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In Depth: संवैधानिक संस्थाओं को स्वीकार्य नहीं अरविंद केजरीवाल की मनमानी कार्यशैली

केजरीवाल शुरू से ही संवैधानिक प्रावधानों, शासन की प्रक्रियाओं व मान्य परंपराओं में बहुत यकीन रखते नहीं दिखाई देते हैं।

By Kamal VermaEdited By: Sat, 20 Jan 2018 12:19 PM (IST)
In Depth: संवैधानिक संस्थाओं को स्वीकार्य नहीं अरविंद केजरीवाल की मनमानी कार्यशैली
In Depth: संवैधानिक संस्थाओं को स्वीकार्य नहीं अरविंद केजरीवाल की मनमानी कार्यशैली

नई दिल्ली [मनोज झा]। आंदोलनों से उपजी सत्ता के कुछ खतरे भी होते हैं। ऐसी सत्ता कई बार उम्मीदें तोड़ती है और असहज भी करती है। ऐसी सत्ता नतीजे भी कम देती है। उन्नीसवीं सदी के अंत में यूरोप के राष्ट्रवादी आंदोलनों के बाद इस तरह की कई सत्ताएं अस्तित्व में आईं। इन्होंने प्रत्यक्ष तौर पर तो राजशाही का विरोध किया, लेकिन अंदरखाने लोकतांत्रिक प्रवृत्तियों, संवैधानिक प्रक्रियाओं और शासन की मान्य परंपराओं को कमजोर किया। आखिरकार इन सत्ताओं को जन-असंतोष का शिकार होकर बेदखल होना पड़ा है। आज दिल्ली की राजनीति में कुछ-कुछ ऐसी ही आहट मिल रही है।
स्वीकार्य नहीं मनमानी कार्यशैली
सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी अपने 20 विधायकों की सदस्यता खत्म करने की चुनाव आयोग की सिफारिश को बेशक गलत ठहरा रही हो, लेकिन आम लोगों को उसका यह प्रलाप अब सुहा नहीं रहा है। यह बात फिर साबित हुई है कि आप सरकार के मुखिया अरविंद केजरीवाल की मनमानी कार्यशैली को फिलहाल संवैधानिक संस्थाओं या राजनीतिक समाज की स्वीकृति प्राप्त नहीं हैं।
शासन की प्रक्रिया पर यकीन नहीं
दरअसल, केजरीवाल शुरू से ही संवैधानिक प्रावधानों, शासन की प्रक्रियाओं व मान्य परंपराओं में बहुत यकीन रखते नहीं दिखाई देते हैं। वह संविधान में लिखे हुए को कम, बल्कि अलिखित को पढ़ने की कोशिश ज्यादा करते हैं। यह सबको पता है कि संविधान में दिल्ली को पूर्ण राज्य की हैसियत प्राप्त नहीं है। साथ ही दिल्ली में उपराज्यपाल का पद अन्य राज्यों के राज्यपाल से ज्यादा अधिकार संपन्न है।

फैसलों में उपराज्यपाल की सहमति अनिवार्य
दिल्ली का उपराज्यपाल सरकार का महज संवैधानिक मुखिया ही नहीं, बल्कि कई अहम मामलों में उसे शासन संचालन की प्रत्यक्ष शक्तियां भी प्राप्त हैं। नीतिगत फैसलों या नियुक्तियों आदि में भी उसकी सहमति अनिवार्य है। यह सब संविधान में साफ-साफ मोटे अक्षरों में लिखा हुआ है। बावजूद इसके, आए दिन उपराज्यपाल नामक संस्था को दरकिनार कर सरकार ऐसे फैसले लेती है, जो शासन की मान्य परंपराओं से परे होते हैं। नतीजा यह होता है कि उपराज्यपाल फाइलें लौटाते हैं और आखिरकार शासन संचालन में टकराव व अवरोध पैदा होता है।


नियमों को दरकिनार कर संसदीय सचिवों की नियुक्ति
संसदीय सचिवों की नियुक्ति के ही मामले को देखें तो उन्होंने नियमों को दरकिनार कर 21 विधायकों को इस पद पर नियुक्त कर दिया। हालांकि इससे पहले भी दिल्ली के मुख्यमंत्री अपने लिए संसदीय सचिवों की नियुक्ति करते रहे हैं। मुख्यमंत्री के संसदीय सचिव को लाभ का पद नहीं माना गया है। लेकिन पेश मामले में केजरीवाल ने नियम-परंपरा से अलग हटकर यह किया कि उन्होंने खुद के लिए तो नहीं, बल्कि मंत्रियों के लिए संसदीय सचिवों की फौज खड़ी कर दी। वह भी बिना उपराज्यपाल की सहमति के। जब हो-हल्ला मचा तो उन्हें चूक का अहसास हुआ। फिर आनन-फानन में विधानसभा से कानून पारित कर मंत्रियों के संसदीय सचिवों को भी लाभ के पद से बाहर कर दिया।