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भारत के सबसे बड़े प्रतिद्वंदी ‘चीन’ ने बदल ली हैं ‘केंचुल’, भारत को रहना होगा 'सावधान'

राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने चीन को भविष्य की महाशक्ति बनाने को ध्यान में रख अपनी नई टीम भी बना ली है। भारत उनके खास एजेंडे में है।

By Kamal VermaEdited By: Updated: Mon, 30 Oct 2017 11:30 AM (IST)
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भारत के सबसे बड़े प्रतिद्वंदी ‘चीन’ ने बदल ली हैं ‘केंचुल’, भारत को रहना होगा 'सावधान'

हमारे सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी देश चीन ने केंचुल बदल डाली है। हाल ही में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की 19वीं कांग्रेस संपन्न हुई है। इस महासम्मेलन के बाद चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग माओ के बाद दूसरी सबसे ताकतवर हस्ती बन गए हैं। उनके सिद्धांतों को पार्टी के संविधान में शामिल कर लिया गया है। चीन को भविष्य की महाशक्ति बनाने को ध्यान में रख उन्होंने अपनी नई टीम भी बना ली है। भारत उनके खास एजेंडे में है, तभी तो 70 दिनों तक चली डोकलाम तनातनी में अहम भूमिका निभाने वाले वेस्टर्न कमांड के सैन्य जनरल झाओ जोंगक्वी को पार्टी की सेंट्रल कमेटी में जगह मिली है। साथ ही सीमा को लेकर भारत से बातचीत करने वाले विशेष प्रतिनिधि यांग जीची को 25 सदस्यीय पोलित ब्यूरो में शामिल कर लिया गया है। चीन की आक्रामक और महत्वाकांक्षी नीति को देखते हुए इस राजनीतिक बदलाव को पूरी दुनिया बहुत ही गंभीरता से ले रही है। ऐसे में ‘नया माओ’ माने जा रहे सर्वशक्तिमान शी चिनफिंग से भारत को हर लिहाज से सतर्क और चौकस रहने की दरकार होगी। 

प्रतिद्वंद्विता का स्वर प्रमुख

भारत से चीन के संबंधों में प्रतिद्वंद्विता का स्वर प्रमुख रहेगा। खाद्य तथा ऊर्जा सुरक्षा में हमारे हितों का टकराव सीमा विवाद से अधिक जटिल बना रहेगा। निरंतर सतर्कता ही हमारे लिए हितकारी होगी। शीचिनफिंग के दोबारा
राष्ट्रपति चुने जाने और चीन के संविधान में जिस तरीके से उनके विचारों को जगह दी गई, उसके बाद निर्विवाद रूप से शी विश्व के सर्वशक्तिमान नेता बन चुकेहैं। भले ही इस खिताब से अक्सर अमेरिकी राष्ट्रपतियों को नवाजा जाता रहा है, लेकिन उन्हें भी सीनेट के अंकुश का ख्याल रखना होता है और जनतांत्रिक व्यवस्था में वह अपने को स्वाधीन न्यायपालिका से ऊपर कतई नहीं समझ सकता।

माओ के समकक्ष शी चिनफिंग का कद 

यह बात फिलहाल साफ हो चुकी है कि शी का कद आज माओ और डेंग शियाओ पिंग के समकक्ष नजर आ रहा है। अब इसी आधार पर चीन के साथ अपने संबंधों को परिभाषित-विश्लेषित करने की दरकार भारत ही नहीं हर देश को है। आरंभ में ही एक भ्रम से छुटकारा पाने की जरूरत है। इस पार्टी के फैसले ने शी को तानाशाह नहीं बनाया है बल्कि बेहद ताकतवर शी ने ही अपनी तीसरी बार ताजपोशी का पुख्ता बंदोबस्त कर लिया है। जो लोग यह आस लगाए बैठे थे कि शी के खिलाफ असंतुष्ट तत्व तख्तापलट की साजिश को अंजाम दे सकते हैं उन्हें भले ही निराश होना पड़ा हो, लेकिन चीन की राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले जानकारों के लिए यह घटनाक्रम अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता।

