दिशा की तलाश में दक्षिण की राजनीति, दिनाकरन गुट ने दी धमकी
जयललिता के निधन के कुछ ही दिन बाद पार्टी में मतभेद उभरकर सामने आने लगे। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि अन्नाद्रमुक दो हिस्सों में बंट गई।
भारतीय राजनीति में तमिलनाडु का अपना अलग महत्व है, जहां इन दिनों राजनीति नई करवट ले रही है। तमिलनाडु की सियासत मौजूदा समय में जिस रूप-रंग को धारण कर रही है, इसकी आहट पहले से ही सुनाई दे रही थी। जिस तर्ज पर सियासी बंटवारे यहां की जमीन पर हुए उससे यह भी लगता था कि समय के साथ मोलतोल और सौदेबाजी के चलते यहां की राजनीति नई राह ले लेगी। मुश्किल से छह महीने बीते होंगे कि सब कुछ आईने की तरह साफ हो गया और अब गुटों में बंटे नेता एक साथ हैं पर सरकार खतरे में है। असल में 25 विधायकों समेत टीटीवी दिनाकरन गुट के बगावत से सरकार पर संकट बढ़ गया है। देखा जाए तो सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक के ई. पलानीस्वामी और तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री रहे पनीरसेल्वम के गुटों का विलय कोई अचानक का घटनाक्रम नहीं है बल्कि इसके पीछे महीनों की राजनीति है। इतना ही नहीं दोनों धड़ों के नेताओं ने बीते सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अलग-अलग मुलाकात भी की थी। एक सच यह भी है कि जयललिता के निधन के बाद भाजपा की नजर अन्नाद्रमुक पर थी।
जयललिता की करीबी वी.के. शशिकला और दिनाकरन गुट से तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पलानीस्वामी की बढ़ती दूरियों ने यह साफ कर दिया था कि पनीरसेल्वम का गुट कभी भी उनके साथ हो सकता है। गौरतलब है कि अन्नाद्रमुक के अंदर जो धड़े बने उनमें कोई बड़ा वैचारिक विभाजन नहीं था बल्कि जे. जयललिता की विरासत पर कब्जे को लेकर उनके करीबियों के बीच आपसी झगड़ा था। जब तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता का पिछले वर्ष दिसंबर में निधन हुआ तब तमिलनाडु की सियासत हिचकोले लेने लगी थी। मुश्किल से महीने भर बीते थे कि उनकी खास सहयोगी वी.के. शशिकला सत्ता पर काबिज होने वाले मंसूबे के चलते तत्कालीन मुख्यमंत्री पनीरसेल्वम को गद्दी छोड़ने का खुले मन से आदेश दे दिया। यही सियासत के वैचारिक बंटवारे का बड़ा मोड़ था। हालांकि शशिकला की मुराद पूरी नहीं हुई क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने बीते फरवरी में उन्हें सलाखों के पीछे कर दिया। जेल जाने से पहले तमिलनाडु की राजनीति में शशिकला की वजह से काफी उथल-पुथल रहा। पनीरसेल्वम से नाराज शशिकला ने न केवल पलानीस्वामी को तमिलनाडु का मुख्यमंत्री बनाया बल्कि सेल्वम को पार्टी से बाहर का रास्ता भी दिखाया और अब यही दोनों एक साथ तो हुए हैं पर दिनाकरन गुट ने सरकार के लिए संकट खड़ा कर दिया है। वैसे तमिलनाडु की राजनीति इस बात के लिए अधिक जानी जाएगी कि गैर महत्वाकांक्षी मुख्यमंत्री बने और अति महत्वाकांक्षी शशिकला को जेल जाना पड़ा।
फिलहाल अन्नाद्रमुक के दोनों धड़े के विलय के बावजूद राज्य में राजनीतिक उथल-पुथल थमने का नाम नहीं ले रहा है। बीते 22 अगस्त को शशिकला और टीटीवी दिनाकरन के करीबी विधायकों ने राज्यपाल से मुलाकात कर मुख्यमंत्री पलानीस्वामी को हटाने की मांग की थी। साथ ही यह भी कहा कि उनके पास बहुमत नहीं है। जैसा कि इन दिनों राजनीति में खूब देखा जा रहा है कि जब भी कोई बगावती समूह बनता है तो उसे सियासी बीमारियों से बचाने के लिए किसी स्थान विशेष पर भेज दिया जाता है। दिनाकरन समर्थक विधायकों को भी पुडुचेरी के रिसॉर्ट में रखा गया है। इसके पहले गुजरात और उत्तराखंड में भी ऐसा हो चुका है।
