छत्तीसगढ़ का पाताल लोक, जहां जमीन से 40 फीट अंदर रहती हैं अंधी मछेलियां
छत्तीसगढ़ के पाताल लोक में जमीन से 40 फीट अंदर मछलियों की ऐसी प्रजाति रहती है जो देख नहीं सकती। हालांकि ये जन्म से अंधी नहीं होती हैं।
जगदलपुर [हेमंत कश्यप]। जमीन से 40 फीट की गहराई में महल के सभागार-सा विशाल स्थान। करीब 150 फीट तक ऊंची दीवारें और इसके ऊपर झूमरनुमा आकृतियां। अंधेरा ऐसा कि हाथ को हाथ भी नजर न आएं। आठों पहर यहां पसरा रहता सन्नाटा। यह है छत्तीसगढ़ का पाताल लोक जहां पाई जाती हैं अंधी मछलियां। दरअसल, ये मछलियां जन्म से अंधी नहीं होतीं। लंबे समय तक अंधेरे में रहने के कारण इनकी आंखों पर चर्बी की सफेद परत चढ़ गई होती है। ये अपनी मूंछों की संवेदनशीलता से परिस्थितियों का अाकलन करती हैं और उसी के अनुरूप व्यवहार भी।
भारत की अकेली जबकि दुनिया की सातवीं गुफा
जगदलपुर संभाग मुख्यालय से 40 किलोमीटर व प्रसिद्ध तीरथगढ़ जलप्रपात से 10 किलोमीटर दूर स्थित कोटमसर गुफा को छत्तीसगढ़ का पाताल लोक भी कहा जाता है। कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान के कक्ष क्रमांक 85 में स्थित यह गुफा भारत की अकेली जबकि दुनिया की सातवीं भूमिगत गुफा है। यहां कहीं-किसी ओर से सूर्य की रोशनी नहीं पहुंचती। पेट्रोमैक्स, टार्च व गाइड की मदद से ही यहां पहुंचा जा सकता है। माना जाता है कि इसकी खोज वर्ष 1900 के आसपास आखेट करने वाले आदिवासियों ने की थी। इसका पुराना नाम गुपानसर गुफा है। इसमें प्रवेश का एक ही मार्ग है। बरसाती नाला गुफा से होकर बहता है और इसका पानी पत्थरों के खोह से होते हुए कांगेर नदी में चला जाता है।
सन 1951 में पहली बार हुआ सर्वे
वर्ष 1951 में बिलासपुर के डॉ. शंकर तिवारी ने पहली बार गुफा का सर्वे किया था। इनके सम्मान में यहां पाई जाने वाली मछलियों का नाम कैम्पियोला शंकराई रखा गया। यह प्राकृतिक गुफा 40 मीटर गहरी, 330 मीटर चौड़ी और 4500 मीटर लंबी है। गुफा के भीतर सतह से लेकर छत तक स्टेलेक्टाईट-स्टेलेग्माईट चूना पत्थर की खूबसूरत व अद्भुत संरचनाएं हैं, जो चूना पत्थर के रिसाव, कार्बन डाईआक्साइड तथा पानी की रासायनिक क्रिया से बनी हैं। गुफा के भीतर 300 मीटर लंबा-चौड़ा सभागारनुमा एक कक्ष है। इसकी खोज वर्ष 2011 में हुई। इसके अलावा भी छोटे-छोटे कई कक्ष हैं। इसी गुफा के भीतर कथित अंधी मछलियां पाई जाती हैं। ऐसी मछलियां केरल की कुछ गुफाओं में भी पाई जाती हैं। कोटमसर में विशेष प्रकार का झींगुर भी मिलता है।
आंखों की उपयोगिता ही खत्म
प्राणी विज्ञानी डॉ. सुशील दत्ती बताते हैं कि गुफा के भीतर घुप अंधेरा रहता है। बिना प्रकाश व्यवस्था के गुफा में प्रवेश असंभव है। कभी नाले में बाढ़ के समय पारंपरिक मछलियां कांगेर नदी से चढ़कर गुफा के कुंडों तक पहुंचीं और पानी उतरने पर कुंडों में ही रह गईं। इन मछलियों को ग्रामीण 'पखना तुरू" कहते हैं। इसका वैज्ञानिक नाम इंडोनियोरेक्टस इवेजार्डी है। लंबे समय तक अंधेरे में रहने के कारण इनकी आंखों की उपयोगिता खत्म होती गई जिससे उसपर चर्बी की परत चढ़ गई। इनकी त्वचा भी सफेद हो गई इसलिए इन्हें एल्बिनिक भी कहा जाता है। इनकी 15 से 25 मिलीमीटर लंबी मूछें होती हैं जिसकी संवेदन शक्ति से ही यह परिस्थितियों का अनुभव कर उस अनुसार व्यवहार करती हैं। गुफा के स्थिर तापमान में कुंडों में पनपने वाले सूक्ष्म जीवाणु ही इनका आहार हैं।
प्रगैतिहासिक काल में रहते थे आदिमानव
प्रगैतिहासिक काल में कुटुमसर की गुफाओं में आदिमानव रहा करते थे। फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी अहमदाबाद, इंस्टीटयूट ऑफ पेलको बॉटनी लखनऊ तथा भूगर्भ अध्ययनशाला लखनऊ के सम्मिलित शोध से यह बात सामने आई है। बस्तर की विश्व प्रसिद्ध कुटुमसर की गुफाएं कई रहस्यों को अभी भी अपने में समेटे हुए हैं जिनका भूगर्भ शास्त्रियों द्वारा लगातार अध्ययन किया जा रहा है। भूगर्भशास्त्रियों का कहना है कि कई सौ वर्ष तक यह क्षेत्र पानी में डूबा था। गुफाओं का निर्माण प्राकृतिक परिवर्तनों के साथ-साथ पानी के बहाव के कारण हुआ। लंबाई में यह सर्पाकार गुफा विश्व में दूसरे नंबर पर व भारत में पहले नंबर पर है।
सुरक्षा के कोई उपाय नहीं
कोटमसर की गुफा में उतरने वाले जिज्ञासु सैलानी इन मछलियों की हरकत देखने के लिए कुंडों में पत्थर मारते हैं। इतना ही नहीं, इनपर तेज रोशनी करते हुए हाथों से पकड़ने का प्रयास करते हैं। कुछ लोग इन्हें पकड़कर बाहर भी लाए, परंतु अचानक बदले वातावरण में यह मछलियां मर गईं। विभाग द्वारा इन मछलियों को बचाने के लिए कोई सुरक्षा घेरा भी नहीं बनाया गया है। पर्यटकों को गुफा में ले जाने वाले गाइड भी कोई रोकथाम नहीं करते। उल्टे वे ही तेज रोशनी कर लोगों को मछलियां दिखाते हैं। यहां हर समय सैलानियों की आमद रहती है।
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