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नहीं पालनी चाहिए गलतफहमी 

शी के पिछले दस साल के शासनकाल का पुनरावलोकन करने से एक बात स्पष्ट है कि वह अपनी कुर्सी को निरापद रखने के साथ-साथ चीन को महाशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कमर कसे रहते हैं। किसी को भी यह गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए कि वह आर्थिक विकास के साथ राजनीतिक उदारीकरण का सूत्रपात कर
सकते हैं। चीन में मानवाधिकारों का मुद्दा हो या हांगकांग की स्वायत्ता, उनका रवैया सख्त ही रहा है। थिएनआनमेन चौक जैसी बर्बरता भले ही न दोहराई गई हो, असहमति का स्वर मुखर करने वालों का दमन निर्ममता से दूसरों को सबक सिखाने वाले अंदाज में होता रहा है। हमारे लिए सबसे अहम सवाल यह है कि
भारत-चीन संबंधों पर इस ‘पुनर्निर्वाचन’ का क्या असर पड़ सकता है।

 कड़वा सच

यह बात बहुतों को क्लेश पहुंचा सकती है, पर कड़वा सच है कि जहां भारत के सामरिकआर्थिक हितों के परिप्रेक्ष्य में चीन की चुनौती जटिल तथा संवेदनशील है, वहीं चीन की प्राथमिकता सूची में भारत का स्थान कहीं नीचे नजर आता है। भारत की तुलना में अमेरिका, रूस और यूरोप, उसके लिए महत्वपूर्ण हैं और रहेंगे। दक्षिण एशिया में भी पाकिस्तान के साथ चीन के घनिष्ठ रिश्ते पिछले चार दशक से अधिक समय से चले आ रहे हैं। यह धुरी मात्र भारत विरोधी नहीं। चीन के लिए मध्य एशिया तथा रूस के दूसरे हिस्सों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की रणनीति का यह हिस्सा है।

एशिया में चीन का टकराव 

ऐतिहासिक रेशम राजमार्ग के पुनर्निर्माण की महत्वाकांक्षी परियोजना के मार्ग में आपत्ति मुखर करने वाले देशों में भारत प्रमुख है। पूर्वी एशिया में चीन का टकराव जापान से सेनकाकू द्वीप समूह को लेकर विस्फोटक बन सकता है। उसकी नजर में भारत और जापान के करीबी रिश्ते उसी की घेराबंदी का प्रयास हैं। किसी भी अन्य विस्तारवादी ताकत की तरह चीन यह महसूस नहीं करता कि उसका अपना रवैया कितना आक्रामक या नव साम्राज्यवादी है। दक्षिण चीन सागर में अपना वर्चस्व स्थापित करने में चीन ने कभी कोई कसर नहीं छोड़ी है। भारतीय पीएम नरेंद्र मोदी के सत्ता ग्रहण करने के कुछ ही दिन बाद जब शी ने भारत का दौरा किया तो यह माहौल पैदा हुआ था कि दोनों देशों के रिश्तों में तेजी से नाटकीय सुधार हो सकता है। पर यह आशा क्षणभंगुर साबित हुई।

चीन की राजनीतिक प्रणाली

वास्तव में अंतरराष्ट्रीय राजनीति किसी भी नेता के व्यक्तित्व से कहीं अधिक भूराजनैतिक एवं भूआर्थिक यथार्थ से संचालित होती है। जिस तरह रूस में पुतिन अपने देश के पारंपरिक राजनीतिक संस्कार और विरासत का प्रतिनिधित्व करते हैं उसी तरह शी भी चीन की राजनीतिक प्रणाली का मूर्तिमान स्वरूप हैं। चीन कभी भी पश्चिमी नमूने का जनतंत्र नहीं रहा है। वहां जो भी समर्थ नेता प्रकट हुआ है वह अधिनायक ही रहा है।