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जब पीएम ने CBI डायरेक्टर को बुलाकर लालू यादव के केस में नरमी बरतने का डाला दबाव

चारा घोटाले में लालू यादव घिरे हुए थे और सीबीआइ उन्हें गिरफ्तार करने की योजना बना रही थी, लेकिन इसी बीच पीएम ने सीबीआई पर मामला नरम करने का दबाव बनाया। पढ़ें जोगिंदर सिंह का लेख...

By Digpal SinghEdited By: Updated: Sun, 07 Jan 2018 08:38 AM (IST)
जब पीएम ने CBI डायरेक्टर को बुलाकर लालू यादव के केस में नरमी बरतने का डाला दबाव

नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। पूर्व सीबीआइ निदेशक जोगिंदर सिंह अब इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन साल 2013 में जब लालू यादव को चारा घोटाले के चाइबासा मामले में दोषी करार दिया गया था उस समय उन्होंने दैनिक जागरण में एक लेख लिखा था। उस लेख में जोगिंदर सिंह ने बताया था कि कैसे साल 1996-97 में जब वह इस जांच ब्यूरो के निदेशक थे उस समय लालू यादव के मामले में नरमी बरतने का दबाव सीधे प्रधानमंत्री ने डाला था। इस लेख में उन्होंने यह भी बताया कि कैसे उन्होंने प्रधानमंत्री को यही बात लिखित में देने को कहा और कैसे लालू यादव की गिरफ्तारी हुई। आइए पढ़ें जोगिंदर सिंह की कलम से लिखा वही लेख...

सीबीआइ की बड़ी जीत

चारा घोटाले से जुड़े अन्य अनेक मुकदमों के साथ लालू प्रसाद और जगन्नाथ मिश्र के मामलों का भी अंजाम तक पहुंचना केंद्रीय जांच ब्यूरो के लिए विशेष रूप से राहत देने वाला है। सीबीआइ को अक्सर इस बात के लिए निशाना बनाया जाता है कि वह हाई प्रोफाइल, विशेष रूप से राजनेताओं से जुड़े मामलों की जांच सही तरह नहीं कर पाती, लेकिन चारा घोटाले में सीबीआइ की जांच- पड़ताल से यह साबित होता है कि यह एजेंसी जब भी अपनी पूरी क्षमता से और विशेष रूप से राजनीतिक दबाव से मुक्त होकर काम करती है तो परिणाम भी उतने ही अच्छे सामने आते हैं। 

चारा घोटाले के मामले में यह याद करने लायक है कि किस तरह शुरुआत में बिहार सरकार ने इसकी जांच सीबीआइ को सौंपने का विरोध किया था। यदि सुशील मोदी व रविशंकर प्रसाद आदि ने इसके खिलाफ अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया होता तो मामला शायद सीबीआइ के पास आता ही नहीं। आखिरकार पटना उच्च न्यायालय ने यह फैसला दिया कि चारा घोटाले से जुड़े मामलों की जांच सीबीआइ ही करेगी। बात यहीं खत्म नहीं हुई, फैसले के खिलाफ तत्कालीन सरकार यानी लालू की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। उसका यह दांव उल्टा पड़ा और सुप्रीम कोर्ट ने जांच सीबीआइ को सौंपने के फैसले को सही ठहराते हुए उच्च न्यायालय को दिन-प्रतिदिन के लिहाज से जांच की निगरानी का भी काम सौंप दिया।

इस मामले को लेकर सीबीआइ पर पहले दिन से राजनीतिक दबाव था। उस समय मैं खुद सीबीआइ का निदेशक था। इंद्र कुमार गुजराल देश के प्रधानमंत्री थे और उनकी सरकार अपने अस्तित्व के लिए लालू यादव के दल पर पूरी तरह आश्रित थी। एक दिन मुझे उन्होंने बुलाया और लालू प्रसाद के लिए कुछ नरमी बरतने के लिए कहा। मैंने उनसे पूछा कि क्या आपको इस मामले की जांच में कोई रुचि है तो उन्होंने इन्कार कर दिया।

हमें उस समय के गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्ता की भूमिका को नहीं भूलना चाहिए, जिन्होंने सीबीआइ को मुक्त रूप से काम करने का मौका दिया। बावजूद इसके सीबीआइ पर राजनीतिक दबाव कभी कम नहीं हुआ। चारा घोटाले में सीबीआइ की सक्रियता से कुछ लोग इतना असहज हो गए कि मुझ पर भाजपा के सदस्य के रूप में काम करने अथवा राज्यसभा के टिकट की चाहत रखने का आरोप लगा दिया।

