पत्थरबाजी और आतंकी घटनाओं से इतर जम्मू कश्मीर का एक सच यह भी
स्वच्छता अभियान के एक भी सरकारी पोस्टर और नारों के बिना श्रीनगर शहर, बड़े-बड़े महानगरों के बनिस्बत ज्यादा साफ-सुथरा दिखा।
जाहिद खान
कश्मीर में आकर आपको कैसा लगा? जब कश्मीरियों से हमारी बात की शुरुआत हुई तो पहला सवाल उनका ये होता था। ‘शानदार! यहां के लोग लाजवाब!’ यह जवाब सुनकर उनके चेहरों पर मुस्कान फैल जाती। ‘कोई डर लगा?’, ‘आपको कहीं कोई परेशानी हुई ?’ बेसाख्ता अगले सवाल उनके ये होते। ‘नहीं कोई डर नहीं और न ही हमें कहीं कोई परेशानी आई।’ ये जवाब सुनकर उनके गोरे और शांत चेहरों पर सुकून पसर जाता। अपनी बात को खत्म वे यहां करते, ‘पूरा माहौल मीडिया का बनाया हुआ है। इन टीवी चैनलों ने हमें बर्बाद कर दिया है। डर की वजह से यहां पर्यटक आ ही नहीं रहा है।’ उनकी इस बात में हमें दम भी नजर आता। उनकी बात से ना इत्तेफाकी की कोई वजह नहीं दिखाई देती। जब तक हम खुद कश्मीर घाटी में पहुंच नहीं गए और वहां का पूरा माहौल अच्छी तरह से देख-समझ नहीं लिया। तब तक हम भी डरे-सहमे हुए थे।
खबरिया चैनलों से रोज-ब-रोज प्रसारित होने वाली खौफनाक खबरें हौसला तोड़ देती हैं। कश्मीर और कश्मीरियों के बारे में हमारे जेहन में काफी सवाल थे। जिनका जवाब हमें वहां जाकर मिल गया। जिस ‘लाल चौक’ के खूंखार किस्से और पत्थरबाजों की दहशत, यहां आने से पहले हमारे दिलो दिमाग पर बुरी तरह से तारी थी, वहां रात के दस बजे हम बेखौफ घूम रहे थे। कहीं किसी घर और दुकान पर पाकिस्तानी झंडा नहीं। न ही कोई ऐसा नारा, जो दिल में सिहरन पैदा कर दे। दीगर माल रोड की तरह ये भी लोगों से गुलजार दिखा। जिस दिन हम यहां घूम रहे थे, वह दीपावली की रात थी। मिठाई की एक बड़ी दुकान के आगे जब हमने आतिशबाजी बिकती देखी तो वाकई बहुत अच्छा लगा। श्रीनगर के खैय्याम चौक जहां हमारा होटल था, वहां रात के 11-11 बजे तक रेस्तरां खुले रहते हैं। यहां परिवार के साथ घूमने में हमें कभी डर का अहसास भी नहीं हुआ। कमोबेश यही हालात गुलमर्ग, सोनमर्ग और पहलगाम के थे।
श्रीनगर और उसके आस-पास हम पांच दिन रहे, लेकिन कहीं कोई आतंक की वारदात नहीं हुई। सच बात तो यह है कि जिंदगी में यह मेरा पहला तजुर्बा था, जब अपने परिवार और दोस्तों के साथ घूमते हुए इतनी बेफिक्री थी। कहीं कोई तनाव, कोई चिंता नहीं। हां, चोटी कटने की घटनाओं की वजह से जरूर कश्मीरी लड़कियों और औरतों में फिलवक्त दहशत है। इसके चलते वे रात में हमें कम नजर आईं। अलबत्ता दिन में वे हमें रोज की तरह अपने काम निपटाती दिखीं। डल झील में नाव से अपने बच्चों को स्कूल छोड़ती मांएं और सड़क पर कार चलाती नौजवान कश्मीरी लड़कियां हमें आश्वस्त कर रहीं थीं कि वे यहां पूरी तरह से महफूज हैं। उन्हें यहां किसी का डर नहीं। मर्दो की नजर में औरतों के लिए हमें यहां काफी इज्जत दिखाई दी। टैक्सी ड्राइवर हमारे घर की औरतों-लड़कियों को बड़े प्यार से दीदी कहकर पुकारते। उनका एहतराम करते। छोटी लड़कियों को प्यार से दुलारते। कुदरत ने कश्मीर में काफी दौलत लुटाई है।
श्रीनगर कुदरत से तो मालामाल है ही, आर्थिक तौर पर भी हमें यहां कहीं कोई गरीबी नजर नहीं आई। स्वच्छता अभियान के एक भी सरकारी पोस्टर और नारों के बिना श्रीनगर शहर, बड़े-बड़े महानगरों के बनिस्बत ज्यादा साफ-सुथरा दिखा। चौड़ी सड़कें, व्यवस्थित ट्रैफिक, डबल डेकर बसें, बड़े-बड़े शोरुम, दुकानों और तमाम सरकारी-गैर सरकारी प्रतिष्ठानों पर अंग्रेजी में लिखे साइन बोर्ड श्रीनगर के अंदर मिलेंगे, ये हमने कभी नहीं सोचा था। हमारे तसव्वुर में तो कश्मीर की एक अलग ही तस्वीर थी, जिसे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने गढ़ा था और आज भी वह बिना रुके मुसलसल, सूबे से बाहर के तमाम हिंदुस्तानियों के दिलों में कश्मीर की ऐसी ही बदरंग तस्वीर बना रहा है। गोली चलाते अलगाववादी, सेना पर पथराव करते कश्मीरी नौजवान, सिर से पैर तक बुर्के में ढकी औरतों का मातम, डल झील में खाली पड़े शिकारे, मकानों पर पाकिस्तानी या आइएस के झंडे, दीवारों पर देश विरोधी नारे, जिंदगी का कहीं कोई नाम-ओ-निशान नहीं।
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