सोल्फेरिनो का युद्ध बना था आज के रेड क्रॉस स्थापना की वजह, कोविड-19 में भी निभा रहा भूमिका
स्विटजरलैंड के उद्योगपति जॉन हेनरी ने सोल्फेरिनो का युद्ध और इसमें तड़पते सैनिकों को अपनी आंखों से देखा था। तभी उन्हें ऐसी संस्था बनाने का विचार मन में आया था।
By Kamal VermaEdited By: Updated: Fri, 08 May 2020 03:04 PM (IST)
नई दिल्ली। रेड क्रॉस की स्थापना को 157 वर्ष हो चुके हैं। इतने वर्षों से ये संस्था लगातार मानवहितों और इंसान की जान बचाने के लिए पूरी दुनिया में काम कर रही है। कोविड-19 के प्रकोप के बीच ये संस्था पूरी दुनिया की विभिन्न स्वास्थ्य एजेंसियों और दूसरी वैश्विक एजेंसियों के साथ मिलकर काम कर रही है। ये संस्था दुनिया के कई देशों में जहां आइसोलेशन वार्ड बनाने में जुटी है तो वहीं इस जानलेवा वायरस से कैसे विश्व को मुक्ति दी जाए इसके शोध में भी अन्य एजेंसियों की मदद कर रही है। विश्व के गरीब देशों में कोरोना संक्रमितों को बचाने और उनके इलाज के लिए बनाए गए अस्थाई अस्पतालों में साफ-सफाई और वहां हाइजीन की समस्या पर भी ये संस्था नजर बनाए हुए है। इसके अलावा गरीब और जरूरतमंद देशों में कोरोना के मरीजों को बचाने के लिए वेंटिलेटर्स समेत दूसरी सुविधाओं को भी मुहैया करवा रही है। इंटरनेशनल कमेटी ऑफ रेड क्रॉस के अध्यक्ष पीटर म्यूरर का कहना है कि इस चुनौती से सभी को मिलकर निपटना होगा तभी इसमें जीत संभव है।
आपको बता दें कि दुनिया के किसी भी कोने में जब भी कोई प्राकृतिक आपदा या कोई बड़ा हादसा पेश हुआ है तो रेड क्रॉस हमेशा से ही राहतकार्य में सबसे आगे रहा है। रेडक्रॉस युद्ध में घायल लोंगों और आकस्मिक दुघर्टनाओं, आपातकाल में मदद करने के अलावा लोगों को स्वास्थ के प्रति जागरूक भी करती है। इसके अलावा यह उन कानूनों को प्रोत्साहित करती है जिससे युद्ध पीड़ितों की सुरक्षा होती है। इसकी स्थापना वर्ष 1863 में हुई थी इसका मुख्यालय स्विटजरलैंड के जनेवा में है । इसको दुनिया भर की सरकारों अलावा नेशनल रेड क्रॉस और रेड क्रिसेंट सोसायटीज की ओर से फंडिंग मिलती है।
8 मई यानी आज विश्व रेड क्रॉस डे है। यह दिवस रेडक्रॉस के संस्थापक और शान्ति के लिए पहले नोबल पुरस्कार विजेता जीन हेनरी ड्यूनैंट के जन्म दिन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। 8 मई 1828 को हेनरी का जन्म जिनेवा के एक अमीर परिवार में हुआ था। 1853 में उन्हें अल्जीरिया में स्विस कॉलोनी के निर्माण की जिम्मेदारी दी गई थी। जब वे वहां पर पहुंचे तो उन्हें एक गेंहू की पिसाई के लिए एक मील लगानी चाही। लेकिन इसके लिए उन्हें जमीन पर कोई रियायत नहीं दी जा रही थी जिसकी वजह से वे परेशान थे। कुछ समय बाद वे ट्यूनेशिया होते हुए 1859 में वापस जिनेवा आ गए। इसके बाद उन्होंने अल्जीरिया में व्यापारिक प्रतिष्ठान खोलने के मकसद से फ्रांस के सम्राट नेपोलियन तृतीय से मिलने की कोशिश की लेकिन हर बार उन्हें नाकामी ही हाथ लगी। निराश होकर वो इटली चले गए वहां पर उस वक्त सोल्फेरिनो का युद्ध चल रहा था। इस युद्ध में हर रोज हजारों की संख्या में सैनिक मारे जा रहे थे। घायल करहाते सैनिकों के इलाज का कोई साधन वहां पर उपलब्ध नहीं था।
इससे दुखी होकर जॉन ने कुछ लोगों को एकत्रित किया और उन घायल सैनिकों की मदद की। उनलोगों ने घायलों तक खाना पहुंचाया और उनके इलाज में मदद की। इतना ही नहीं जॉन और उनके साथियों ने इन सैनिकों के परिवारवालों को उनकी हालत की सूचना भी पहुंचाई। तीन वर्ष बाद जॉन ने एक किताब लिखी जिसमें इस युद्ध और इसमें घायल सैनिकों के बारे में काफी कुछ लिखा गया था।
इस किताब का नाम उन्होंने 'ए मेमरी ऑफ सोल्फेरिनो' (A Memory of Solferino) रखा था। इसमें उन्होंने बताया कि युद्ध भूमि में क्षत-विक्षत शरीर असहाय पड़े थे। सैकड़ों की संख्या में सैनिक अपने जख्मों की वजह से तड़प रहे थे और उन्हें दवा देने या पानी पिलाने वाला भी वहां पर कोई नहीं था। सेना प्रमुखों ने भी इन घायल सैनिकों को मरने के लिए छोड़ दिया था। इस किताब में उन्होंने एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय सोसायटी की स्थापना का सुझाव दिया था जो ऐसे समय में इन घायल सैनिकों की मदद को आगे आ सके।
इसमें ये भी कहा गया था कि युद्ध के अलावा ये सोसायटी दूसरे मजबूर लोगों की भी मदद को आगे आए। उनका ये सुझाव सरकार को भी पसंद आया और फरवरी, 1863 में जिनेवा पब्लिक वेल्फेयर सोसायटी ने एक कमेटी का गठन किया। इस कमेटी में जॉन हेनरी समेत स्विटजरलैंड के पांच नागरिक शामिल थे जिन्हें सुझावों पर गौर करना था। इसमें सेना के जनरल के अलावा वकील, डॉक्टर और दूसरे क्षेत्र के लोग भी शामिल थे। जॉन एक वर्ष तक इस कमेटी के अध्यक्ष और बाद में मानद अध्यक्ष भी बनाए गए।
अक्टूबर 1863 में इस कमेटी की तरफ से एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें 16 देशों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था। इसमें हेनरी के दिए प्रस्तावों को अपनाया गया। इतना ही नहीं इसी सम्मेलन के दौरान इस कमेटी का एक अंतरराष्ट्रीय प्रतीक चिह्न का भी चयन किया गया। इसमें सभी देशों से अपील की गई कि वह अपने यहां पर ऐसे संगठन और संस्था का गठन करें जो मजबूर और गरीब लोगों के अलावा घायल सैनिकों की मदद कर सकें। अलग-अलग देशों द्वारा शुरू की गई संस्थाओं को ही आज हम नेशनल रेड क्रॉस सोसायटीज के नाम से जानते हैं। बाकी पांच सदस्यों वाली कमेटी को शुरू में International Committee for Relief to the Wounded के नाम से जाना था। बाद में इसका नाम इंटरनेशनल कमेटी ऑफ द रेड क्रॉस कर दिया गया। गुस्तावे मोएनियर इसके पहले अध्यक्ष बने। उनकी इसी सेवा के लिए वर्ष 1901 में हेनरी डिनेट को पहला नोबेल शांति पुरस्कार मिला। 23 अक्टूबर को हेनरी का निधन हो गया था।
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