Jagran Exclusive: 'महिलाएं स्वयं में उपेक्षित वर्ग, कोटा में कोटा न हो', डॉ. चंद्रकला पाडिया से खास बातचीत
लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रविधान करने वाले नारी शक्ति वंदन विधेयक पर संसद की मुहर लग चुकी है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र की प्रोफेसर रहीं महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय बीकानेर की पूर्व कुलपति डॉ. चंद्रकला पाडिया मानती हैं कि भारतीय ज्ञान परंपरा में स्त्रियां पुरुषों के समकक्ष तो रही ही हैं कहीं-कहीं उनका स्थान पुरुषों से भी उच्च है।
प्रश्नः महिला आरक्षण का क्या राजनीतिक प्रभाव पड़ेगा? भारतीय समाज में इसका क्या असर होगा?
जवाब- देखिए, मेरा मानना है कि इसका बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। सबसे पहले नारी सम्मान बढ़ेगा। समाज में इनका दर्जा ऊपर उठेगा। इन्हें मात्र गृहस्थी चलाने वाली और बच्चा पैदा करने वाली मशीन के रूप में नहीं देखा जाएगा। महिलाओं में शिक्षा की होड़ होगी, योग्यता की स्पर्धा होगी। आर्थिक स्वावलंबन की होड़ होगी। स्त्रीजन्य गुणों का महत्व बढ़ेगा। राजनीतिक विज्ञान भी आरक्षण को सामाजिक न्याय की आवश्यक शर्त के रूप में देखता है। पश्चिम के चिंतकों ने भावनाओं से अधिक बुद्धि को महत्व दिया और उन लोगों ने स्त्री में बुद्धि के अस्तित्व को बहुत कम पाया। अरस्तू, रूसो या हीगल ने ऐसा दावा किया। हमारी चिंतन परंपरा में ऐसी बात नहीं है। हमारे ऋषियों ने वेदों, उपनिषदों एवं अन्य ग्रंथों में स्त्री को इसलिए अधिक महत्व दिया क्योंकि उनके पास भावनाओं का भंडार होता है। भावना से ही किसी संस्कृति और सभ्यता का निर्माण और उसका उत्तरोत्तर विकास होता है। वह देश की भावी संतानों में उचित संस्कार डालती हैं। यह संस्कार गुणसूत्र के रूप में काम करता है। इससे सामाजिक संवेदनशीलता बढ़ेगी और सामाजिक सहयोग एवं सद्भाव का विकास होगा। भारतीय सेना से लेकर सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। इसके बिना विकसित भारत का सपना साकार नहीं हो सकेगा। गांव-गांव में परिवार की आर्थिकी में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। महिला स्वयं सहायता समूह के माध्यम से रोजगार सृजन हो रहा है और स्वनिधि या मुद्रा योजनाओं में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी ने आधी आबादी के सशक्त होने का मार्ग प्रशस्त किया है। सरकार की महिलाओं के सशक्तीकरण के सापेक्ष बनी नीतियों ने भी इसमें सहायता की है। कई राज्यों में प्रधानमंत्री आवास का सृजन हो या घरौनी का मालिकाना हक हो-अब सबमें महिलाओं का नामकरण उनकी सामाजिक हैसियत को बढ़ा रहा है। ग्रामीण समाज में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है। महिला प्रधान नेतृत्वकर्ता के रूप में स्थापित हो चुकी हैं।प्रश्नः नारी शक्ति वंदन विधेयक पारित हो गया। इसमें ओबीसी के लिए कोटा में कोटा की मांग की जा रही है। महिला आरक्षण को जातियों में बांटना चाहिए या नहीं? महिला किसी जाति-वर्ग की हो, क्या उसके सामने एक जैसी चुनौतियां हैं?
