीय नागरिकों, बौद्धों, हजारा शियाओं पर हमले बढ़ जाएंगे।

यहां अहम सवाल यह खड़ा होता है कि भारत ने जिस अफगान सुरक्षा बल को लंबे समय तक प्रशिक्षण दिया, उसका आधुनिकीकरण किया, उसे वायु सुरक्षा प्रणाली दी, क्या वह अफगान सैन्य बल तालिबान से निपटने में सक्षम है या नहीं। तालिबान ने हाल ही में अफगान सुरक्षा बलों को अपने सामने आत्मसमर्पण करने के लिए कह दिया और सूचना यह भी आई कि आत्मसमर्पण के बाद कई अफगान सैनिकों को तालिबान द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया है। यह कितनी विडंबनापूर्ण बात है कि किसी देश का एक वर्ग अपने ही नागरिकों के सफाए पर तुला है।

तालिबान के अफगानिस्तान में सत्ता में आने की स्थिति में एक बात तो तय है कि वैश्विक आतंकवाद से निपटने में देशों की मुश्किलें बढ़ जाएंगी। तालिबान वैश्विक शांति के लिए खतरा इसलिए बनता रहेगा, क्योंकि जब जब अफगानिस्तान को लोकतांत्रिक, आधुनिक अधिकारों वाला, महिला सशक्तीकरण वाला सभ्य देश बनाने का प्रयास पश्चिमी देशों द्वारा किया जाएगा और जैसे ही ये इस्लामिक मूल्यों के खिलाफ पाया जाएगा, तब तब यह बात तालिबान को सहन नहीं होगी।

वहीं इन सभी घटनाक्रमों में चीन की बात करें तो चीन की चिंता अपने मुस्लिम बहुल शिनजियांग प्रांत को लेकर है। इसकी सीमा अफगानिस्तान से लगती है। चीन को अंदेशा है कि काबुल की सत्ता पर तालिबान के काबिज होने के बाद मुस्लिम चरमपंथी वाखान गलियारे से होते हुए शिनजियांग में घुसपैठ कर सकते हैं। लिहाजा चीन की दिलचस्पी अब अफगानिस्तान में स्थिरता लाने और शासन करने में है। अफगानिस्तान में हो रहे घटनाक्रम भारत के लिए चिंता का विषय इसलिए भी रहे हैं कि ऐसी सूचनाएं मिल रही हैं कि अफगानिस्तान में तालिबान लड़ाके पाकिस्तान समíथत आतंकी संगठनों के साथ जंग लड़ रहे हैं। ऐसा माना जा रहा है कि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान समेत तमाम आतंकी संगठनों के लड़ाके भी बड़ी संख्या में अफगानिस्तान में तालिबान के समर्थन में देखे गए हैं।

यहां इस भौगोलिक सच्चाई का भी ध्यान रखना भारतीय नेतृत्व के लिए अधिक जरूरी हो गया है कि जम्मू कश्मीर की अफगानिस्तान के साथ 106 किमी लंबी सीमा लगती है। वहीं गिलगित बाल्टिस्तान की भू-सामरिक स्थिति भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए तो जरूरी है ही, साथ ही इसके उत्तर पश्चिम में अफगानिस्तान का वाखन गलियारा है जिसमें चीन इस समय काफी रुचि ले रहा है। चीन, तालिबान और पाकिस्तानी आतंकियों के भारत विरोध के नाम पर यहां किसी गठजोड़ की संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। जिस तरह से भारत ने जम्मू कश्मीर राज्य पुनर्गठन अधिनियम के जरिये अनुच्छेद 370 के समापन को अंजाम दिया और अपने नए नक्शे में मीरपुर और मुजफ्फराबाद जैसे क्षेत्रों को भारत की भू-सीमा में दर्शाया है, वह बात चीन, पाकिस्तान और तालिबान सहित आर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन के देशों को नागवार गुजरी है। ऐसे में तालिबान पाकिस्तान के साथ एक एकीकृत इस्लामिक एजेंडे के साथ कश्मीर में अशांति पैदा करने का प्रयास करेगा, लिहाजा भारत को सतर्क रहना होगा।