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एक तरफ सीबीआइ लालू प्रसाद के खिलाफ आरोपपत्र दायर करने और उन्हें गिरफ्तार करने की तैयारी में लगी थी और दूसरी तरफ सीबीआइ पर दिन-प्रतिदिन राजनीतिक दबाव बढ़ता जा रहा था। एक  दिन प्रधानमंत्री गुजराल से फिर मुलाकात हुई तो नरमी बरतने का सवाल नए सिरे से उठा। मैंने लिखित में आदेश मांगा, जो मुझे नहीं मिला। सीबीआइ निदेशक के रूप में मेरा कार्यकाल समाप्त ही होने वाला था। तभी मुझे इंटरपोल में नियुक्ति मिल गई और मेरा फ्रांस जाने का कार्यक्रम बन गया। मैं एयरपोर्ट पर पहुंचा तो एक पत्रकार ने मुझे बताया कि मेरा ट्रांसफर गृह मंत्रालय में कर दिया गया है। शायद यह चारा घोटाले की जांच में सीबीआइ की सक्रियता की सजा थी, लेकिन मेरे लिए खुशी की बात थी। मैंने तब यही कहा कि मेरे लिए इससे अच्छा और क्या हो सकता है कि मुझे उसी पैसे में कम मेहनत वाले पद पर काम करना होगा। उस समय सीबीआइ में मेरी टीम में सीबीआइ के क्षेत्रीय निदेशक यूएन बिस्वास और रंजीत सिन्हा प्रमुख अधिकारी थे। चारा घोटाले में सीबीआइ अदालत का जो फैसला आया उसके लिए यही पुरानी टीम बधाई की पात्र है, जिसने राजनीतिक दबाव की परवाह न करते हुए पूरी लगन के साथ अपने काम को अंजाम दिया। 

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सीबीआइ के लिए इस केस को अंजाम तक पहुंचाना आसान काम नहीं था। राजनीतिक दबाव की बात छोड़ भी दी जाए तो दस्तावेजों की संख्या (13 लाख) के आधार पर ही यह मामला पहाड़ पर चढ़ने के समान था। इतने कठिन मामले में यदि सीबीआइ अभियुक्तों को सजा दिलाने की दर को 90 प्रतिशत से ऊपर ले जा पाई है तो वाकई वह प्रशंसा की हकदार है। चारा घोटाले में हर कदम पर सीबीआइ की जांच को पटरी से उतारने की कोशिश की जाती रही, बावजूद इसके यह जांच एजेंसी दो पूर्व मुख्यमंत्रियों समेत अन्य नेताओं और आइएएस अधिकारियों को दंडित कराने में कामयाब रही। कम से कम अब तो राजनीतिक वर्ग, विशेष रूप से सरकार में बैठे लोगों को उन परिस्थितियों पर विचार करना चाहिए जिनमें सीबीआइ को काम करना पड़ता है। यह शर्म की बात है कि सेवानिवृत्त अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने के लिए सीबीआइ को सरकार से अनुमति लेने की आवश्यकता पड़ती है।

सीबीआइ का कामकाज अभी भी अंग्रेजों के जमाने के कानूनों पर आधारित है। किसी को यह देखना-समझना ही होगा कि इन कानूनों में वक्त की जरूरत के अनुसार बदलाव किया जाए। पुलिस सुधारों की हालत किसी से छिपी नहीं। सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट दिशा-निर्देशों और चेतावनी-फटकार के बावजूद राज्य सरकारें पुलिस सुधार के लिए तैयार नहीं हैं। सीबीआइ को स्वतंत्र और स्वायत्त बनाने का मौका एक बार फिर गंवा दिया गया। कोयला घोटाले की जांच में सरकारी दखल से अप्रसन्न सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को सीबीआइ को राजनीतिक दखल से मुक्त बनाने के लिए कहा था, लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं हुई। अब तो ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को इस बारे में सीधे-सीधे आदेश-निर्देश ही देने होंगे।

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भ्रष्टाचार अथवा अन्य तरह के आपराधिक मामलों से घिरे राजनेताओं के संदर्भ में राजनीतिक वर्ग का क्या रवैया है, यह सजायाफ्ता सांसदों और विधायकों की सदस्यता समाप्त करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया से स्पष्ट हो जाता है। पहले इस फैसले को पलटने के लिए नया कानून बनाने की कोशिश की गई और जब इसमें सफलता नहीं मिली तो अध्यादेश ले आया गया। यह अच्छा हुआ कि कांग्रेस उपाध्यक्ष ने इस अध्यादेश के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की और इसे बकवास बताते हुए फाड़ कर फेंक देने की सलाह दी। कुछ दिन पहले जहां तमाम राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने की बात कर रहे थे, वहीं अब दोनों प्रमुख दल अध्यादेश का विरोध करते नजर आ रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि राहुल गांधी के इस रुख के बाद कम से कम सरकार को अपनी गलती का अहसास होगा। 

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