जवाब- मेरी दृष्टि में महिला आरक्षण को जातियों में बांटना कहीं से भी उचित नहीं है। शताब्दियों के शोषण और मूल अधिकारों से वंचित रहने के कारण महिलाएं स्वयं में एक उपेक्षित वर्ग बन गई हैं, जिनकी पीठ पर बैठ कर पुरुष वर्ग ने अपना इतिहास लिखा है। यदि सभी जातियों और वर्गों की महिलाएं एकत्रित नहीं होंगी तो औरतों का सशक्तीकरण अपने वास्तविक स्वरूप में संभव नहीं हो सकेगा। महिलाएं आपसी मतभेदों में उलझ कर रह जाएंगी और एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लग जाएंगी। सभी जातियों और वर्गों की महिलाओं को एक प्रकार के अधिकार एवं सुरक्षा मिले तभी राजनीति में उनकी वास्तविक भागीदारी हो सकेगी। देश बदला है और समय के दबाव में यह परिवर्तन हुआ है। इस आरक्षण से नारी सम्मान का नया युग आकार लेगा। वर्ष 1996 में जब पहली बार एचडी देवगौड़ा सरकार ने लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक पेश किया था तो मुझे याद है कुछ दलों के नेता अपने सांसदों को सदन में जाने से रोक रहे थे। ऐसा वे इसलिए कर रहे थे ताकि सदन का कोरम ही पूरा न हो सके। अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल में भी यह बिल पारित नहीं हो सका। डाक्टर मनमोहन सिंह की सरकार में 2008 में इसे राज्यसभा में पेश किया गया, जहां दो साल बाद यह पारित तो हुआ लेकिन लोकसभा में लालू यादव और मुलायम सिंह जैसे नेताओं के प्रखर विरोध के कारण अटका रहा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्ष में नारी शक्ति वंदन अधिनियम को पारित कराने में सफलता पाई है। यह प्रसन्नता की बात है कि सभी दलों का समवेत समर्थन मिला है। ओबीसी महिलाओं को इसमें अलग से आरक्षण की मांग का स्वर अभी कायम है, पर यह सुझाव के स्तर पर है, अब जिद के स्तर पर नहीं। लेकिन यह सब अनायास नहीं है। अब हर राजनीतिक दल बखूबी समझते हैं कि समाज में वोट देने की प्रवृति और क्षमता आधी आबादी के स्तर पर बढ़ी है। स्वनिर्णय से महिलाएं वोट करने लगी हैं। इस बड़े वर्ग के हक और सम्मान की अनदेखी बहुत दिनों तक नहीं की जा सकती है। बिल में ओबीसी कोटा नहीं होने के प्रतिवाद में हंगामा करने वाले दल भी वर्तमान रूप में महिला आरक्षण बिल का समर्थन कर रहे हैं। मेरा मानना है कि महिला आरक्षण को जातिगत आधार पर बांटने से इसका वास्तविक लक्ष्य यानी सशक्तीकरण का भाव कमजोर हो जाएगा या खो जाएगा। महिला किसी जाति-वर्ग की हो, उनके सामने एक जैसी चुनौतियां विद्यमान हैं। मुझे महादेवी वर्मा का संस्मरण याद है कि जब उन्हें अपने काम के लिए बहुत ही मामूली रकम मिली थी और उनके अंदर इसी रुपये ने 'मैं भी कमा सकती हूं ' का आत्मविश्वास भरा था।प्रश्नः वैदिक युग में महिलाओं को हर क्षेत्र में समानता का अधिकार था, ऐसा क्या हुआ कि उन्हें चारदीवारी और गृहस्थी में कैद कर दिया गया ?