सरकार पर संकट क्यों है, इसे समझना होगा। असल में तमिलनाडु में कुल 234 विधायक हैं जिसमें अन्नाद्रमुक के 134 और विरोधी करुणानिधि की द्रमुक के 89 और कांग्रेस के पास आठ जबकि एक अन्य विधायक है। दिनाकरन समर्थक यह दावा कर रहे हैं कि 25 विधायक फिलहाल पलानीस्वामी के विरूद्ध हैं। इस स्थिति से स्पष्ट है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री की सरकार संख्याबल के मामले में कमजोर है। विवाद को देखते हुए द्रमुक ने भी राज्यपाल को चिट्ठी लिखकर विधानसभा सत्र बुलाने और मुख्यमंत्री को बहुमत साबित करने की मांग की है। गौरतलब है कि कर्नाटक में भी जब बरसों पहले कुछ ऐसी ही स्थिति बनी थी तब बीएस येदियुरप्पा सरकार को विश्वास मत हासिल करने का निर्देश दिया गया था। यह कोई अचरज वाली बात नहीं है कि सत्ताधारी दल के अंदर जब धड़े बनते हैं तो सरकार के संख्याबल में कमी होना स्वाभाविक है। पलानीस्वामी की सरकार फिलहाल इस मुश्किल से घिरती दिखाई देती है। जाहिर है यदि दिनाकरन समर्थक अडिग रहते हैं तो मौजूदा सरकार के लिए जरूरी संख्याबल जुटाना असंभव होगा। ऐसी स्थिति में सत्ता परिवर्तन भी संभव है। फिलहाल तमिलनाडु की सियासत किस करवट बैठेगी आगे के दिनों में बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगा। तमिलनाडु की राजनीति इसलिए भी मौजूदा समय में रसूखदार है क्योंकि यहां की अगली विधानसभा का गठन होने में चार वर्ष का वक्त लगेगा। दोनों गुटों यानी पूर्व मुख्यमंत्री पनीरसेल्वम और मौजूदा मुख्यमंत्री पलानीस्वामी का एक साथ होने से बेशक पार्टी को मजबूती मिलती हो पर सरकार खोने के भय से अभी यह दल मुक्त नहीं हैं और इस परीक्षा में सफल होना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि विरासत की होड़ में इन्हें स्वयं को अव्वल भी सिद्ध करना है।
जब तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता को आय से अधिक के मामले में जेल हुई थी तब उनके सबसे करीबी पनीरसेल्वम मुख्यमंत्री बने थे। जाहिर है जयललिता की विरासत के सही हकदार पनीरसेल्वम ही होंगे पर राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बीच शशिकला ने पलानीस्वामी को इसका हकदार बना दिया था।देखा जाए तो प्रधानमंत्री मोदी जयललिता के समय से ही अन्नाद्रमुक को राजग के साथ लाने की कोशिश करते रहे हैं। हालांकि उनकी ऐसी ही कोशिश पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को लेकर भी थी पर वहां संभंव नहीं हो सका।
फिलहाल तमिलनाडु की सियासत कमोबेश उथल-पुथल से पूरी तरह उबर नहीं पाई है। ऐसे में बड़े सहारे की जरूरत उन्हें भी है और वहां की बदली राजनीति में भाजपा को दक्षिण के सबसे महत्वपूर्ण राज्य में प्रवेश का बड़ा सियासी मौका हाथ लगा है। 2019 में सरकार दोहराने का इरादा रखने वाले प्रधानमंत्री मोदी को भी एक बड़े दल का सहारा मिलता दिखाई देता है। कुछ ही दिनों में मंत्रिपरिषद् का विस्तार होगा। जाहिर है अन्नाद्रमुक और जदयू के लोग भी इसमें शामिल होंगे। हालांकि अन्नाद्रमुक के एनडीए में शामिल होने की घोषणा अभी शेष है पर स्थिति को देखते हुए लगता है कि अब यह महज एक औपचारिकता है।