हां...ये वही भुज है जो एक झटके में हो गया था तबाह, अब बिखरती है खूबसूरती की छटा
भुज का नाम यहां स्थित एक पहाड़ी ‘भुजियो डुंगर’ के नाम पर पड़ा है। यह शहर के पूर्वी हिस्से में स्थित है और इसे विशाल नाग भुजंग की जगह माना जाता है। भुजियो डुंगर शहर की शान है।
भुज, [सीमा झा]। देश के सबसे बड़े जिले कच्छ (क्षेत्रफल के हिसाब से) का प्रशासनिक कार्यालय है भुज। यह वही शहर है जिसने 26 जनवरी, 2001 को आए भीषण भूकंप में तबाह होने के बावजूद जल्द ही खुद को फिर से खड़ा कर लिया। ऐसे में इसे एक नया शहर भी कह सकते हैं, जिसका लंबा इतिहास रहा है। स्थानीय लोगों के शिल्प कौशल, महलों, किलों, रंगबिरंगे गांवों, खानपान के विविध रूपों में झलकती है इसकी प्राचीनता और इसकी वास्तविक पहचान। आज चलते हैं भुज के सफर पर...
सिर पर चमकती तेज धूप, घनी और दूर-दूर तक पसरी हरी झाड़ियां, सूखी बंजर जमीन पर खिले पीले फूल और पहाड़ियों से घिरे रास्ते, गुजराती साफे, काठियावाड़ी पगड़ी और धोती-कुर्ता, चनिया-चोली यानी परंपरागत वेशभूषा में आते-जाते लोग और छकड़ा गाड़ियों की आवाजाही। अपनी भौगोलिक बनावट के कारण यह राजस्थान के किसी बियाबान प्रदेश की तरह नजर आता है, लेकिन जब आप शहर के भीतर प्रवेश करेंगे तो यह आपको देश के अन्य शहरों की तरह व्यवस्थित नजर आएगा।
नई इमारतों के साथ-साथ कुछ खंडित और जर्जर इमारतें और मंदिर, दुकानें आदि आज भी बीते दिनों की उस त्रासदी की गवाही देती हैं, जिसने झटके में शहर को तबाह कर दिया होगा। बहरहाल, न केवल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अनूठेपन के कारण बल्कि करोड़ों की चल-अचल संपत्तियों के स्वामी प्रवासी भारतीयों के कारण भी यह नगर दुनियाभर में लोकप्रिय है। आप यह जानकर चकित होंगे कि भुज के कई गांव ऐसे हैं जो ‘करोड़पतियों के गांव’ के नाम से लोकप्रिय हैं और इसी वजह से भुज की बड़ी पहचान बने हैं।
इतिहास के हर खंड में मौजूद
भुज का नाम यहां स्थित एक पहाड़ी ‘भुजियो डुंगर’ के नाम पर पड़ा है। यह शहर के पूर्वी हिस्से में स्थित है और इसे विशाल नाग भुजंग की जगह माना जाता है। भुजियो डुंगर शहर की शान है। भुजंग नाग की पौराणिक कहानी के साथ इस डुंगर की दास्तान भी जुड़ी है। यहां नाग देवता का मंदिर है, जिसकी तलहटी में हर साल नागपंचमी पर मेला लगता है। ऐसा भी कहा जाता है कि भुजियो डुंगर से जामनगर तक एक सुरंग बनी हुई है। पुनर्निर्माण के बाद भुज भले ही आज एक नया शहर है पर इसका संबंध इतिहास के अलग-अलग कालखंडों से जुड़ा रहा है यानी सिंधु घाटी सभ्यता और महान सिकंदर के शासनकाल से लेकर, जडेजा राजपूत, गुजरात सल्तनत और ब्रिटिश शासनकाल तक भुज ने इतिहास के सभी चरणों को देखा है।
सिंधु सभ्यता से जुड़ा होने का अर्थ है यहां से कुछ ही दूर पर बसा धौलावीरा गांव, जहां बड़े पैमाने पर सिंधु सभ्यता के अवशेष देखे जा सकते हैं। यदि आपके पास समय है तो तकरीबन 260 किलोमीटर की दूरी पर बसे इस स्थान की सैर कर सकते हैं। भुज में आपको हिंदू, मुस्लिम और यूरोपियन स्थापत्य कला की झांकी मिलेगी, जैसे-प्राग महल। इसे देखकर ऐसा लगेगा आप फ्रांस में आ गए हों।
यूं झटपट उठ खड़ा हुआ
शहर कच्छ और भुज में भूकंप आना कोई नई बात नहीं। यहां अब तक 90 से ज्यादा भूकंप आ चुके हैं लेकिन कोई भी इतना भयावह नहीं था जितना कि 26 जनवरी, 2001 को सुबह 8:46 बजे आया भूकंप, जिसकी तीव्रता 6.9 थी। भुज का सिविल हॉस्पिटल जो शहर के बीचों-बीच स्थित था, ढह गया और सैकड़ों मरीज और स्टाफ दफन हो गए। कलेक्टर ऑफिस से लेकर तमाम सरकारी ऑफिस भी जमींदोज हो गए।
पर ऐसे भयावह प्राकृतिक आपदाओं के बाद कैसे कोई शहर खुद को नये शिखर पर ले जाता है, इसकी जीवंत मिसाल है यह शहर। भूकंप के तत्काल बाद पहला कदम जरूरी सेवाओं-सुविधाओं को बहाल करने का किया गया। दो टर्मिनल लगाकर 29 जनवरी तक मोबाइल फोन सेवाएं शुरू कर दी गईं। गुजरात स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड ने तत्काल सैकड़ों की संख्या में इंजीनियरों को काम पर लगा दिया और 5 फरवरी तक 80 प्रतिशत प्रभावित इलाकों में पावर सप्लाई शुरू कर दी गई।
नजर आते हैं भूकंप में मारे गए लोगों के स्मारक
24 घंटे काम कर इंजीनियरों ने सूरज बारी ब्रिज को मात्र 6 दिनों में चालू कर दिया। मानसून से पहले बांधों को रिपेयर कर दिया गया और इस तरह एक झटके में तबाह होने वाला शहर फिर से खड़ा होने लगा। नये सिरे से टाउन प्लानिंग हुई यानी अभी आप जिस शहर को देखेंगे वह एक योजना के अनुरूप तैयार हुआ है। बहुमंजिली इमारतें नजर नहीं आएंगी। केवल एक मंजिला मकान, एक जैसे गुलाबी, बिजली के टॉवर, सेंट्रल गार्डन, 30 फीट चौड़े रोड और भूकंप में मारे गये लोगों के स्मारक नजर आएंगे। यदि यह कहें कि भूकंप ने भुज में बदलाव की प्रक्रिया को 20 साल आगे कर दिया, तो गलत नहीं होगा।
हालांकि इससे पुराना जख्म शायद ही भर सके। स्थानीय टूर गाइड के मुताबिक, यही वजह है कि भूकंप से हुई तबाही की याद में यहां के लोग गणतंत्र दिवस पर्व नहीं मनाते। यह उनके लिए शोक का दिन होता है। यहां सबसे अधिक कच्छी भाषा बोली जाती है। यह सिंधी भाषा के बहुत नजदीक है। हालांकि अब स्कूलों में गुजराती माध्यम में पढ़ाया जाता है।
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