जवाब- वैदिक युग भारत का स्वर्णिम युग था। इस समय पुरुषों के समान ही शिक्षा ग्रहण करने, वेद अध्ययन या अन्य धार्मिक क्रियाओं में भाग लेने का अधिकार भारतीय महिलाओं को था। ब्रह्मवादिनी महिलाओं की परंपरा थी। स्त्रियों के उपनयन संस्कार तक होते थे। अपाला, मैत्रेयी, गार्गी जैसी विदुषी महिलाओं का इतिहास में नाम दर्ज है। हमारी सनातन परंपरा में राधाकृष्ण, सीताराम या श्रीहरि हैं। सरस्वती, दुर्गा और लक्ष्मी यानी विद्या, शक्ति और धन के लिए भी देवी उपासना ही प्रचलित है। वेद यदि पुरुष को 'ओजस्वान' कहता है तो स्त्री को 'ओजस्वती'। पर उत्तर वैदिक काल में अनेक नए धार्मिक ग्रंथों का सृजन हुआ। सैद्धांतिक रूप से स्त्रियों के अधिकार तो वैदिक काल जैसे ही थे लेकिन व्यवहार में स्त्री स्वतंत्रता और अधिकार पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगने लगे। हालांकि इसी काल में बौद्ध् और जैन धर्म का प्रभाव बढ़ा। दूसरी ओर शिक्षा का प्रचलन और वेद मंत्रों के उच्चारण से महिलाओं को अलग-थलग किया गया। धर्मशास्त्र काल के बाद मध्य काल में खासकर मुस्लिम शासन काल में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति का बहुत पतन हुआ। धर्म के नाम पर इस काल में सती प्रथा, बालिका हत्या, बाल विवाह, पर्दा प्रथा का प्रचलन जोर पकड़ने लगा। इसी काल में मुस्लिम आक्रमण भी हिंदू स्त्रियों की समस्याओं को बढ़ाने का बड़ा कारण हुआ। मुस्लिम आक्रांताओं से बचने के लिए बाल विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा या जौहर की प्रथा ने व्यापक रूप ले लिया। मुसलमानों के हाथों अपनी बहू-बेटियों की रक्षा हिंदू परिवारों के लिए कठिन हो गया था। इस काल में भारतीय नारी की स्थिति सबसे खराब हुई। यह दौर लंबा चला। जिस अकबर को इतिहासकार कई जगहों पर महान कहते हैं, उसके शासन काल में भी हिंदू घरों की बहू-बेटियों की स्थिति अच्छी नहीं थी। उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दी के आरंभ में परिवर्तन की शुरुआत हुई। राजा राममोहन राय तथा आर्य समाज के प्रयत्नों से स्त्री शिक्षा को आरंभ किया गया। ईश्वरचंद विद्यासागर ने नारी शिक्षा के लिए बड़ा अवदान दिया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने स्पष्ट किया कि वेद में ऐसी कुप्रथाओं का जिक्र नहीं है। बंकिमचंद्र, केशवचंद्र सेन आदि समाज सुधारकों ने बहुत प्रयास किए। स्वामी विवेकानंद और उनके शिष्यों ने भी नारी जागृति के प्रयास किए। भारत में स्वतंत्रता के समय एक हजार स्त्रियों में मात्र 54 ही साक्षर थीं। वैदिक काल की हमारी स्त्री परंपरा का क्षरण किस स्तर तक हो गया था, इसे समझा जा सकता है। विद्यानिवास मिश्र जी ने लिखा है कि परंपरा एक पेड़ की तरह है, जिसके पल्लवन के लिए जरूरी है कि उसके आस-पास घास और झाड़ियों को पनपने से रोका जाए। यहां उल्टा हुआ। हमारी सनातन परंपरा पर विदेशी आक्रमण हुए और वही हावी हो गए। हिंदू स्त्रियों का सुंदर होना अभिशाप होने लगा। उनकी रक्षा में कई कुरीतियां समाज में फैल गईं। इस समय के पुरुष समाज की विवशता थी कि वह न चाहते हुए भी बाल विवाह, पर्दा प्रथा या सती प्रथा का समर्थन करे। जागरण Exclusive: 'केंद्र ने G20 के लिए एक पैसा नहीं दिया', आतिशी ने मुश्किल सवालों के बेबाकी से दिए जवाब