भारत ने कुछ समय पहले अफगानिस्तान के सामरिक रूप से महत्वपूर्ण जेरांज डेलारम राजमार्ग निर्माण में सहयोग दिया था, जिसे ईरान के चाबहार बंदरगाह मिलाक मार्ग से जोड़ दिया गया था। चाबहार मिलाक जेरांज डेलारम राजमार्ग अफगान कृषि उत्पादों और अन्य निर्यातों के लिए भारतीय बाजार को खोल देगा। इन सब मार्गो, राजमार्गो की सुरक्षा की चिंता स्वाभाविक है। देखना यह होगा कि भारत ने अफगानिस्तान के जिस गारलैंड हाइवे के विकास में योगदान दिया और जो अफगानिस्तान के सभी शहरों से जुड़ा है, अगर उस पर तालिबान का नियंत्रण होता है, उसके झंडे वहां फहराए पाए जाते हैं तो इसका भारत और ईरान के अफगानिस्तान के साथ व्यापार वाणिज्य पर क्या असर पड़ता है।

क्या तालिबान तुर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान और ताजिकिस्तान को लिंक करने हेतु विचार किए गए ‘एशियन इंटरनेशनल रेलवे कारिडोर प्रोजेक्ट’ को अबाधित रूप से चलने देगा। जिज्ञासा इस बात की भी उत्पन्न होती है कि जिस हेरात प्रांत के पांच जिलों पर तालिबान कथित रूप से कब्जा कर चुका है, क्या वह मजारे शरीफ-हेरात रेलवे लिंक का निर्माण होने देगा। भविष्य के गर्भ में यह भी छिपा है कि तालिबान को ‘हार्ट आफ एशिया कान्फ्रेंस’ की उन वार्ताओं में कितनी दिलचस्पी होगी जिनमें अफगानिस्तान के विकास के लिए, क्षेत्रीय एकीकरण के लिए कई महत्वपूर्ण फ्रेमवर्क दिए जाते रहे हैं।

आशंका इस बात की भी है कि तालिबान के मजबूत होने के बाद इस्लामी चरमपंथी काकेसस क्षेत्र और रूस के चेचन्या प्रांत तक फैल जाएंगे। यही कारण है कि भारत के विदेश मंत्री ने हाल ही में रूस के विदेश मंत्री से मुलाकात की है और दोनों ने सामूहिक स्तर पर कहा है कि तालिबान को क्षेत्रीय स्थिरता और अफगान शांति सुरक्षा को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए। भारत के विदेश मंत्री वर्तमान में उन सभी क्षेत्रीय शक्तियों से कूटनीतिक स्तर पर मिलकर उनसे वार्ता में लगें हैं जिनकी सुरक्षा व्यवस्था पर तालिबान प्रभाव डाल सकता है। हाल ही में भारत के विदेश मंत्री ने ईरान के विदेश मंत्री जवाद जरीफ के साथ मुलाकात की है। भारतीय विदेश मंत्री ने तेहरान में नव-निर्वाचित राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी से मुलाकात कर उन्हें अफगानिस्तान तालिबान मुद्दे पर भारत के दृष्टिकोण से अवगत कराया। ठीक इसी समय तेहरान में अफगानिस्तान सरकार और तालिबान का एक प्रतिनिधि मंडल भी वहां मौजूद था। लेकिन भारत ने ईरान से द्विपक्षीय स्तर पर ही वार्ता की थी। शिया बहुल ईरान ने वैसे तो कभी तालिबान का खुला समर्थन नहीं किया है, लेकिन उसने कभी-कभी सुन्नी चरमपंथी संगठन तालिबान और अफगानिस्तान सरकार के प्रतिनिधियों के बीच शांति वार्ता की मेजबानी की है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि एक तरफ जहां अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद तालिबान पूरे अफगानिस्तान में इस्लामिक शासन की स्थापना के लिए एक के बाद एक जिलों को अपने नियंत्रण में लेता जा रहा है, वहीं अपने इस्लामिक शासन की स्थापना की वैधता के लिए तालिबान के प्रतिनिधि कुछ प्रमुख क्षेत्रीय शक्तियों के साथ वार्ता भी कर रहे हैं। हालांकि अब पहले वाला तालिबान नहीं रह गया है, अपने प्रभाव क्षेत्र और इस्लामिक गौरव की पुन: बहाली के लिए वह हठधíमता छोड़कर सक्रिय हुआ है। पहले तालिबान वार्ता नहीं करता था, उसे अपनी हिंसक गतिविधियों और ट्रांस इस्लामिक टेरर नेटवर्क के साथ गठजोड़ पर काफी भरोसा था, लेकिन जिस तरह से पिछले दो दशकों में दुनिया के प्रभावशाली देश और संगठन आतंकवाद निरोध के मुद्दे पर लामबंद हुए हैं, उससे तालिबान ने भी अपनी रणनीति में बदलाव किया है।

[अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार]