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Jagran Exclusive: 'महिलाएं स्‍वयं में उपेक्षित वर्ग, कोटा में कोटा न हो', डॉ. चंद्रकला पाडिया से खास बातचीत

लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रविधान करने वाले नारी शक्ति वंदन विधेयक पर संसद की मुहर लग चुकी है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र की प्रोफेसर रहीं महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय बीकानेर की पूर्व कुलपति डॉ. चंद्रकला पाडिया मानती हैं कि भारतीय ज्ञान परंपरा में स्त्रियां पुरुषों के समकक्ष तो रही ही हैं कहीं-कहीं उनका स्थान पुरुषों से भी उच्च है।

By Jagran NewsEdited By: Devshanker ChovdharyUpdated: Sat, 23 Sep 2023 05:10 PM (IST)
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जागरण ने डॉ. चंद्रकला पाडिया से की खास बातचीत। (फोटो- जागरण)
बसंत कुमारः लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रविधान करने वाले नारी शक्ति वंदन विधेयक पर संसद की मुहर लग चुकी है। भारतीय जनमानस के लिए यह गौरव की बात है कि राज्यसभा में उपस्थित सभी सदस्यों ने विधेयक के पक्ष में मतदान किया।

महिला आरक्षण के बिल का 27 साल के कठिन इंतजार के बाद दोनों सदनों में पारित होना अपने आप में ऐतिहासिक कदम है। भारतीय सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर भी इस विधेयक का सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। यह सदी महिलाओं की है। प्रक्रियागत प्रविधानों को पूरा करने के क्रम में अभी आरक्षण के लागू होने में कुछ और साल का इंतजार करना होगा लेकिन देश का राजनीतिक चेहरा अभी से बदलेगा। यह परिवर्तन भारत के लिए अपरिहार्य भी था।

इंडियन इंस्टीट्यूट आफ एडवांस स्टडीज की पहली महिला अध्यक्ष एवं काशी हिंदू विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र की प्रोफेसर रहीं डाक्टर चन्द्रकला पाडिया मानती हैं कि भारतीय ज्ञान परंपरा में स्त्रियां पुरुषों के समकक्ष तो रही ही हैं, कहीं-कहीं उनका स्थान पुरुषों से भी उच्च है। आवश्यकता है कि भारतीय स्त्री मात्र पुरुषों की तरह बनने की कोशिश न करे बल्कि अपने स्त्रीजन्य गुणों के साथ एक सभ्य और सद्गुणी समाज के निर्माण में अवदान दे।

तभी महादेवी वर्मा का कथन फलीभूत होगा कि वह भारत में ऐसी स्त्रियों को देखना चाहती हैं, जिनमें एक ओर आकाश में उड़ने की क्षमता हो दूसरी ओर शाम को अपने नीड़ में लौट आने की उत्सुकता भी हो। प्रस्तुत है चन्द्रकला पाडिया से भारतीय बसंत कुमार की बातचीत के प्रमुख अंश-

प्रश्नः महिला आरक्षण का क्या राजनीतिक प्रभाव पड़ेगा? भारतीय समाज में इसका क्या असर होगा?

जवाब- देखिए, मेरा मानना है कि इसका बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। सबसे पहले नारी सम्मान बढ़ेगा। समाज में इनका दर्जा ऊपर उठेगा। इन्हें मात्र गृहस्थी चलाने वाली और बच्चा पैदा करने वाली मशीन के रूप में नहीं देखा जाएगा। महिलाओं में शिक्षा की होड़ होगी, योग्यता की स्पर्धा होगी। आर्थिक स्वावलंबन की होड़ होगी। स्त्रीजन्य गुणों का महत्व बढ़ेगा। राजनीतिक विज्ञान भी आरक्षण को सामाजिक न्याय की आवश्यक शर्त के रूप में देखता है। पश्चिम के चिंतकों ने भावनाओं से अधिक बुद्धि को महत्व दिया और उन लोगों ने स्त्री में बुद्धि के अस्तित्व को बहुत कम पाया। अरस्तू, रूसो या हीगल ने ऐसा दावा किया। हमारी चिंतन परंपरा में ऐसी बात नहीं है। हमारे ऋषियों ने वेदों, उपनिषदों एवं अन्य ग्रंथों में स्त्री को इसलिए अधिक महत्व दिया क्योंकि उनके पास भावनाओं का भंडार होता है। भावना से ही किसी संस्कृति और सभ्यता का निर्माण और उसका उत्तरोत्तर विकास होता है। वह देश की भावी संतानों में उचित संस्कार डालती हैं। यह संस्‍कार गुणसूत्र के रूप में काम करता है। इससे सामाजिक संवेदनशीलता बढ़ेगी और सामाजिक सहयोग एवं सद्भाव का विकास होगा। भारतीय सेना से लेकर सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। इसके बिना विकसित भारत का सपना साकार नहीं हो सकेगा। गांव-गांव में परिवार की आर्थिकी में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। महिला स्वयं सहायता समूह के माध्यम से रोजगार सृजन हो रहा है और स्वनिधि या मुद्रा योजनाओं में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी ने आधी आबादी के सशक्त होने का मार्ग प्रशस्त किया है। सरकार की महिलाओं के सशक्तीकरण के सापेक्ष बनी नीतियों ने भी इसमें सहायता की है। कई राज्यों में प्रधानमंत्री आवास का सृजन हो या घरौनी का मालिकाना हक हो-अब सबमें महिलाओं का नामकरण उनकी सामाजिक हैसियत को बढ़ा रहा है। ग्रामीण समाज में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है। महिला प्रधान नेतृत्वकर्ता के रूप में स्थापित हो चुकी हैं।

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प्रश्नः नारी शक्ति वंदन विधेयक पारित हो गया। इसमें ओबीसी के लिए कोटा में कोटा की मांग की जा रही है। महिला आरक्षण को जातियों में बांटना चाहिए या नहीं? महिला किसी जाति-वर्ग की हो, क्या उसके सामने एक जैसी चुनौतियां हैं?

जवाब- मेरी दृष्टि में महिला आरक्षण को जातियों में बांटना कहीं से भी उचित नहीं है। शताब्दियों के शोषण और मूल अधिकारों से वंचित रहने के कारण महिलाएं स्वयं में एक उपेक्षित वर्ग बन गई हैं, जिनकी पीठ पर बैठ कर पुरुष वर्ग ने अपना इतिहास लिखा है। यदि सभी जातियों और वर्गों की महिलाएं एकत्रित नहीं होंगी तो औरतों का सशक्तीकरण अपने वास्तविक स्वरूप में संभव नहीं हो सकेगा। महिलाएं आपसी मतभेदों में उलझ कर रह जाएंगी और एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लग जाएंगी। सभी जातियों और वर्गों की महिलाओं को एक प्रकार के अधिकार एवं सुरक्षा मिले तभी राजनीति में उनकी वास्तविक भागीदारी हो सकेगी। देश बदला है और समय के दबाव में यह परिवर्तन हुआ है। इस आरक्षण से नारी सम्मान का नया युग आकार लेगा। वर्ष 1996 में जब पहली बार एचडी देवगौड़ा सरकार ने लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक पेश किया था तो मुझे याद है कुछ दलों के नेता अपने सांसदों को सदन में जाने से रोक रहे थे। ऐसा वे इसलिए कर रहे थे ताकि सदन का कोरम ही पूरा न हो सके। अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल में भी यह बिल पारित नहीं हो सका। डाक्टर मनमोहन सिंह की सरकार में 2008 में इसे राज्यसभा में पेश किया गया, जहां दो साल बाद यह पारित तो हुआ लेकिन लोकसभा में लालू यादव और मुलायम सिंह जैसे नेताओं के प्रखर विरोध के कारण अटका रहा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्ष में नारी शक्ति वंदन अधिनियम को पारित कराने में सफलता पाई है। यह प्रसन्नता की बात है कि सभी दलों का समवेत समर्थन मिला है। ओबीसी महिलाओं को इसमें अलग से आरक्षण की मांग का स्वर अभी कायम है, पर यह सुझाव के स्तर पर है, अब जिद के स्तर पर नहीं। लेकिन यह सब अनायास नहीं है। अब हर राजनीतिक दल बखूबी समझते हैं कि समाज में वोट देने की प्रवृति और क्षमता आधी आबादी के स्तर पर बढ़ी है। स्वनिर्णय से महिलाएं वोट करने लगी हैं। इस बड़े वर्ग के हक और सम्मान की अनदेखी बहुत दिनों तक नहीं की जा सकती है। बिल में ओबीसी कोटा नहीं होने के प्रतिवाद में हंगामा करने वाले दल भी वर्तमान रूप में महिला आरक्षण बिल का समर्थन कर रहे हैं। मेरा मानना है कि महिला आरक्षण को जातिगत आधार पर बांटने से इसका वास्तविक लक्ष्य यानी सशक्तीकरण का भाव कमजोर हो जाएगा या खो जाएगा। महिला किसी जाति-वर्ग की हो, उनके सामने एक जैसी चुनौतियां विद्यमान हैं। मुझे महादेवी वर्मा का संस्मरण याद है कि जब उन्हें अपने काम के लिए बहुत ही मामूली रकम मिली थी और उनके अंदर इसी रुपये ने 'मैं भी कमा सकती हूं ' का आत्मविश्वास भरा था।

प्रश्नः वैदिक युग में महिलाओं को हर क्षेत्र में समानता का अधिकार था, ऐसा क्या हुआ कि उन्हें चारदीवारी और गृहस्थी में कैद कर दिया गया ?

जवाब- वैदिक युग भारत का स्वर्णिम युग था। इस समय पुरुषों के समान ही शिक्षा ग्रहण करने, वेद अध्ययन या अन्य धार्मिक क्रियाओं में भाग लेने का अधिकार भारतीय महिलाओं को था। ब्रह्मवादिनी महिलाओं की परंपरा थी। स्त्रियों के उपनयन संस्कार तक होते थे। अपाला, मैत्रेयी, गार्गी जैसी विदुषी महिलाओं का इतिहास में नाम दर्ज है। हमारी सनातन परंपरा में राधाकृष्ण, सीताराम या श्रीहरि हैं। सरस्वती, दुर्गा और लक्ष्मी यानी विद्या, शक्ति और धन के लिए भी देवी उपासना ही प्रचलित है। वेद यदि पुरुष को 'ओजस्वान' कहता है तो स्त्री को 'ओजस्वती'। पर उत्तर वैदिक काल में अनेक नए धार्मिक ग्रंथों का सृजन हुआ। सैद्धांतिक रूप से स्त्रियों के अधिकार तो वैदिक काल जैसे ही थे लेकिन व्यवहार में स्त्री स्वतंत्रता और अधिकार पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगने लगे। हालांकि इसी काल में बौद्ध् और जैन धर्म का प्रभाव बढ़ा। दूसरी ओर शिक्षा का प्रचलन और वेद मंत्रों के उच्चारण से महिलाओं को अलग-थलग किया गया। धर्मशास्त्र काल के बाद मध्य काल में खासकर मुस्लिम शासन काल में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति का बहुत पतन हुआ। धर्म के नाम पर इस काल में सती प्रथा, बालिका हत्या, बाल विवाह, पर्दा प्रथा का प्रचलन जोर पकड़ने लगा। इसी काल में मुस्लिम आक्रमण भी हिंदू स्त्रियों की समस्याओं को बढ़ाने का बड़ा कारण हुआ। मुस्लिम आक्रांताओं से बचने के लिए बाल विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा या जौहर की प्रथा ने व्यापक रूप ले लिया। मुसलमानों के हाथों अपनी बहू-बेटियों की रक्षा हिंदू परिवारों के लिए कठिन हो गया था। इस काल में भारतीय नारी की स्थिति सबसे खराब हुई। यह दौर लंबा चला। जिस अकबर को इतिहासकार कई जगहों पर महान कहते हैं, उसके शासन काल में भी हिंदू घरों की बहू-बेटियों की स्थिति अच्छी नहीं थी। उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दी के आरंभ में परिवर्तन की शुरुआत हुई। राजा राममोहन राय तथा आर्य समाज के प्रयत्नों से स्त्री शिक्षा को आरंभ किया गया। ईश्वरचंद विद्यासागर ने नारी शिक्षा के लिए बड़ा अवदान दिया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने स्पष्ट किया कि वेद में ऐसी कुप्रथाओं का जिक्र नहीं है। बंकिमचंद्र, केशवचंद्र सेन आदि समाज सुधारकों ने बहुत प्रयास किए। स्वामी विवेकानंद और उनके शिष्यों ने भी नारी जागृति के प्रयास किए। भारत में स्वतंत्रता के समय एक हजार स्त्रियों में मात्र 54 ही साक्षर थीं। वैदिक काल की हमारी स्त्री परंपरा का क्षरण किस स्तर तक हो गया था, इसे समझा जा सकता है। विद्यानिवास मिश्र जी ने लिखा है कि परंपरा एक पेड़ की तरह है, जिसके पल्लवन के लिए जरूरी है कि उसके आस-पास घास और झाड़ियों को पनपने से रोका जाए। यहां उल्टा हुआ। हमारी सनातन परंपरा पर विदेशी आक्रमण हुए और वही हावी हो गए। हिंदू स्त्रियों का सुंदर होना अभिशाप होने लगा। उनकी रक्षा में कई कुरीतियां समाज में फैल गईं। इस समय के पुरुष समाज की विवशता थी कि वह न चाहते हुए भी बाल विवाह, पर्दा प्रथा या सती प्रथा का समर्थन करे।

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प्रश्नः महिला आरक्षण और देश की आर्थिक स्थिति में क्या कोई संबंध नहीं है। जैसे रवांडा की संसद में 61 प्रतिशत महिलाएं हैं और जापान में 10 प्रतिशत?

जवाब- महिला आरक्षण का देश की आर्थिक स्थिति से कोई संबंध नहीं होता, यह कथन तथ्यपरक नहीं है। रवांडा को हम उदाहरण भी नहीं बना सकते। रवांडा की स्थितियां विचित्र रही हैं। रवांडा हमेशा आंतरिक संघर्ष और अशांति से अभिशप्त रहा है। यहां की कुल आबादी में हूतू समुदाय का हिस्सा 85 प्रतिशत है, लेकिन लंबे समय से तुत्सी अल्पसंख्यकों का देश पर दबदबा रहा था फिर एक समय साल 1959 का आया जब हूतू ने तुत्सी राजतंत्र को उखाड़ फेंका था। काफी संख्या में तुत्सी लोग अपनी जान बचाकर युगांडा समेत दूसरे पड़ोसी मुल्कों में पलायन कर गए। इसके बाद एक निष्कासित तुत्सी समूह ने विद्रोही संगठन रवांडा पैट्रिएक फ्रंट (आरपीएफ) बनाया। एक समय 1994 का आया, जब नरसंहार में करीब आठ लाख लोग मारे गए। यहां तुत्सी समुदाय की तमाम महिलाओं को सेक्स स्लेव बनाकर रखा गया। इसलिए सदन में महिलाओं की स्थिति के लिए रवांडा का उदाहरण ठीक नहीं है। यह सच है कि रवांडा ने दुनिया की पहली महिला प्रभुत्व वाली संसद बनाई। यहां एक करोड़ 35 लाख की आबादी है। 80 सांसदों में करीब 50 महिलाएं हैं। न्यूजीलैंड, मैक्सिको, यूएई, क्यूबा जैसे देशों में भी संसद में महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक है। कानूनी तौर पर विश्व में महिलाओं को आरक्षण देने वाला पहला देश अर्जेंटीना है। उसने 1991 में 30 प्रतिशत महिला आरक्षण को अनिवार्य किया। इसे केस स्टडी के रूप में हम देख सकते हैं। चूंकि 1991 में शुरू हुई व्यवस्था पल्लवित हुई और मौजूदा समय में अर्जेंटीना की संसद में महिला प्रतिनिधित्व करीब 45 प्रतिशत का है, इसलिए भारत के लिए यह उदाहरण आशाजनक हो सकता है। जहां तक जापान की बात है, वहां भी नारी जीवन शोषित और दमित है। वहां परिवार और समाज में औरतों की स्थिति ठीक नहीं है। स्त्री-पुरुष के दांपत्य जीवन में भी कई बार उम्र का फासला बहुत ज्यादा होता है। जापान के कई परिवारों में किसी पुरुष की दूसरी पत्नी और उसके बेटे-बेटी की उम्र एक जैसी हो जाती है। यहां स्‍त्री जीवन में स्‍वच्‍छंदता है। देश की आर्थिक स्थिति से ज्यादा सामाजिक स्थिति महत्वपूर्ण कारक है। संपन्‍न देश होने के बाद भी जापान में स्‍त्री प्रतिनिधित्व के स्‍तर पर अभी स्‍वतंत्रता का अभाव है।

प्रश्नः पंचायती राज की तरह विधानसभा और लोकसभा में भी सांसद पति और विधायक पति की परंपरा बनने या बढ़ने का खतरा तो नहीं होगा?

जवाब- यह आशंका निर्मूल साबित होगी। अभी यह लगता है कि हमेशा पुरुषों यानी पति की बैसाखी पर ही किसी महिला का राजनीतिक भविष्य टिका है, लेकिन धरातल पर स्थितियां बदली हैं। भारत के लिए यह शुभ है कि यहां पंचायती राज का आरक्षण फलीभूत हो चुका है। पंचायती राज एक प्रकार से नर्सरी है, जिसका फल हमें विधानसभा और लोकसभा में महिलाओं की मजबूत भागीदारी के रूप में दिखेगा। इस समय भी बिना आरक्षण लोकसभा में महिलाओं की भागीदारी करीब 15 प्रतिशत के आसपास है। विधानसभाओं में भी महिलाओं की भागीदारी है। संसद और विधानसभा में यहां तक केंद्रीय मंत्री के रूप में अनेक महिलाओं का अस्तित्व स्वनिर्मित है। वह अपने पति की छवि या कृतित्व पर आश्रित नहीं हैं। यह कोई नई बात नहीं है। अपने यहां तो आजादी के आंदोलन में, सामाजिक आंदोलनों में और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकार, शासन-प्रशासन में नारी जगत ने धरा से आसमान तक अपनी कीर्ति पताका लहराई है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, विधानसभा अध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण विधायी पद पर भी आरक्षण से पूर्व महिला नेतृत्व का प्रदर्शन हो चुका है। इसलिए यह आशंका निर्मूल है कि प्रधान पति की तरह सांसद-विधायक पति की परंपरा सशक्त हो जाएगी। अपवाद हर चीज का होता है। अभी कुछ दिन पूर्व मैं चंडीगढ़ गई थी। यहां पंचायत प्रधान का सम्मेलन था, जिसमें पड़ोसी राज्यों की महिला प्रतिनिधि भी आई थीं। मुझे सम्मेलन के दौरान कई महिला प्रधानों से मिलने का मौका मिला और हमने पाया कि उनमें दृढ़ आत्मविश्वास आया है। महिलाओं ने अपने अनुभव मुझसे साझा किए और बताया कि उनका परिवार और समाज में सम्मान बढ़ा है। वैसे भी प्रधानी का दायरा बहुत सीमित होता है। सांसद पद की उम्मीदवारी भी आसान नहीं है। जो महिलाएं मैदान में आएंगी वे अवश्य ही शिक्षित और आत्मविश्वास से लबरेज होंगी। जैसे-जैसे महिलाएं राजनीति में कदम आगे बढ़ाएंगी वैसे-वैसे वह पुरुष राजनेताओं के नियंत्रण से मुक्त होती जाएंगी। दुनिया की संसदों में बीते दो दशक में महिलाओं की संख्या दोगुनी हुई है। 23 देशों में 40 प्रतिशत से अधिक सांसद महिलाएं हैं। यह सब युग का परिवर्तन है, जिसे रोकना मुश्किल है।

प्रश्नः संविधान सभा में स्वयं महिला सदस्यों ने महिला आरक्षण का विरोध किया था। इसके बाद ऐसा क्या हुआ कि इसकी आवश्यकता पड़ गई?

जवाब- संविधान सभा ने महिलाओं के आरक्षण के बारे में विचार किया था। परंतु संविधान सभा में जिन 15 स्त्रियों का प्रतिनिधित्व था, उनमें से कई स्त्रियों ने ही महिला आरक्षण का विरोध किया। इस सभा की एक मात्र दलित महिला दक्षयानी वेलायुदन ने संविधान सभा में स्पष्ट रूप से कहा था कि व्यक्तिगत रूप से वह किसी भी स्थान पर और किसी भी प्रकार के आरक्षण के खिलाफ हैं। संविधान सभा की दूसरी महिला सदस्य रेणुका रे ने भी महिला आरक्षण का पुरजोर विरोध किया था। उनका कहना था कि कोई भी महिला जो योग्य होगी, वह प्रतिनिधि संस्थाओं में अपना स्थान प्राप्त कर लेगी। विजयालक्ष्मी पंडित ने संविधान सभा में अपनी योग्यता के आधार पर स्थान पाया और कालांतर में वह सोवियत संघ में भारत की राजदूत हुईं। संविधान सभा की महिला सदस्यों का मानना था कि वे अपने लिंग के आधार पर नहीं, अपनी योग्यता के आधार पर नारी जगत को सम्मान पाने का हकदार बनाएंगी। उनका मानना था कि आरक्षण से आई महिलाएं कभी व्यवस्थापिका में समानता का दर्जा नहीं पा सकेंगी। थोड़ा और पीछे जाएं तो सरोजिनी नायडू ने 1931 में स्त्रियों के प्रतिनिधि के रूप में गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया था। तब उन्होंने अलग निर्वाचन क्षेत्र या व्यवस्था का विरोध किया था और कहा था कि भारतीय नारी आंदोलन पश्चिम के नारीवादी आंदोलन की तरह एकरूपता और समानता में विश्वास नहीं करता, बल्कि वह पूरकता और विभिन्नता में विश्वास करता है।

प्रश्नः क्या सीटें आरक्षित होने पर पुरुष राजनेता अपनी पत्नियों या परिवार की ही अन्य महिलाओं को आगे बढ़ाने का प्रयास नहीं करेंगे, जैसा कि उपचुनाव में प्राय: देखने को मिलता है। जबकि आरक्षण का उद्देश्य राजनीति में अधिक से अधिक महिलाओं की सहभागिता सुनिश्चित करना है?

जवाब-यह तो बिना आरक्षण भी संभव है। हमें इतना निराशावादी होने की आवश्यकता नहीं है। अनके उदाहरण ऐसे हैं जब खुद की कुर्सी पर खतरा हुआ तो नेताओं ने पत्नी या परिवार की अन्य महिला सदस्य को आगे बढ़ाया। मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पर बिठाया गया। इससे आरक्षण का जुड़ाव नहीं है। आरक्षण का जो मूल उद्देश्य है, वह दो-चार लोगों के विपरीत राह पर चल लेने से प्रभावित नहीं हो जाएगा। अभी 15 साल का प्रविधान लागू होने जा रहा है। यह विचारणीय है कि महिलाओं को भी समयनिष्ठ तरीके से ही आरक्षण की सीढ़ी दी जानी चाहिए। हमेशा के लिए इस प्रकार का सहारा किसी को सशक्त नहीं कर सकता है।